logo

साबरमती का संत-27: क्यों डरते हैं गांधी से लोग, और प्रेम का ढोंग भी

13425news.jpg

 (‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  27वीं किस्त -संपादक। )


सुधांशु द्विवेदी, इलाहाबाद:


गांधी जिस तरह का भारत चाहते थे उससे लीग, संघ, वामपक्ष, मूल निवासी राजनीति आदि को खत्म हो जाने या अप्रासंगिक हो जाने का खतरा था। इसलिए ये लोग उनका विरोध करते थे और अंततः संघी लोगों ने उनकी हत्या ही कर दी। इस तथ्य के बावजूद कि हिन्दू धर्म को उन्होंने जिस  तरह की टूट से बचाया उसे 100 गोलवरकर और सावरकर मिलकर भी नहीं बचा सकते थे। गांधी के बारे में सबसे बड़ा झूठ पाकिस्तान और विभाजन के बारे में फैलाया गया है। यह उन संघियों की हीन भावना और अपराधबोध ने कराया जो अंग्रेजों के तलवा चाटने के आदी थे और जिनकी वजह से जिन्ना को पाकिस्तान बनाने का तर्क मिल जाता था। सावरकर द्विराष्ट वाद के समर्थक थे और मुस्लिम लीग के साथ मिलकर उन्होंने सरकार बनाई थी। उन्होंने 7 लाख सैनिकों की भर्ती ब्रिटिश सेना में कराई थी। ये सैनिक ही नेताजी की आज़ाद हिन्द फ़ौज से लड़े थे। संघियों में अकेले सावरकर ही आज़ादी की लड़ाई में लड़े थे वह भी माफ़ी मांगकर जब बाहर आये तो ब्रिटिश एजेंट हो गए। इन जनाब ने कहा था कि खून की आखिरी बूँद देकर विभाजन रोका जायेगा। पर फिर ललकार कर बिल मे घुस गए, गांधी जी ने भी कहा था कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा , तो उसदिन के बाद जब जिन्ना ने अपनी बात ज़बरन मनवा ली। गांधी दंगा ग्रस्त क्षेत्रों में शांति के लिए घूमते रहे, बाद में उन्हें एक अनैतिक झूठ के सहारे संघियों ने मारने की कोशिश की सफल भी रहे। पर तब लोगों को  सच पता था इसलिए संघ नेस्तनाबूद हो गया कई वर्षों तक के लिए। बाद में उसने गांधी के लिए दोहरी नीति अपनाई, फोटो भी लगाओ और गालियां भी देते रहो और उनकी विरासत को स्वच्छता अभियान तक सीमित कर दो, वे फ़िलहाल सफल हैं। विवेक पस्त लग रहा है...


वस्तुतः गांधी एक सीधे साधे आम भारतीय मन का प्रतिनिधित्व करते थे। सच्चाई के प्रति उनकी असंदिग्ध निष्ठा थी, पर वे जड़ों से नहीं कटना चाहते थे, इसलिए वे सुधारवादी इतने दूर तक ही हो पाए जितने जड़ों से न कट जाएँ। कथनी और करनी में उनके जैसा न्यूनतम अंतर रखने वाला उनके बराबर का व्यक्ति आधुनिक युग में कोई दिखता नहीं है।  गांधी यह सोचते थे कि नैतिक आभा खोने की ही वजह से भारत पददलित स्थिति में पहुंचा है। इसलिए उनका स्वराज(हिन्द का) आत्म-नियंत्रण और त्याग के भारतीय रास्ते से जुड़ा था। वे चाहते थे कि भारत नैतिक शक्ति बने और इस मामले में पुनः विश्व का नेतृत्व करे। वे सबसे बड़ा खतरा मूल्यों के हनन को मानते थे, सत्य एवं अहिंसा इसीलिए उनकी कसौटी थी। सत्य उनके लिए सृजन की शक्तियों का प्रतीक था, तो अहिंसा उस तक पहुंचने का मार्ग। वस्तुतः एक बिंदु पर जाकर वे एक हो जाते थे। वे मानते थे ये इंसानियत के सबसे बड़े मूल्य हैं। सत्य-निष्ठा, करुणा, कर्तव्य निष्ठा, ईमानदारी ....जैसे सभी मूल्य अन्ततः इन्ही से निकले हैं। एक पत्र में उनसे अलबर्ट आइन्सटीन ने प्रश्न किया कि आपको प्रेम और सत्य में से एक को चुनना ही पड़े तो आप किसे चुनेंगे। उन्होंने लिखा अल्बर्ट "मैं सत्य को ही चुनूँगा क्योंकि जो सत्य के साथ है वह प्रेम के विरुद्ध हो ही नहीं सकता।" वे हर हाथ को काम मिलने तथा गरीबी और बेकारी दूर करने पर सबसे अधिक चिंतन करते थे। इसी का नतीजा था वे कार्य एवं श्रम विभाजन पर आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था के पक्ष में थे यदि उससे अस्पृश्यता और गैर बराबरी निकाली जा सके। पर वे यह न सोच सके कि श्रम विभाजन में निचले पायदान पर खड़े लोगों की स्थित कोई वरदान नहीं है, और कथित उच्च वर्ण कर्म के आधार पर वर्ण विभाजन को कभी सफल होने नहीं देगा।

टैगोर जैसे महान मानवता वादी कवि तक सवर्ण चेतना से मुक्त न थे। जिसे बाद में गांधी ने महसूस किया, पर वे अंततः वर्ण एवं जाति रहित हिंदुत्व का खाका नहीं सुझा सके। हालाँकि सामाजिक अलगाव ख़त्म करने के उनके प्रयास बहुत ईमानदार थे। समरसता के उनके प्रयास भारत को जोड़ने के तहत था। उनका मानना था कि सभी को अपने धर्म का पालन करते हुए दूसरे धर्मों का सम्मान करना चाहिए। वे इसी मार्ग द्वारा हिन्दू धर्म को बुराईयों से मुक्त करते हुए उसे मज़बूत करना चाहते थे। आंबेडकर से उनका मुख्य मतभेद यही था। भीम राव गांधी की समरसता को ब्राह्मणवाद का कवच मानते थे। वे जातिप्रथा, वर्ण धर्म के साथ ही हिन्दू धर्म के भी आलोचक थे। वे गाँव को जाति एवं जड़ता का घर मानते थे, पर गांधी की भारतीयता का आधार ही गाँव था। वे भारत की जड़ें गाँव में तलाशते थे और मानते थे कि हिंदुत्व और ग्रामीण संस्कृति भारत की समन्वित-समावेशी संस्कृति के आधार हैं, शक्ति हैं, जिन्हें ख़त्म नहीं होना चाहिए। गांधी भारत को भारत जैसा बनते देखना चाहते थे , जबकि अन्य समकालीन नीति नियंताओं के सामने अमेरिका-रूस-जापान जैसे मॉडल सामने होते थे। यही शेष लोगों और गांधी के बीच का अंतर था।

गांधी उस तरह के प्रखर बौद्धिक न थे जिस तरह के टैगोर, डॉ आंबेडकर और नेहरू थे, पर जीवानुभवों और ईश्वर पर गहन विश्वास ने उन्हें एक गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान की थी। इसके निर्माण में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों( खासकर गीता) , रस्किन, थोरो, टॉलस्टॉय आदि का योगदान था। राम उनके आराध्य थे, जिनकी प्रजावत्सलता(रामराज्य के रूप में) उनका आदर्श थी।हालाँकि गांधी अराजकता वादी थे और वे राज्य को आवश्यक बुराई मानते थे। ऐसा इसलिए भी था कि उस समय का अंग्रेज परस्त तबका तंत्र को ही सबकुछ मानता था और समुदाय को घास पात समझता था। यह तबका मानता था कि तंत्र का धीमा एवं सोफेस्टिकेटेड तरीका ही श्रेष्ठ है, पर गांधी लोकतंत्र के प्राचीन भारतीय तरीके से प्रभावित थे, जो ग्राम केंद्रित लघु गणराज्यों  का विकेंद्री कृत तंत्र था।......

गांधी जी के विचारों का आधार सत्य था। सत्य को वे सृजन से जोड़ते थे और ईश्वर से भी। वे उसे धर्म का आधार भी मानते थे। सत्य पर दृढ़ रहकर अन्याय के प्रतिकार को उन्होंने सत्याग्रह का नाम दिया जो दुनिया में उनका सबसे बड़ा उत्पाद सिद्ध हुआ। मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, आंग सान सू की, वंगारी मथाई, बिशप डेसमंड टूटू, सुन्दरलाल बहुगुणा, बाबा साहब आम्टे, विनोबा भावे....जैसे तमाम महान एक्टिविस्ट सत्याग्रह के हथियार से समाज और राष्ट्र परिवर्तन के लिए कटिबद्ध थे। सत्याग्रह का रास्ता अहिंसा का रास्ता था। अहिंसा वीरों का रास्ता था। उनका साफ़ कहना था कि हिंसा और कायरता में से चुनना हो तो मैं हिंसा चुनूँगा। अहिंसा का उनका रास्ता अहिंसा परमो धर्मः से प्रेरित था जो उपनिषदों से प्रेरित था। जो लोग अहिंसा को भारत की पराजय का कारण समझते और बताते हैं वे ऐसे षड्यंत्रकारी लोग हैं जो विषमतायुक्त और विभक्त भारतीय समाज पर पर्दा डालना चाहते हैं और अपनी करतूतों को छिपाना चाहते हैं वरना शांतिवादी भारत के महानतम शासक अशोक का साम्राज्य भारतीय शासकों में सबसे बड़ा, सबसे अधिक लोक कल्याण कारी और शांतिपूर्ण था। और पृथ्वी राज चौहान, दाहिर, बालाजी विश्वनाथ हों या सिराजुद्दौला अहिंसा की वजह से नहीं  फूट की वजह से हारे थे। न ही सोमनाथ के कुढ़मगज़ 50000 हथियारबंद पुजारी ही अहिंसक थे जो हज़ारों किमी से आये कुछ हज़ार हमलावरों से इसलिए नहीं लड़े कि अंतिम समय तक उन्हें उम्मीद थी कि शंकर जी प्रकट होकर इस म्लेच्छ का वध जरूर करेंगे। पर जब गजनवी ने गदा से शिवलिंग तोड़ दी तो वे सब के सब बेहोश हो गए। गांधी जी श्रम की सर्वोच्चता और आखिरी आदमी के उत्थान के लिए सर्वोदय के विचार को आगे बढ़ाना चाहते थे। वे कहते थे कि एक नाई का काम एक डॉक्टर  के काम के समान ही महत्त्व पूर्ण है। उन्होंने अपना प्रसिद्द जंतर देते हुए कहा कि जब भी आप कोई कार्य करें यह सोच कर करें कि इससे आखिरी आदमी के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। इसी सर्वोदय के प्रतीक के रूप में उन्होंने चरखे का प्रतीक चुना। वस्तुतः यह ब्रिटिश सभ्यता के विरुद्ध भारतीय स्वाव लंबन, श्रम और विरोध का प्रतीक था क्योंकि अंग्रेजों ने सबसे अधिक नुकसान भारतीय स्वाव लंबिता की परम्परा को ही पहुँचाया था।


हिन्दस्वराज में गांधी पूरब और पश्चिम के विमर्श में भारतीयता का पक्ष दिखाते हैं....आत्मत्याग, संयम, अपरिग्रह और सादगी के आदर्श पूरब के पहचान रहे हैं। दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटियों के लिए गांधी का संघर्ष जितना वाह्य था उतना ही आंतरिक था। गिरिराज किशोर ने 'पहला गिरमिटिया' में इस आत्मसंघर्ष का बहुत आधिकारिक चित्रण किया है जो बाद में मेकिंग ऑफ़ महात्मा फ़िल्म का आधार बना। गांधी जी भारत की परतंत्रता को पूरब की सभ्यता के पराभव के रूप में लेते थे और हिंदुस्तान को एकजुट करके पश्चिम को एक सांस्कृतिक प्रतिउत्तर देना चाहते थे। वे इस बात को गहराई से महसूस करते थे कि जो भारत 1750 तक यूरोप से बड़ी अर्थव्यवस्था था वह 100 सालों में इतना दीन और पराजित मानसिकता का क्यूँ कर हो गया?.....उन्होंने भारतीयों की पराजित मानसिकता को पढ़ लिया और उन्होंने महसूस किया कि अंग्रेजों ने न केवल भारत को राजनीतिक तौर पर जीता है बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भी बढ़त बना चुके हैं। इस बढ़त को ख़त्म किए बगैर भारत आज़ाद नहीं हो सकता। उन्होंने भारतीयों में आत्मविश्वास, प्रतिरोध तथा उत्सर्ग की भावना भर भर दी। गांधी की दक्षिण अफ़्रीकी संघर्ष ने दुनिया के महानतम साम्राज्य के खिलाफ खड़े एक निडर योद्धा की छवि को घर-घर पहुंचा दिया। ऊपर से भारतीय ऋषियों-मुनियों वाली उनकी सादगी ने उनको एक अलौकिक छवि प्रदान की, ऐसी कि आदिवासी संघर्ष के दौरान यह बात फ़ैल गई कि गांधी टोपी पहनने से गोली असर नहीं करेगी।      

गांधी जी ने स्वदेशी को अपने संघर्ष का आधार बनाया पर यह स्वदेशी जागरण मंच वाली स्वदेशी न थी, महज़ एक जड़ लिस्ट मात्र जो देश में बनी और विदेश में बनी चीजों का फर्क बताती हो, उनकी स्वदेशी थी जमीन और लोक चेतना से जुड़ी चेतना। जैसे चिकित्सा में उनकी स्वदेशी भावना से सम्बंधित भारत में बनी दवाएँ न थीं बल्कि वह प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियाँ थीं जिनका प्रयोग सदियों से भारतीय लोग करते चले आ रहे थे। वाणी और आहार का संयम भी इसमें शामिल था। लोक से जुड़ी चेतना की वजह से ही वे ग्राम केंद्रित "भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति" पर जोर देते थे। ग्राम स्वराज, पंचायती राज जैसे विचार इसी परिप्रेक्ष्य में थे। वे पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों विचारों को अतिवादी मानते थे। पूंजीवाद में शोषण, गैर बराबरी और साम्यवाद में हिंसा उन्हें निंदनीय लगती थी। इस लिए वे एक मिश्रित विचार ट्रस्टी शिप को लेकर आए जिसमें पूँजी पतियों को अपना कारोबार एक ट्रस्ट की तरह श्रमिकों की मदद से चलाना होता, हालाँकि यह एक आदर्शवादी और नैतिक विचार था, पर इतना नैतिक बल बिड़ला भी नहीं दिखा सके जो गांधी के सबसे करीबी थे। आधुनिक सभ्यता और मशीनों के खिलाफ गांधी के विचारों को नेहरू तक ने वैष्णव कूप मंडूकता के रूप में लिया। जबकि वे इसके खिलाफ इसलिए थे क्योंकि यह लोगों से रोजगार छीन लेती थी।स्वदेशी, ग्राम्योदय और ट्रस्टीशिप द्वारा वे अंग्रेज ताकत का मुकाबला करने की सोचते थे, इला भट्ट, कुरियन, कमला देवी चटोपाध्याय, कुमारप्पा, विनोबा, नाना जी देशमुख आदि ने उनकी सोच को आज़ाद भारत में भी आगे बढ़ाया। वे दुनिया से गरीबी, बेरोजगारी और भूख से विनाश हेतु सादे जीवन और उच्च विचारों के कायल थे। उनका मानना था कि दुनिया की अधिकांश समस्याएं इंसानी लालच की वजह से पनपी हैं। उन्होंने इस प्रवित्ति पर कहा कि यह धरती हमारी जरुरत पूरा कर सकती है, हमारे लोभ नहीं। वस्तुतः यही सूत्र धरती को बचाने के रास्ते की ओर जाता है। वे साधन एवं साध्य दोनों की पवित्रता में विश्वास करते थे। उनका दृढ़ता से मानना था कि गलत साधनो से प्राप्त साध्य हमेशा अशुभ परिणाम लाने वाले होते हैं। इसीलिए वे राजनीति को धर्म यानी कर्तव्य,नैतिकता और मूल्यों से अनिवार्य रूप से जोड़ना चाहते थे। नेहरू और जिन्ना जैसे स्टेटमैन इसका अर्थ न समझकर इसे प्रतिगामी चीज मानते थे। वे आस्थावान वैष्णव थे। और आत्यंतिक रूप से धार्मिक भी, पर उनकी धार्मिकता भारतीय संत परम्परा के सर्वधर्म समभाव पर आधारित थी। वे अच्छी तरह से दक्षिण अफ्रीका में देख चुके थे कि सत्ता कैसे फूट डालती और राज करती है। वे देख रहे थे कि कैसे अंग्रेज भारत को बाँट रहे हैं। जाति-धर्म-क्षेत्र-प्रजाति-भाषा की दीवार खड़ी कर रहे हैं। गांधी यह भांप चुके थे और दक्षिण अफ़्रीकी प्रयोग से सीख भी चुके थे कि निडरता, अहिंसा और एकता युक्त सत्याग्रह ही अंग्रेजों का सही जवाब है। गांधी आजीवन यही लड़ाई लड़ते रहे, और इसी मुद्दे पर कट्टरवाद के शिकार भी हो गए।


ऐतिहासिक व्यक्ति मुर्गे या बटेर नहीं हैं जो कि हम उन्हें वेबलॉग्स की दुनिया में लड़वाकर, एक दूसरे के विरुद्ध खड़े करें और उनकी भद पिटवाकर फिर खुद चटखारे लें। पर छिछोरी विचारधाराएं यही करती हैं।  दो से ढाई लाख छिछोरे वेतनभोगी हैं इतिहास और विचारधाराओं को बिगाड़ने की परियोजना में।...इनका सबसे बड़ा आरोप यह होता है कि गांधीजी ने भगत सिंह को फाँसी से बचाया क्यों नहीं?...छिछोरे स्वयं उत्तर देते हैं कि अहिंसा की रक्षा हेतु!....छिछोरों का फिर निष्कर्ष होता है गांधी को राष्ट्र से ज्यादा अपने सिद्धांत प्यारे थे। यह छिछोरा राष्ट्रवाद सिर्फ राष्ट्रवादी लंपट पैदा कर सकता है। क्योंकि यह सफ़ेद झूठ पर आधारित है। अव्वल तो गांधी कोई जज नहीं थे और न वायसरॉय जो उनके कहने से भगत सिंह छूट जाते। वैसे भगत सिंह खुद छूटना नहीं चाहते थे वे सावरकर की तरह कायर भी नहीं थे कि माफ़ी मांगें और गिड़ गिड़ायें। ...पर इतिहास गवाह है गांधी जी ने इरविन से इस बारे में गंभीर प्रयास किए थे, पर जो अंग्रेज खुद गांधी को निबटाना चाहते थे वे उनकी बात क्यों मानते। गांधी वांग्मय के भाग 45 में पृष्ठ 333-334 पर गांधी जी की मार्मिक चिट्ठी है जो भगत सिंह को मुक्त करने के बारे में है। पृष्ट 354 पर इरविन का उत्तर है। पर यह सब छिछोरे क्यों देखेंगे। एक सामान्य समझ की बात है कि भगत सिंह के पक्ष में खुलकर बोलने से गांधीजी को अपार लोकप्रियता हासिल होती , पर इससे हिंसा को बढ़ावा मिलता पर भगत सिंह को कोई लाभ नहीं होता। इसलिए गांधीजी ने अपना नैतिक रास्ता चुना , उन्होंने भगत सिंह की रिहाई की बात भी उठाई पर हिंसा का समर्थन भी नहीं किया। बाद में भगत सिंह ने भी अहिंसा को भारत की समस्या का हल बताया था।

कुछ खास धारा के लोग सुभाष को लेकर भी गांधी जी को कटघरे में खड़ा करते हैं। गोया गांधी  जैसे सत्ता के खेल में शामिल हों ....पर हमारे देश में अफवाहों को इतिहास का हिस्सा बना दिया है संघियों ने। कांग्रेस में 1925 के बाद नेहरू और सुभाष धूमकेतु की तरह उभरे। भगत सिंह ने भी 1928 इन दोनों की तुलना की थी और नेहरू को नए भारत की उम्मीद बताया था और सुभाष को आत्मप्रचारक कहा था। गांधी जी के सबसे निकट पटेल थे जो सुभाष के कट्टर विरोधी थे , यहाँ तक कि उनसे मुकदमा भी लड़ चुके थे, भाई की संपत्ति को लेकर। पटेल के खुले विरोध के बावजूद गांधी जी ही 1938 में सुभाष को अध्यक्ष पद पर लाये। नेहरू भी सुभाष के पक्ष में थे। बावजूद इसके कि सुभाष 1922 से ही गांधीवादी पद्धति के विरोधी थे और आर्थिक और राजनैतिक रूप से साम्यवादी थे। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सुभाष ने एक भव्य परेड आयोजित की जिससे रुष्ट होकर गांधी ने उसे सर्कस की उपमा दी। राजनैतिक प्रस्ताव भी गांधी जी की योजना के विपरीत थे। यहीं मूल्यों और लक्ष्यों को लेकर मतभेद आरम्भ हुए। जो 1939 में चरम पर पहुँच गए। गांधी इस बार पटेल को अध्यक्ष चाहते थे पर पटेल जानते थे कि पार्टी में नेहरू-सुभाष की ताकत अधिक है। इसलिये वे नहीं लड़े। अंततःएक अनजान से तमिल नेता सीतारमैया भिड़े और गांधी भी उन्हें पार नहीं लगा सके क्योंकि नेहरू सुभाष साथ थे। नेहरू से सुभाष के मत भेद हिटलर, मुसोलिनी और तोजो के साथ को लेकर उपजे क्योंकि वे मानते थे कि ये सभी भारत के लिए नया खतरा बन जाएंगे। पर सुभाष के आदर्श हिटलर-मुसोलिनी-स्टालिन ही थे। आश्चर्य जनक रूप से सुभाष के इन क़दमों का गांधीजी ने अपेक्षा कृत कम विरोध किया, जिसको लेकर वे अंग्रेज अखबारों के निशाने पर रहे। इसीलिए सुभाष ने अपने प्रसिद्द सिंगापुर भाषण गांधीजी को समर्पित करते हुए उन्हें बापू कहा। उनके न रहने पर नेहरू ने आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुकदमा लड़ा। हालाँकि उनके बारे में अफवाहों का शमन करने के लिए पटेल के आदेश पर नेताजी के परिवार पर निगरानी भी कराई।..हे छिछोरों आप उस महान नेता को बख़्स दें। घृणित राजनीति से बाज आएं। जरा अकल पर जोर दें, सोचें कि नेता जी जैसा जुझारू देश भक्त यूँ छिप कर चोरों जैसा क्यूँ रहता, कारण कैसा भी रहता। वे डरपोक न थे जैसा नेहरू को दोषी सिद्ध करने के चक्कर में छिछोरे उन्हें बनाना चाहते हैं।

भगत सिंह के मुद्दों पर संघी और कम्युनिस्ट मिलकर दुष्प्रचार करते पाए जाते हैं..संघी मानसिकता के चवन्नी छाप फिल्मकारों ने भी गांधी की यह छवि प्रसारित की....भगत सिंह की हिंसा नीति खुद भगत सिंह को भी मजबूरी और तात्कालिक जरुरत लगती थी...भगत सिंह एक कट्टर साम्यवादी थे जिन्होंने जीवन में 2बड़े काम किए थे। लेकिन वे दोनों काम सामूहिक थे..असेम्बली में बम फेंकना और सांडर्स की हत्या करना। निश्चय ही वे महान थे। चंद्रशेखर आजाद जो इस गुट के नेता थे क्या थे?....आज़ादी के वे अनाम सिपाही जिन्होंने लाखों के संख्या में अपना जीवन निछावर कर दिया वे क्या थे....वस्तुतः कुछ छुद्र मानसिकता के लोगों ने गाँधी को भगत सिंह के सामने जानबूझकर खड़ा किया है। दोनों की अपनी विचारधारा थी। दोनों निःस्वार्थ भाव से देश के लिए लगे थे...विरोध दूसरों का खड़ा किया हुआ है...गाँधी और ब्रिटिश सरकार के बीच पत्र व्यवहार से स्पष्ट है( जैसा कि नेहरु की आत्मकथा में भी उल्लेख है) कि गाँधी ने सरकार से अंतिम दम तक फांसी टालने को कहा था...पर जो सरकार स्वयं गाँधी को मरने का इंतजार करती थी वह उनकी बात क्यूँ मानती?...ऊपर से स्वयं भगत सिंह ने अपने भाई व चाचा को चिट्ठी लिखकर फांसी न रुकवाने और माफीनामे की अपील न करने को कहा था...ये मेरा मत नहीं है...यह दस्तावेजों के रूप में सुरक्षित पर गोएबल्स जो 5.6 का था...बड़े ही शांत ढंग से कहता था कि मैं 5.10 का हूँ..और उसके मरने के बाद उसे 5.10 ही कहा गया......तब भी जब पोस्टमार्टम के दस्तावेज में वह 5.6 ही लिखा गया था.....यह होता है अफवाह का असर....

इससे बड़ा कुतर्क और अश्लील आरोप नहीं हो सकता कि गाँधी का कोई आन्दोलन सफल नहीं रहा....यह संघी कुतर्क की इन्तेहा है...भगत सिंह ने देश आजाद करा लिया तभी गिरफ्तारी दी....., हेडगेवार ने बचपन में लड्डू खाने से इंकार करके ही आज़ादी दिलाई...सुभाष की आजाद हिन्द फ़ौज  तो अंग्रेजों को हराकर पूरा भारत जीतते हुए दिल्ली पहुँच गई थी क्या?गाँधी न होते तो देश के आम आदमी की रीढ़ कभी न बन पाती...गाँधी भारतीय प्रतिरोध के प्रतीक थे..इसलिए सुभाष ने उन्हें राष्ट्रपिता कहा...यह तमीज उनलोगों में विकसित ही नहीं हो सकती थी...जो अंग्रेजों के टट्टू थे...और रीढ़विहीन थे...वस्तुतः हम गाँधी-भगत सिंह-सुभाष का मूल्यांकन उस प्रतिरोध की कीमत लगाकर करें...आज़ादी इन सभी के प्रयासों का परिणाम थी...

ऐसे तमाम प्रश्न हर भारतीय के मन में होंगे पर आम भारतीय इनके उत्तर इंटरनेट व अफवाहों में खोजने लगा है। यही वजह की वह गांधी और अंततः भारतीय आत्मा से दूर होता जा रहा है। भारतीय आत्मा की खोज गांधी , बुद्ध , महावीर , शंकर , कबीर , अम्बेडकर की जानी चाहिए थी लेकिन तमाम लोगों ने प्रोपेगैंडा मशीन के प्रभाव में अपना नया राष्ट्रपिता तलाश लिया है....ऐसे में यह समय और भी संकटग्रस्त हो गया है और वास्तव में गांधी की वास्तविक जरूरत भी बढ़ती जा रही है कठिन समय के घने होने के साथ ही।

इसे भी पढ़िये:

साबरमती का संत-1 : महात्मा गांधी के नामलेवा ही कर रहे रोज़ उनकी हत्या

साबरमती का संत-2 : ट्रस्टीशिप के विचार को बल दें, परिष्कृत करें, ठुकराएं नहीं 

साबरमती का संत-3 : महात्‍मा गांधी के किसी भी आंदोलन में विरोधियों के प्रति कटुता का भाव नहीं रहा

साबरमती का संत-4 : गांधी को समझ जाएँ तो दुनिया में आ सकते हैं कल्पनातीत परिवर्तन 

साबरमती का संत-5 : जनता की नब्ज़ पर कैसी रहती थी गांधी की पकड़

साबरमती का संत-6 : आज ही की तारीख़ शुरू हुआ था अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन

साबरमती का संत-7 : न हिंदी, ना  उर्दू, गांधी हिंदुस्‍तानी भाषा के रहे पक्षधर

साबरमती का संत-8: जब देश आज़ाद हो रहा था तब गांधी सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए अनशन पर थे

साबरमती का संत-9: क्‍या महज़ महात्‍मा गांधी के कारण ही मिली आज़ादी !

साबरमती का संत-10: हे राम ! भक्तों को माफ करें, गांधीवादी भक्तों को भी

साबरमती का संत-11: महात्‍मा गांधी और वामपंथ कितने पास, कितने दूर

साबरमती का संत-12: महात्‍मा गांधी को मौलवी इब्राहिम ने बताया रामधुन से उन्‍हें कोई एतराज़ नहीं

साबरमती का संत-13: आख़िर पटना के पीएमसीएच के ऑपरेशन थियेटर क्‍यों पहुंचे थे बापू

साबरमती का संत-14: बापू बोले, मैं चाहूंगा कि यहाँ मुसलमान विद्यार्थी भी संस्कृत पढ़ने आ सकें

साबरमती का संत-15: महात्‍मा गांधी, बीबी अम्तुस सलाम और दुर्गां मंदिर का खड्ग

साबरमती का संत-16: सबको सन्मति दे भगवान ...भजन में ईश्वर-अल्लाह कब से आ गए

साबरमती का संत-17: संभवतः बिहार की इकलौती जगह जहां गांधी 81 दिनों तक रहे

साबरमती का संत-18: अहिंसा सिर्फ कमज़ोरों की ताक़त नहीं, वीरों का आभूषण भी है-बापू कहते थे

साबरमती का संत-19: गांधी के पहले आश्रम के बाजारीकरण की तैयारी, खो जाएगी सादगी

साबरमती का संत-20: पंजाब से यूपी तक सैकड़ों चंपारण एक अदद गांधी की जोह रहे बाट

साबरमती का संत-21: एक पुस्‍तक के बहाने गांधी और नेहरू  : परंपरा और आधुनिकता के आयाम

साबरमती का संत-22: महात्‍मा गांधी ने उर्दू में लिखी चिट्ठी में आख़िर क्‍या लिखा था!

साबरमती का संत-23: भारत के इकलौते नेता जिनकी पाकिस्‍तान समेत 84 देशों में मूर्तियां

साबरमती का संत-24: तुरंत रसोई घर में चले गए और स्वयं ही पराठे और आलू की तरकारी बनाने में लग गए

साबरमती का संत-25: महात्मा गांधी ने क्यों त्यागा सूटबूट और धारण की सिर्फ धोती, जानिये

साबरमती का संत-26: समकालीन विश्व में महात्मा की प्रासंगिकता कितनी सार्थक

(सुधांशु युवा पत्रकार और लेखक हैं। )

 
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।