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साबरमती का संत-11: महात्‍मा गांधी और वामपंथ कितने पास, कितने दूर

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  11वीं किस्त -संपादक। )

 

प्रबोध सिन्हा, दिल्ली:

कुछ लोग गाँधी जी के बारे में कहते हैं कि गाँधी जी अगर चाहते तो भगतसिंह को फाँसी नहीं होती। यह बेहद फर्जी बात है और उसका कोई आधार नहीं है। मैं जानता हूँ कि मेरे बात से बहुत लोग असहमत होंगे। गाँधी जी पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना सबसे आसान है पर गाँधी ऐसे क्यों थे उसपर कोई नहीं जाता। गाँधी जी पर बहुत ज्यादे नहीं लिखा गया है। चूँकि गाँधी जी के व्यक्तिगत सलाहकार महादेव देसाई भाई थे वह गाँधी की चिट्ठी बहुत लिखा करते थे।  भगतसिंह को जब फाँसी हुई तो वह 23 साल के थे। बहुत ही परिपक्व नजरिया था उनका। जबकि आज 50 साल के लोग भी जो उनके बारे में जो नजरिया रखते हैं वह बहुत ही बचकाना है। जितना भगतसिंह ईमानदार थे ठीक उतने ही गाँधी भी ईमानदार थे। भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ़ करवाने हेतु महात्मा गांधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की। यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ की जाए।

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चूँकि भगतसिंह ने कहा भी कि मुझे अपनी सजा माफ नहीं करवानी है। और दूसरी बात भगतसिंह एक मूवमेंट खड़ा करना चाहते थे इसी वजह से वह अपनी सजा के माफी के पक्षधर नहीं थे। जबकि गाँधी चाहते थे कि भगतसिंह का सजा माफ हो जाये। सजा माफ का अर्थ यह है कि उनके फाँसी की सजा को आजीवन करावास में बदला जाए और यह बात तय भी हो चुकी थी पर आई पी एस लॉबी भगतसिंह के फाँसी का पक्षधर था सो बात वही पर अटक गई। इस बात से गाँधी जी को बहुत गहरा धक्का लगा। गाँधी जी असहमति का खुले दिल से स्वागत करते थे। गाँधी सिर्फ शरीर नहीं एक विचार थे। बल्कि मैं अगर कहूँ तो गाँधी जी की ग्राम स्वराज साम्यवाद का अगला चरण है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। गाँधी बराबरी के समाज की वकालत करते थे। दूसरी बात गाँधी विचार स्टेटलेस विचार को मानते थे। जब समाज में चोरी ही न हो ब्लात्कार न हो यानि कि हर एक नागरिक में उसके अधिकार की जाग्रता हो जाये और वह न सिर्फ अपने प्रति बल्कि सभी के प्रति जवाबदेह हो वहाँ समाज और खूबसूरत होता है। 

 


तीसरी बात गाँधी जब आजादी के आन्दोलन की बात करते हैं तो यह बात उस काल और परिवेश पर फिट बैठता था यानि गाँधी ने उस काल के अनुसार थीसिस लिखा जबकि आज काल बहुत आगे जा चुका है और बहुत सारी विचारधारा हमेशा अमेंडमेंट की माँग करता है। अगर पानी में ठहराव है तो निश्चित रूप से उसमें सडांध आएगी। पानी बहती हुई और चंचल अच्छी लगती है। मेरा कहना है कि आज के काल के परिस्थिति के अनुसार नई थीसिस आनी चाहिए। मैं यह कहता हूँ कि यह जिद्द वाम विचारधारा में भी है। वाम विचारधारा अगर वैज्ञानिकता के सिद्धांत पर है तो विज्ञान तो परिवर्तनशील होता है। तब वाम विचारधारा में भी बदलाव होना चाहिए। गाँधी जी की जो सोच थी वह बहुत दूर की थी। गाँधी को न संघी समझ सकते हैं न सनातनधारी। गाँधी विचार वाम विचार की अगली परिणीति है। मैं देखता हूँ कि बहुत ऐसे वामपंथी जो वैचारिक स्तर पर तो वामपंथी है पर वह सनातनी या कर्मकाण्ड को मानने वाले हैं। इस तरह दोहरापन व्यक्ति को कहीं नहीं छोड़ता वह अंततः थक चुका होता है। पर वहीं जो समाज के अनुसार डॉक्ट्रिन विकसित करता है वह न केवल अपना विकास करता है बल्कि समाज का विकास करता है।

 

गाँधी का स्वराज 

गाँधी के 'स्वराज' की अवधारणा अत्यन्त व्यापक है। स्वराज का अर्थ केवल राजनीतिक स्तर पर विदेशी शासन से स्वाधीनता प्राप्त करना नहीं है, बल्कि इसमें सांस्कृतिक व नैतिक स्वाधीनता का विचार भी निहित है। यह राष्ट्र निर्माण में परस्पर सहयोग व मेल-मिलाप पर बल देता है। शासन के स्तर पर यह ‘सच्चे लोकतंत्र का पर्याय’ है। गाँधी का स्वराज ‘निर्धन का स्वराज’ है, जो दीन-दुखियों के उद्धार के लिए प्रेरित करता है। यह आत्म-सयंम, ग्राम-राज्य व सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर बल देता है। गाँधी ने ‘सर्वोदय’ अर्थात् सर्व-कल्याण का समर्थन किया। अहिसांत्मक समाजःगाँधी की दृष्टि में आदर्श समाज-व्यवस्था वही हो सकती है, जो पूर्णतः ]]अहिंसा]]त्मक हो। जहाँ हिंसा का विचार ही लुप्त हो जाएगा, वहाँ ‘दण्ड’ या ‘बल-प्रयोग’ की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी अर्थात् आदर्श समाज में राजनीतिक शक्ति या राज्य की कोई आवश्यकता नहीं होगी। गाँधी हिंसा तथा शोषण पर आधारित वर्तमान राजनीतिक ढाँचे को समाप्त करके, उसके स्थान पर एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे, जो व्यक्ति की सहमति पर आधारित हो तथा जिसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीकों से जन-कल्याण में योगदान देना हो।

राज्य-विहीन समाज

गाँधी के अनुसार अहिंसात्मक समाज राज्यविहीन होगा। वह राज्य का विरोध इस आधार पर करते हैं, कि न तो यह स्वाभाविक संस्था है और न ही आवश्यक है। उन्होंने दार्शनिक अराजकतावादी की भाँति इस आधार पर राज्य को अस्वीकार किया-

(1) राज्य हिंसा पर आधारित है। यह संगठित रूप में हिंसा की प्रतिनिधित्व करता है,

(2) राज्य की बल-शक्ति व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा व्यक्तित्व हेतु विनाशकारी है

(3) एक अहिंसात्मक समाज में राज्य की कोई आवश्यकता नहीं है।

गाँधी के अनुसार राजनीतिक शक्ति साध्य नहीं बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में लोगों के विकास में सहयोग देने का साधन है। यह राष्ट्रीय प्रतिनिधियों द्वारा राष्ट्रीय जीवन का नियमन करती है। यदि राष्ट्रीय जीवन इतना परिपूर्ण हो जाए कि आत्मनियमित हो जाऐं तो किसी भी प्रतिनिधि की आवश्यकता नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक अपना शासक स्वयं है। वह स्वयं पर इस प्रकार शासन करता है, कि वह अपने पड़ोसी के लिए बाधा नहीं बनता। ऐसी आदर्श स्थिति में राजनीतिक शक्ति नहीं होती, क्योंकि उसमें कोई राज्य नहीं होता। गाँधी ने उसे ‘‘प्रबुद्ध अराजकता की स्थिति’’ कहा है। यही ‘राम राज्य’ है। टॉलस्टॉय ने इसे ‘‘पृथ्वी पर परमेश्वर का राज्य’’ कहा है।

 

ग्राम : गणराज्यों का संघ

गाँधी का राज्याविहीन, वर्गविहीन समाज अनेक स्व-शासित तथा आत्मनिर्भर ग्राम-समुदायों में विभक्त होगा। प्रत्येक ग्राम-समुदाय का प्रशासन पाँच व्यक्तियों की पंचायत चलाएगी, जो ग्रामवासियों द्वारा निर्वाचित होगी। ग्राम पंचायतों को विधायी, कार्यकारी तथा न्यायिक शक्तियाँ प्राप्त होंगी। ग्राम पंचायतों के ऊपर मंडलों की, उनके ऊपर जिलों की तथा जिलों के ऊपर प्रान्तों की पंचायते होंगी। सबसे ऊपर सारे राष्ट्र के लिए केन्द्रीय (संघीय) पंचायत होगी। प्रत्येक गाँव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सुरक्षा की दृष्टि से स्वावलम्बी होगा। सैनिक-शक्ति व पुलिस नहीं होगी। बड़े नगर, कानूनी अदालतें, कारागार तथा भारी उद्योग नहीं होंगे। सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा। प्रत्येक गाँव स्वयंसेवी रूप से संघ से सम्बद्ध होगा। गांधी ने इसे ‘वास्तविक स्वराज्य’ कहा है।

गाँधी का मानना था कि इस प्रकार के संघ के प्रबन्ध व संपोषण के लिए सरकार आवश्यक होगी। अतः एक आधुनिक आलोचक का मत है कि गाँधी का आदर्श समाज से तात्पर्य मुख्यतः अहिंसक राज्य था, न कि अहिंसात्मक, राज्यविहीन समाज। दूसरी ओर आबिद हुसैन का मत है कि गाँधी का राम राज्य पूर्ण अराजकतावादी राज्यविहीन समाज है, जो नैतिक कानून द्वारा शासित है। इस प्रकार के अहिंसक समाज में शान्ति-व्यवस्था प्रेम की शक्ति या सत्याग्रह के रूप में आत्मबल द्वारा स्थापित होगी। गाँधी के अनुसार सत्याग्रह व्यक्तियों, वर्गों तथा राष्ट्रों के मध्य शोषण तथा दमन का प्रतिरोध करने का प्रभावपूर्ण यंत्र है।

गाँधी का मत था कि राज्यविहीन तथा वर्गविहीन अहिंसक समाज की स्थापना का लक्ष्य सहज रूप से प्राप्त नहीं होगा। अतः राज्य को तत्काल समाप्त करना ठीक है। फलतः उनका लक्ष्य राज्य को अहिंसा के सिद्धांतो के अनुरूप ढालना है। अहिंसक राज्य में सामाजिक व्यवहार को नियमित करने हेतु एक प्रकार की सरकार तथा राजनीतिक सत्ता होगी, किन्तु वह कम से कम शासन करेगी, क्योंकि सामाजिक जीवन आत्म नियमित होगा। व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होगी। अधिकांश कार्य स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सम्पन्न होंगे। गाँधी के ये विचार रसेल, जी0डी0एच0 कोल जैसे गिल्ड समाजवादियों से मिलते-जुलते हैं।

 

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आर्थिक विकेन्द्रीकरण

गाँधी का जनतांत्रिक समाज एक समाजवादी राज्य होगा। भागवत पुराण से प्रभावित होने के कारण उनका मत था कि -

‘‘सम्पत्ति धारण करने का अर्थ है, भविष्य के लिए पूर्वयोजना बनाना। एक सत्य का खोजी... कल के लिए कुछ नहीं रखता..... सम्पन्न व्यक्तियों के पास वस्तुओं का अतिरिक्त भण्डार होता है, जबकि करोड़ों व्यक्ति भरण-पोषण के अभाव में भूखों मरते हैं। यदि मनुष्य अपने पास इतना ही रखे, जितना आवश्यक है तो कोई भी अभावग्रस्त नहीं होगा तथा सभी सन्तुष्ट जीवन जी सकेंगे।’’

गाँधी निजी सम्पत्ति के समापन के पक्ष में नहीं हैं किन्तु आर्थिक समानता लाना चाहते हैं। आर्थिक समानता से तात्पर्य है-सभी के लिए पर्याप्त व सन्तुलित भोजन, आवास तथा तन ढकने के लिए खादी। वह स्वदेशी का पक्ष लेते हुए कुटीर व लघु उद्योग तथा खादी उद्योगों के विकास पर बल देते हैं।

गाँधी ने प्रौद्योगिकी प्रधान उद्योगों या मशीनों द्वारा उत्पादन का विरोध किया तथा इसके स्थान पर श्रम प्रधान उद्योगों को वरीयता दी। उनके अनुसार उत्पादन लोगों द्वारा किया जाए, फैक्ट्रियों द्वारा नहीं। गाँधी ने ‘श्रम-सिद्धांत’’ के अन्तर्गत यह शिक्षा दी कि प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक श्रम करके अपने उपभोग की वस्तुओं में योगदान देना चाहिए। चूँकि इसमें प्रत्येक प्रकार की सेवा (चाहे नाई हो या वकील) या श्रम को एक जैसा सम्मान दिया जाएगा, इसलिए श्रम की गरिमा स्थापित होगी तथा वर्गीय भेद मिट जाने से ‘वर्गविहीन’ समाज की स्थापना होगी।

गाँधी ने भूस्वामियों तथा पूँजीपतियों की सम्पत्ति-अधिग्रहण का समर्थन नहीं किया है। ईसाई समाजवादियों की तरह वह पूँजीपतियों की मनोवृत्ति में प्रेम व अनुनय द्वारा परिवर्तन लाकर अपना आर्थिक समानता का लक्ष्य प्राप्त करना चाहते थे। पूँजीपति स्वयं को सम्पत्ति का स्वामी न समझकर ट्रस्टी या न्यासी समझें। जो सम्पत्ति उनके पास है, उसे वे समाज की धरोहर समझें। उसमें से वे अपने लिए उतना ही व्यय करें, जिनकी उनकी सेवाओं के लिए उपयुक्त है, शेष समाज को लोटा दें अर्थात् निर्धनों में बाँट दें।

उत्पादन का लक्ष्य मुनाफा ने होकर सम्पूर्ण समाज का हित होना चाहिए। श्रमिकों की प्रबन्ध में भागीदारिता होनी चाहिए। यदि पूँजीपति ट्रस्टी बनना स्वीकार न करें, तो कानून द्वारा राज्य को भूमि तथा उत्पादन के अन्य साधनों पर नियंत्रण कर लेना चाहिए।

 

वो संत, जो ज़मीन का छठा हिस्सा मांगता था और लोग खुशी-खुशी दे देते थे -  Remembering Vinoba Bhave: The Gandhian who pioneered movements like Bhoodan  and Gramdan​​​​​​​

सर्वोदय

सामान्य हित या सर्व कल्याण की दृष्टि से गाँधी ने सर्वोदय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। यह सिद्धांत ऐसी नीति का समर्थन करता है, जिसका उद्देश्य जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय, स्त्री-पुरूष, ऊँच-नीच आदि के भेदभाव मिटाकर समाज के सभी स्तरों पर कल्याण कार्य को बढ़ावा देना है। यह परस्पर सहयोग व सद्भावना का विकास करेगा। गाँधी के सर्वोदय का सिद्धांत राज्य के लक्ष्य का सिद्धांत है। उपयोगितावादी चिंतक बैंथम तथा जे.एस. मिल जहाँ ‘‘अधिकतम लोगों के अधिकतम कल्याण’’ के पक्ष में थे, वहीं जॉन रसकिन ने ‘‘सबसे अन्तिम या उपेक्षित अल्पसंख्यक’’ (अन्तयोदय) का पक्ष लिया। गाँधी ने इन दोनों सिद्धांतों के सम्मिश्रण से एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसे सर्वोदय या ‘‘समाज के सभी लोगों के उत्थान या कल्याण’’ का सिद्धांत कहा जाता है। बाद में विनोबा भावे ने इसी सिद्धांत का अनुसरण किया। गाँधी परम्परागत अर्थ में न तो राजनीतिक चिन्तक थे और न ही सिद्धांत निर्माता थे, किन्तु वह भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के अग्रदूत तथा श्रेष्ठ समाज सुधारक थे। एक ओर सत्य और अहिंसा के आधार पर उन्होंने असहयोग, सविनय अवज्ञा तथा भारत छोड़ो आन्दोलन का नेतृत्व किया, दूसरी ओर जातिवाद, साम्प्रदायिकता तथा छुआ-छूत के विरुद्ध अभियान चलाया। मैकयावली के विपरीत उन्होंने राजनीति व नैतिकता में सम्बन्ध स्थापित कर साधन व साध्य में सम्बन्ध स्थापित किया। पाश्चात्य उदारवादियों की तरह उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा प्रतिनिधियात्मक प्रजातंत्र में विश्वास जताया। राज्य के उद्देश्य के रूप में उनकी सर्वोदय की संकल्पना महत्त्वपूर्ण है। कर्मयोगी होने के नाते गाँधी श्रम की गरिमा मे विश्वास रखते थे।

गाँधी की वर्गहीन तथा राज्यविहीन समाज की परिकल्पना अव्यवहारिक प्रतीत होती है। स्वयं गाँधी भी इसे स्वीकार करते हैं। किन्तु उनके राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण, ग्रामीण स्वयत्तशासी व्यवस्था एवं रोजगार, स्वदेशी आदि सम्बन्धी विचारों के महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उनके सत्याग्रह, स्वराज तथा सर्वोदय के सिद्धांतों का राजनीतिक दर्शन में महत्त्वपूर्ण योगदान है। मैं उम्मीद करता हूँ कि आप सहमत होंगे मेरे इस विचार से। साथ में मैं यह भी कहना चाहूँगा कि लड़ाईया में हार और जीत ज्यादे महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि आखिरी इंसान कैसे सुखी रहे यह महत्वपूर्ण है। माना कि हम फिरसे शून्य से शुरू करते हैं तो कोई बात नहीं। लेकिन आपके सवाल समाज के बेहतरी के लिए उठाई ही जानी चाहिए। 1947 के आजादी के बाद हम इतने स्वतंत्र हुए कि हम लगातार गाँधी और भगतसिंह जवाहरलाल नेहरू पटेल पर ही सवाल उठाना शुरू कर दिए। दरअसल बेवकूफी का अंत नहीं होता। आज उसी सडांध को हमसभी जी रहे हैं और पाल रहे हैं। उससे बचने की जरूरत है। 
एक निवेदन सभी से कि इस बात पर विचार अवश्य करियेगा।
 

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(लेखक दिल्‍ली में रहते हैं।  कई मीडिया हाउस में सेवाएं देने के बाद संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।