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साबरमती का संत-26: समकालीन विश्व में महात्मा की प्रासंगिकता कितनी सार्थक

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  26वीं किस्त -संपादक। )


सुधांशु द्विवेदी, इलाहाबाद:

अपने ही देश में सबसे अधिक गांधी विमुख है। सत्य के मुकाबले असत्य , अहिंसा के स्थान पर घृणा , सादगी की जगह आत्मप्रचार ....सत्ता व समय के मूल्य बन चुके हैं। बुद्धिजीवी या तो डिप्रेशन में हैं या फिर अपराधी घोषित किये जा चुके हैं। सत्याग्रह व स्वराज पर अपराधियों का पहरा हो चुका है । .....ऐसे में गांधी विचार की सबसे अधिक जरूरत है तो गांधी को बस पाखाने व कूड़े से जोड़ दिया गया है। जैसे बताया जा रहा हो बस तुम्हारी इतनी ही औकात है , इससे ज्यादा की हमसे अपेक्षा मत करो! भारत के दो महान विचारकों का सर्वाधिक वैश्विक प्रभाव रहा है  वे हैं बुद्ध और गांधी जी । दोनों सत्य और अहिंसा के प्रहरी रहे हैं। इनमें से गांधी जी के प्रति सभी तरह के कट्टरपंथी तबकों की खास कुदृष्टि रही है। चाहे वह हिन्दू कट्टरपंथी हों या मुस्लिम अथवा वामपंथी या अम्बेडकर वादी.... ये सभी गांधी जी से घृणा करते हैं क्योंकि गांधी जी का दर्शन प्रेम, अहिंसा, सहिष्णुता , समरसता के भारतीय आदर्शों पर आधारित है पर हर तरह का कट्टरपंथी विचार किसी न किसी के प्रति घृणा के विचार पर आधारित है। हिन्दू कट्टरपंथी मुस्लिमों-ईसाईयों-दलितों , मुस्लिम कट्टरपंथी सभी तरह के काफिरों , वाम कट्टरपंथी कथित बुर्जुआ लोगों और अम्बेडकरवादी कट्टरपंथी सवर्णों के प्रति घृणा प्रदर्शित करके अपने विचार को आगे बढ़ा सकते हैं ....ऐसे में प्रेम और अहिंसा से पगा गांधी विचार उनके आड़े आ जाता है, और चूंकि गांधी ने अपना कोई कल्ट स्थापित नहीं किया तो वे बड़े आसानी से इन विचारधाराओं के निशाने पर आते रहते हैं और इससे किसी की " आस्था आहत नहीं होती "....खासकर संघी गांधी से विशेष खिन्न रहते हैं क्योंकि गांधी दुनिया को हिंदुत्व का ऐसा पाठ देते हैं जो वसुधैव कुटुम्बकम की प्राचीन भारतीय आदर्श से परिचालित होता है। गांधी पूना समझौते के बाद हिन्दू धर्म को विभाजन से बचाने वाले महानायक बनकर उभरते हैं और ईश्वर अल्ला तेरे नाम और वैष्णव जन जैसे गीत जनगीत बन जाते हैं। इससे मुस्लिम-ईसाई-दलित घृणा के रथ पर सवार बौने चितपावन ब्राह्मणों के संघ को सबसे ज्यादा दिक्कत आती है तो वे अपने लाखों मुखों से प्रतिदिन गांधी विरोध के सैकड़ों झूठ प्रसारित करने में लग जाते हैं और आज के डिजिटल युग मे इंटरनेट पर ऐसे करोड़ों झूठ पड़े गंधा रहे हैं और भारतीय शिक्षा प्रणाली की असमर्थता ने हमारे करोड़ों युवाओं को भी इस असह्य बदबू ने अपने आगोश में ले लिया है ( यहाँ तक 10 साल तक मुझसे दूर रही मेरी बेटी अनन्या भी इस दुर्गंध से दुष्प्रभावित हो चुकी है )......इसलिए भारतीय विचारों व भारतीय आत्मा के इस सबसे महान आत्मा के बारे में नए सिरे से आमलोगों को परिचित कराने की सबसे बड़ी जरूरत है वरना समुदायों के बीच घृणा की राजनीति हमारे देश व समाज को कहीं का नहीं छोड़ेगी!


आज मेरे हिसाब से हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति , पर्यावरण का नाश, राजनीति का प्रदूषण , गरीब अमीर के बीच बढ़ती खाई, परिवार और समुदाय का विघटन , गाँव और कृषि का विनाश , मूल्यहीन और फलहीन शिक्षा, गंदगी , बढ़ते रोग ..... जैसी तमाम चीजों से भारत ही नहीं पूरी दुनिया आक्रांत है। उपभोक्ता वाद और उदारीकरण ने मानवता के ऊपर व्यापार को वरीयता दे रखी है। इसी व्यापार ने ( खासकर खनिज तेल , हथियारों आदि के व्यापार ने ) इराक , सीरिया , अफगानिस्तान, यमन, नाइजीरिया , लीबिया जैसे अनेक देशों को या तो नष्टप्राय कर दिया है या फिर ऐसी कोशिश हो रही है। गाँधी जी का कहना था कि " यह धरती हमारी ज़रूरतें पूरी कर सकती है हमारे लोभ नहीं " .....पर लालच में अंधे होकर हम धरती धन को नष्ट करने में जुट गए हैं। कालिदास की तरह जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं। यदि हम गांधी जी के स्वराज का सही अर्थ समझ सकें, जिसका वास्तविक अर्थ है आत्मनियंत्रण तो हम सिर्फ आवश्यकता भर लें और अपनी जरूरतें सीमित करना भी सीख लें , यही मूल मंत्र होगा अपनी धरती को बचाने का।  दुनिया के विभिन्न राष्ट्रों, धर्मों , समुदायों के बीच हिंसक तनाव ने युद्ध और आतंकवाद को जन्म दिया है। यदि हम गांधी विचार के अनुसार धर्म के उत्स को जान सकें और अहिंसा के विचार को अपना सकें तभी इन कुप्रवृत्तियों को रोका जा सकेगा। हथियार से लड़ा जाने वाला आतंकवाद के विरुद्ध कोई युद्ध स्थायी परिणाम नहीं दे सकेगा। हमें जानना होगा कि अहिंसा कायरता नहीं बल्कि वीरता की पराकाष्ठा है। यह अहिंसा ही हमारे समाज, देश और फिर विश्व को घृणा से पूरित हिंसा से बचा सकती है। हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा के रूप में देने पर दोनों पक्ष हिंसा अनंतकाल तक झुलसते हैं पर कोई हल नहीं निकलता। कश्मीर जैसे विवादों को भी अंततः ऐसे ही हल किया जा सकेगा। कश्मीरी लोगों को समझना होगा कि अब भारत को तोड़ना संभव नहीं है और भारतीय लोगों को भी कश्मीरी लोगों को दिल मे जगह देनी होगी। ....भारत की सबसे बड़ी समस्या है दुष्ट लोगों का शासन पर प्रभुत्व! यदि भारत के लोगों को राजनीति में धर्म की गांधी जी विचारधारा समझ मे आ जाये तो अधर्मी राजनेता लोगों से दूर हो जाएंगे। थॉमस पिकेटी,डेविड हार्वे , स्पिलिट्ज जैसे अर्थशास्त्री आय की असमानताओं को दुनिया की शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं। गाँधी के आर्थिक विचार भले ही कुछ लोगों को अप्रासंगिक दिखें पर उनमें असमानता से लड़ने की अभूतपूर्व ताकत है। खेती, पशुपालन, बागवानी, शिल्प कर्म , कुटीर उद्योग आदि पर आधारित गांधी वादी मॉडल रोजगार और विषमता से लड़ने में आज भी सबसे बड़ा हथियार हो सकता है। वंदना शिवा, नाना जी देशमुख, कमला देवी चटोपाध्याय जैसे अनेक लोगों ने गांधी विचार से प्रेरित होकर ऐसे तमाम सफल प्रयोग भी किए हैं। आज भी हज़ारों की संख्या में गांधीवादी पर्यावरण, रोजगार, शिल्पकर्म , शिक्षा आदि क्षेत्रों में निःस्वार्थ तरीके से सक्रिय हैं। नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर , आँग सान सू की जैसे अनेक अनुयायी विश्व भर में गांधी विचार की अलख जगा रहे हैं। आज जब सत्ता गांधी जी को महज एक सफाई कर्मी बना देने पर तुली हुई है , हमें गांधी जी के विचारों के मर्म को जानकर बदलाव लाने होंगे। हमें गांधी को महज कॉंग्रेस से जोड़ने की जड़ प्रवित्तियों से बचना होगा और अपनी अगली पीढ़ी के लिए, अपनी धरती के लिए गांधी विचारों को स्वयं धारण करना होगा और अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी इसके लिए तैयार करना होगा। यही गांधी जी को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


गांधीजी अगर 1915-16 में भारत न आने का फैसला करके द. अफ्रीका में अपने फीनिक्स आश्रम में ही रह जाते तब??...सबसे बड़ा अंतर यह पड़ सकता था कि भारत का आम आदमी आज़ादी की लड़ाई से इतना नज़दीकी न बना पाता, लड़ाई सभा-गोष्ठियों तक सीमित रहती। हाँ बाद में नेहरू और सुभाष दो करिश्माई नेता थे जो लोकप्रिय थे पर गांधी की महात्मा छवि की अलौकिकता ने आम भारतीय को जिस डोर से बांधा था वह किसी के लिए भी कल्पनातीत थी। इससे भी बड़ी बात थी कि गांधी के बिना भारत में हिन्दू धर्म के कई टुकड़े हो जाते। मूल निवासी संघ, द्रविड़, सिख राष्ट्रीयताएं तो होती हीं भारत के अन्य टुकड़े भी हो सकते थे क्योंकि गांधी की अनुपस्थिति में पटेल वकालत ही कर रहे होते, वे राजनीति में शायद ही होते। होते भी तो गुजरात स्तर पर। मुझे लगता है गांधी जी की अनुपस्थिति में वाम पक्ष और दक्षिण पंथी दोनों और शक्तिशाली होते। तब कम्युनिस्ट क्रांति की संभावना भारत में बढ़ जाती। सुभाष और नेहरू भारत के दो साम्यवादी चेहरे होते। भारत को स्पेन,अमेरिका, चीन की तरह के लंबे गृहयुद्ध का भी सामना करना पड़ सकता था जिनमे लाखो लोग मारे जाते। आज़ादी के बाद भारत में सोशल डेमोक्रेट सरकार होती जिसका रूढ़िवादी दलों से कड़ी टक्कर होती। कांग्रेस अगर होती भी तो उस पर हिन्दू रूढ़िवादी हावी होते। गोपीनाथ बारडोलोई के नेतृत्व में असम और राजगोपालाचारी के नेतृत्व में द्रविड़नाडु भारत के दो करीबी पड़ोसी हो सकते थे। मास्टर तारा सिंह या कोई भी अन्य नेता खालिस्तान का राष्ट्रपति होता। ......अन्य ऐसी कई आशंकाएं उठ रही हैं, गांधी की केंद्रीय अनुपस्थिति की कल्पना करके पर समयाभाव है। कुछ ऐसी बातों पर फोकस करूँ जो आमतौर पर अफ़वाह के रूप में संघ, लीगी और वामपंथियों ने फैला कर रखी हैं।..

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(सुधांशु युवा पत्रकार और लेखक हैं। )

 नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।