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साबरमती का संत-4 : गांधी को समझ जाएँ तो दुनिया में आ सकते हैं कल्पनातीत परिवर्तन 

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व  का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू होंगे। आज पेश है,  चौथी किस्त -संपादक। )

भरत जैन, दिल्ली:

'गांधी आज  इतने अधिक प्रासंगिक क्यों होते जा रहे हैं', कुछ दिन पहले एक  लेख इस शीर्षक से पढा़। शीर्षक से सहमत होते हुए भी लेख में जो लिखा था, उससे प्रभावित नहीं हो सका। केवल विश्व भर में गांधी की मूर्तियां लगने से या बराक ओबामा या नेलसन मंडेला या मार्टिन लूथर किंग के गांधी को याद करने से यह नहीं मान सकते कि गांधी प्रासंगिक हो गए हैं और हम उनके विचार के अनुसार चल रहे हैं। हम गांधी के महत्व को अभी समझे ही नहीं है। यदि हम गांधी को समझ जाएँ तो दुनिया में इतने परिवर्तन आएंगे, जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। आज पूरा विश्व पूंजीवादी सोच पर चल रहा है। यहां तक कि अपने को पूंजीवाद के खिलाफ खड़ा हुआ कहने वाले देश जैसे चीन भी  पूंजीवादी सोच पर ही चल रहे हैं। पूंजीवादी सोच क्या है। पूंजीवाद वास्तव में उपभोक्तावाद (कंज्यूमरिज़्म ) का ही एक नाम है। उसका आधार है कि उपभोग को अधिक से अधिक बढ़ाया जाए जिससे कि संसार में पैसे का प्रसार अधिक हो , लोग अधिक से अधिक चीजें इस्तेमाल करें , जल्दी से जल्दी पुरानी चीजों को फेंके ताकि उत्पादन का क्रम लगातार चलता रहे।

 

पूंजीवाद और मार्क्सवाद दो मुख्य आर्थिक सोच

इसी विचार को पूरा पश्चिम मानता है और आज चीन भी मानता है। पूंजीवाद और मार्क्सवाद इस दुनिया में दो मुख्य आर्थिक सोच हैं। दोनों ही प्रकार की सोच ने कभी उपभोक्तावाद को चुनौती नहीं दी है । उस को चुनौती दी है तो केवल गांधी ने जिन्होंने कि  रस्किन की पुस्तक ' अंटू  द लास्ट '  को सर्वोदय के नाम से अनुवाद करके छपवाया। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि इस पुस्तक को पढ़ने के बाद वह पूरी तरह बदल गए। उन्होंने माना की सही जीवन वही है जिसमें की ज़रूरतें  कम से कम हो। जिसमें की उत्पादन की इकाई पूरा विश्व नहीं बल्कि कुछ मील  का एक छोटा सा क्षेत्र हो जहां से उस क्षेत्र में रहने वाला हर व्यक्ति सब कुछ प्राप्त कर सके। हर व्यक्ति श्रम करें और हर व्यक्ति के श्रम का मूल्य बराबर हो। कोई किसी काम में अधिक कुशल है तो उसकी काम की कीमत को अधिक ना आंका जाए। सब बराबर समय काम करें अपनी योग्यता के अनुसार और सब को तो सब कुछ मौलिक चीजें मिले उनकी ज़रूरत के अनुसार । यही वास्तव में सर्वोदय की मूल भावना है । पूंजीवाद को दार्शनिक रूप देने वाले एडम स्मिथ भी समझते थे कि यदि पूंजी के आधार पर ही उत्पादन हुआ तो पूंजी रहित व्यक्ति का शोषण होगा। परंतु पूंजीवाद में कभी भी पूंजी रहित व्यक्ति को उसके श्रम का सही मूल्य नहीं मिला। उसके श्रम का सारा लाभ पूंजीपति ले गया। कार्ल मार्क्स ने यह सोच दी के उत्पादन का सारा लाभ वही ले रहे हैं जिनके पास पूंजी है। जितनी भी कीमत वस्तु की बढ़ती  है ( ( वैल्यू एडिशन )श्रमिक के श्रम से उसका लगभग पूरा हिस्सा उसके पास चला जाता है जिसकी पूंजी होती है। कार्ल मार्क्स की सोच थी कि पूंजीपतियों में आपस में  प्रतियोगिता होगी , कीमतें  घटती जाएगी वस्तुओं की । कीमत घटने का आधार केवल एक ही हो सकता है और वह है श्रमिक के श्रम की कीमत को कम करना। मार्क्स की सोच के अनुसार एक  दिन ऐसा आएगा जब शोषित श्रमिक पूंजीपति के विरुद्ध विद्रोह कर देगा और सत्ता उसके  अर्थात श्रमिक के हाथ में आ जाएगी। मार्क्स  ने कभी यह नहीं कहा था उत्पादन बढ़ाने की ज़रूरत नहीं है , सिर्फ यह कहा था कि जो मूल्य किसी वस्तु का श्रमिक के श्रम से भरता है उसका लाभ श्रमिक को मिलना चाहिए ना कि पूंजीपति को।

 

मार्क्स ने बदलती हुई टेक्नोलॉजी की शक्ति का ठीक से मूल्यांकन नहीं किया

कार्ल मार्क्स यह ने बदलती हुई टेक्नोलॉजी की शक्ति का ठीक से मूल्यांकन नहीं किया।  कार्ल मार्क्स ने यह अनुमान नहीं लगाया की वस्तु की कीमत केवल श्रमिक के श्रम की कीमत कम करने से नहीं बल्कि नई टेक्नोलॉजी के आने से भी हो सकती है और वास्तव में ऐसा ही हुआ। कार्ल मार्क्स मानते थे कि जिस तरह की उत्पादन की पद्धति चल रही जिसमें काम का बंटवारा अर्थात डिविज़न आफ लेबर होती है उससे श्रमिक को काम करने का आनंद समाप्त हो जाता है और काम से रुचि खो बैठता है या उसका काम से एलिनेशन हो जाता है। परंतु आज स्थिति उससे भी अधिक भयावह है। आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के कारण उत्पादन के लिए श्रमिक की ज़रूरत ही समाप्त हो गई है। बिना किसी श्रमिक के भी काम हो सकता है ऐसी स्थिति लगभग आने वाली है। ऐसी टेक्नोलॉजी विकसित हो रही है कि कुछ मुट्ठी भर लोग जिनके पास लेटेस्ट टेक्नोलॉजी होगी उत्पादन कर पाएंगे बिना किसी श्रमिक के।  श्रमिक को श्रम करने का अवसर ही समाप्त हो जाएगा। यह भी हो सकता है  कि उत्पादन इतना अधिक बढ़ जाए कि दुनिया के हर व्यक्ति को बिना कोई काम किए उसकी मौलिक ज़रूरतें पूरा करने के लिए धन मिल जाए जिसको कि  ' यूनिवर्सल बेसिक इनकम '  का नाम दिया जाता है। परंतु ऐसी स्थिति में श्रमिक का , जो कि दुनिया के की शायद 99% जनसंख्या होगी,  जीवन का मूल्य बिल्कुल समाप्त हो जाएगा। उसका होना या ना होना निरर्थक हो जाएगा। यह भयावह स्थिति हमारे सामने लगभग आ ही गई है।

 

गांधी के सर्वोदय के विचार में हर व्यक्ति श्रम करेगा चाहे कुछ भी हो

यहीं गांधी की प्रासंगिकता है। गांधी के सर्वोदय के विचार में हर व्यक्ति श्रम करेगा चाहे कुछ भी हो। गांधी का चरखा चलाना आजादी दिलाने का मार्ग नहीं था । उसका आजादी के आने में कोई योगदान नहीं था बल्कि वह इस बात का प्रतीक था कि  गांधी के राम राज्य में हर व्यक्ति श्रम करेगा चाहे वह चरखा चलाकर अपने लायक धागा पैदा करने का ही हो । जिससे जो काम हो पाएगा वो करेगा और उसको जरूरत के लिए बहुत मौलिक वस्तुएं मिल जाएंगी । यही गांधी का 'ग्राम स्वराज्य 'था और यही गांधी का ' रामराज्य '  था। ऐसे समाज में हिंसा का कोई आधार नहीं रहेगा। हिंसा के मूल में इंसानों के बीच में कंपटीशन की भावना होती है , कुछ अधिक पाने की भावना होती है , कुछ अधिक इकट्ठा करने की भावना होती है। यह सब भावनाएं गांधी के ग्राम स्वराज्य या  राम राज्य में समाप्त हो जाती हैं । यदि यह भावना पूरे विश्व में फैल जाए तो दुनिया से युद्ध स्वतः  ही समाप्त हो जाएंगे। पिछली  कई शताब्दियों का इतिहास इस बात का गवाह है युद्ध का मूल कारण संसाधनों पर कब्जा करना है और अपने समृद्धि को बढ़ाना है। यदि आपस में होड़  समाप्त हो जाए तो  संसाधनों की लूट स्वतः समाप्त हो जाएगी और सब लोग सुख शांति से रह पाएंगे। गांधी के बारे में यह अवधारणा बहुत अधिक है कि गांधी विज्ञान के विरोधी थे। ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि उन्होंने किसी वैज्ञानिक आविष्कार का विरोध किया हो। गांधी रेलगाड़ी में , जहाज में सफर करते थे , चाहे सस्ती श्रेणी में करते थे। गांधीजी टेलीफोन , टेलीग्राम , प्रिंटिंग प्रेस सब का इस्तेमाल करते थे। उन्होंने इनमें से किसी को भी बेकार नहीं कहा । गांधी जी का विरोध केवल अपनी ज़रूरतों को बढ़ाने से था क्योंकि उसके कारण हिंसा फैलती है। उसके कारण संसार के संसाधनों पर जोर पड़ता है। गांधीजी सही मायने में पर्यावरणवादी थे। गांधी यह मानते थे कि पृथ्वी पर आदमी की मूलभूत ज़रूरतें पूरी करने के लिए संसाधन पर्याप्त हैं  परंतु  एक आदमी के लोभ को पूरा करने के लिए संसाधन भी पूरे  नहीं हो सकते। गांधी जी विकास की अंधी दौड़ में शामिल नहीं होना चाहते थे । इस दौड़ से दुनिया को केवल अशांति मिली है , पर्यावरण नष्ट हुआ है और व्यक्ति दुखी हुआ है। आज यदि अमेरिका के प्रति व्यक्ति औसत आय को देखें और यदि दुनिया के सबसे बड़ी आबादी वाले दो देश भारत और चीन अमेरिका की प्रति व्यक्ति सालाना आय का मुकाबला करने का प्रयास करें तो इस दुनिया में इतने संसाधन ही मौजूद नहीं हैं । अंतर कई गुना का है । उस अंतर को पाटना लगभग असंभव है आज के संसाधनों को देखते हुए । उसके लिए युद्ध ही होंगे । इसलिए विकास की अंधी दौड़ से बाहर निकलना ही होगा। यही गांधी की सीख  थी और आज की दुनिया में इसके अलावा कोई और मार्ग है ही नहीं स्थाई शांति का।

जारी

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(लेखक गुरुग्राम में रहते हैं।  संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।