भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अहम व्यक्तित्व से फॉलोअप रुबरू कराना चाहता है। साबरमती का संत नाम से 50 क़िस्त के मार्फत महात्मा गांधी को समझने की कोशिश की गई थी। वहीं सदी के महाचिंतक स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित करीब 20 क़िस्त भी आपने पढ़े होंगे। धुर समाजवादी लीडर डॉ .राम मनोहर लोहिया के बारे में आप गांधीवादी वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी की क़लम से नियमित पढ़ रहे हैं। आज पढ़िये 18वीं क़िस्त-संपादक
कनक तिवारी, रायपुर:
डाॅ. लोहिया की पुस्तक ‘‘इतिहास चक्र‘‘ में छोटे पैमाने पर इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र से सम्बन्धित विचार उपस्थित किये गये हैं। इनमें चार मुख्य हैंः-
1- इतिहास के अनुसार मनुष्य के जीवन का ध्येय,
2- ऐतिहासिक परिवर्तनों के कारण एवं क्रम,
3- आधुनिक सभ्यता की परिभाषा, उसके मूल तत्व और उसकी सभ्भावनायें, और
4- भविष्य की सभ्यता की रूपरेखा और उसकी अनिवार्यताएं।
इन विषयों पर लोहिया की मौलिकता स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। उन्होंने ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जो बिल्कुल नवीन हैं और भविष्य का मार्ग-निर्देशन भी करते हैं। समाजशास्त्री सत्यमित्र दुबे ने अपनी सटीक दृष्टि से लोहिया कि इतिहास दृष्टि, सैद्धांतिकी और नई विश्व व्यवस्था को लेकर सारगर्भित टिप्पणी की है उनके अनुसार डाॅ. लोहिया चार स्थापनाओं पर आधारित अपनी ‘इतिहास-दृष्टि‘ को भारतीय इतिहास और समाज के संदर्भ में जांचने-परखने की चेष्टा करते हैं। वर्ग, वर्ण और जाति के पारम्परिक संबंध का विश्लेषण उनके ‘क्लास ऐंड कास्ट‘ और ‘जाति प्रथा‘ में मिलता है। भारतीय इतिहास-लेखन की दृष्टि और सीमाओं पर उनका अध्ययन ‘विश्वविद्यालयों में खोज कार्य, भारतीय इतिहास लेखन और लोकसभा में उनके द्वारा उठाये गये विमर्श‘ ‘भारतीय इतिहास‘ की आलोचना में दिखाई पड़ता है। लोहिया का कहना है कि हिन्दुस्तान की वर्ण-व्यवस्था-इतिहास‘ की आलोचना में दिखाई पड़ता है। लोहिया का कहना है कि हिन्दुस्तान की वर्ण-व्यवस्था अपने रहस्यों का पता तो शायद किसी खोजी को कभी लगाने न दे, लेकिन जन्म आधारित असमानता के विरुद्ध बौद्ध एवं जैन सामाजिक सामाजिक-धार्मिक आंदोलन के बाद, पूर्ण सत्य और सांसारिक सत्य में अंतर कर, शंकराचार्य ने आध्यात्मिक और सामाजिक व्यवस्था में संतुलन स्थापित करने की एक अत्यंत महत्वपूर्ण चेष्टा की।
भारतीय इतिहास के लंबे काल में, लोहिया के अनुसार प्रजाति, भाषा, धर्म, रंग के व्यवधानों को पार करते हुए जाति ने धार्मिक और आध्यात्मिक स्तर पर अतुलनीय सामंजस्य और एकीकरण की भूमिका निभाई है। लेकिन सामाजिक स्तर पर हाल के दिनों में, इसके कारण असामंजस्य में वृद्धि हुई और अन्याय का गुणनफल बढ़ता गया। आज तक का संपूर्ण मानव इतिहास वर्गों का ठोस, अप्रगतिशील जातियों में बदलने और जाति की जकड़न को ढीला होकर वर्ग में बदल जाने का इतिहास रहा है। वर्ग और जाति को जो लोग समाप्त करना चाहते हैं, उन्हें मानव इतिहास को संचालित करने वाली इस प्रक्रिया को समझना और तदनुरूप उन प्रयत्नों की पद्धति विकसित करनी होगी जो दोनों को समाप्त कर सके। इतिहास इस काम को स्वयं नहीं करेगा। भारत की नई जीवन शक्ति जाति की जड़ता को कमजोर कर वर्गीय गतिशीलता को बढ़ावा दे रही है। आंतरिक असमानता की समाप्ति का संघर्ष आरंभ हो चुका है। यूरोपीय संरचना से जुड़ा पूंजीवादी अथवा साम्यवादी विचार इस प्रक्रिया को बंदी बना देगा।.......संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से, यूनेस्को ने मनुष्य का इतिहास लिखने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय आयोग बनाया था।
लोहिया ने यूनेस्को द्वारा प्रकाशित पुस्तक की भूलों को लेकर मार्च, 1966 में भारतीय लोकसभा में बहस चलाई थी। अपने भाषण का उपसंहार करते हुए उन्होंने कहा था कि इतिहास और गणित के मामले में शिक्षा मंत्री और सरकार कुछ करें। हमारे बच्चों को अपने अतीत के सही बोध के लिए इतिहास और विज्ञान की नई खोज के लिए गणित का ज्ञान आवश्यक है। इन्हीं दो के ऊपर आज का भारत बनेगा या बिगड़ेगा। विश्व की उच्चस्तरीय राजनीति में बहुत कम नेता हुए हैं जिनका निजी चेहरा उनके सार्वजनिक चेहरे से असावधानी, रहस्यमयता या जानकारी के बावजूद अबूझा रह गया हो। लोहिया की मानसिक बनावट यूरोप की काॅफी हाउस गप्पघर की संस्कृति के जागरूक और वाचाल बुद्धिजीवी नस्ल के तंतुओं से भी बनी समझी जाती रही है। लोगों को लगता यह व्यक्ति दिल्ली, लखनऊ या पटना के काॅफी हाउस में बैठने वाला बड़बोला वाचाल चरित्र है। इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। लोहिया की अन्दरूनी और असली बनावट मुफलिसों, रिक्शेवालों, खोमचेवालों, दफ्तरी बाबूओं, मजदूरों, विद्यार्थियों, पत्रकारों, शायरों और समाज से बहिष्कृृत लोगों के साथ अंतरंगता में बैठकर संवेदनशीलता से उनकी बातें सुनते, सलाह देते, जिरह करते, झिड़की देते, खाते आमतौर पर रही है। बुरी से बुरी और कड़वी से कड़वी बात सुनकर उसे जज्ब कर लेना भी लोहिया के कौल में रहा है। जैसे जहर पीने से किसी का नाम नीलकंठ हो जाता है। लोहिया मूलतः एकाकी व्यक्ति थे। उन्हें अपनी एकांतिकता से भी बहुत प्यार था, लेकिन भीड़ द्वारा अपनाए जाने को बहुत व्यग्र और बेचैन रहते थे। यह अजीब तरह का रोमांटिक विरोधाभास था। वह उनकी शख्सियत को नई तरह से पड़ताल करने की चुनौती और दावत देता है।
(जारी)
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समाजवादी-ललक-़14: जातिवाद से लोहिया को सिर्फ सबसे अधिक परहेज़ ही नहीं था, बल्कि नफरत थी
समाजवादी-ललक-़15: 1936 में डाॅ. लोहिया ने नागरिकता को किया था परिभाषित
समाजवादी-ललक-़16: लोहिया गांधी के भक्त ज़रूर थे, लेकिन गांधीवादियों के प्रशंसक नहीं
समाजवादी-ललक-़17: इतिहास और संस्कृति को टुकड़ों में देखना लोहिया का नज़रिया नहीं रहा
(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।