डॉ.राममनोहर लोहिया
(जन्म -23 मार्च1910-12 अक्टूबर1967)
भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई हिन्दू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई , पिछले पांच हजार सालों से भी अधिक समय से चल रही है और उसका अन्त अभी भी दिखाई नहीं पड़ता। इस बात की कोई कोशिश नहीं की गयी जो होनी चाहिए थी कि इस लड़ाई को नजर में रखकर हिन्दुस्तान के इतिहास को देखा जाए, उसे बुना जाय। लेकिन देश में जो कुछ होता है , उसका बहुत बड़ा हिस्सा इसी के कारण होता है। सभी धर्मों में किसी-न-किसी समय उदारवादियों और कट्टरपंथियों की लड़ाई हुई है । लेकिन हिन्दू धर्म के अलावा वे बंट गये , अक्सर उनमें रक्तपात हुआ और थोड़े या बहुत दिनों की लड़ाई के बाद , वे झगड़े पर काबू पाने में कामयाब हो गये । हिन्दू धर्म में लगातार उदारवादियों और कट्टरपंथियों का झगड़ा चला आ रहा है । जिसमें कभी एक की जीत होती है कभी दूसरे की । खुला रक्तपात तो कभी नहीं हुआ, लेकिन झगड़ा आजतक हल नहीं हुआ और झगड़े के सवालों पर एक धुन्ध छा गयी है। ईसाई , इस्लाम और बौद्ध , सभी धर्मों में झगड़े-विभेद हुए । कैथोलिक मत में एक समय इतने कट्टर पंथी तत्त्व इकट्ठा हो गए कि प्रोटेस्टेंट मत ने जो उस समय उदारवादी था , उसे चुनौती दी । लेकिन सभी लोग जानते हैं कि सुधार आन्दोलन के बाद प्रोटेस्टेंट मत में खुद में कट्टरता आ गयी । कैथोलिक और प्रोटेस्टेन्ट मतों के सिद्धान्तों में अब भी बहुतेरे फर्क हैं लेकिन एक को कट्टर पंथी और दूसरे को उदारवादी कहना मुश्किल है । ईसाई धर्म में सिद्धान्त और संगठन का भेद है तो इस्लाम धर्म में शिया-सुन्नी का बंटवारा इतिहास से सम्बन्धित है । इसी तरह बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के दो मतों में बंट गया , और उनमें कभी रक्तपात तो नहीं हुआ , लेकिन उनका मतभेद सिद्धान्त के बारे में है , समाज की व्यवस्था से उसका कोई सम्बन्ध नहीं ।
हिन्दू धर्म में ऐसा कोई बंटवारा नहीं हुआ अलबत्ता वह बराबर छोटे-छोटे मतों में टूटता रहा है । नया मत उतनी ही बार उसके एक नये हिस्से के रूप में वापस आ गया है । इसीलिए सिद्धान्त के सवाल कभी साथ-साथ नहीं उठे और परिभाषित नहीं हुए , सामाजिक संघर्षों का हल नहीं हुआ । हिन्दू धर्म नये मतों को जन्म देने में उतना ही तेज है जितना प्रोटेस्टेन्ट मत , लेकिन उन सभी के ऊपर वह एकता का एक अजीब आवरण डाल देता है जैसी एकता कैथोलिक संगठनों ने अन्दरूनी भेदों पर रोक लगा कर कायम की है । इस तरह हिन्दू धर्म में जहां एक ओर कट्टरता और अन्धविश्वास का घर है , वहां नई-नई खोजों की व्यवस्था भी है । हिन्दू धर्म अब तक अपने अन्दर उदारवाद और कट्टरता के झगड़े का हल क्यों नहीं कर सका , इसका पता लगाने की कोशिश करने के पहले , जो बुनियादी दृष्टिभेद हमेशा रहा है , उस पर नजर डालना जरूरी है । चार बड़े और ठोस सवालों – वर्ण , स्त्री , सम्पत्ति और सहनशीलता के बारे में हिन्दू धर्म बराबर उदारवाद और कट्टरता का रुख बारीबारी से लेता रहा है ।
चार हजार साल या उससे भी अधिक समय पहले कुछ हिन्दुओं के कान में दूसरे हिन्दुओं के द्वारा सीसा गलाकर डाल दिया जाता था और उनकी जबान खींच ली जाती थी । क्योंकि वर्ण व्यवस्था का नियम था कि कोई शूद्र वेदों को पढे या सुने नहीं । तीन सौ साल पहले शिवाजी को यह मानना पड़ा था कि उनका वंश हमेशा ब्राह्मणों को ही मन्त्री बनायेगा ताकि हिन्दू रीतियों के अनुसार उनका राजतिलक हो सके । करीब दो सौ वर्ष पहले, पनीपत की आखिरी लड़ाई में जिसके फलस्वरूप हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों का राज्य कायम हुआ , एक हिन्दू सरदार दूसरे सरदार से इसलिए लड़ गया कि वह, अपने वर्ण के अनुसार ऊंची जमीन पर तम्बू लगाना चाहता था । करीब पन्द्रह साल पहले एक हिन्दू ने हिन्दुत्व की रक्षा करने की इच्छा से महा