भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अहम व्यक्तित्व से फॉलोअप रुबरू कराना चाहता है। साबरमती का संत नाम से 50 क़िस्त के मार्फत महात्मा गांधी को समझने की कोशिश की गई थी। वहीं सदी के महाचिंतक स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित करीब 20 क़िस्त भी आपने पढ़े होंगे। धुर समाजवादी लीडर डॉ .राममनोहर लोहिया के बारे में आप गांधीवादी वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी की क़लम से नियमित पढ़ रहे हैं। आज पढ़िये 9वीं क़िस्त-संपादक
कनक तिवारी, रायपुर:
लोहिया ने अपने तईं महसूस किया था कि हिन्दुस्तान में पूंजी का समीकरण बुरी तरह उलझ गया है। इसलिए व्यक्तिगत और संस्थागत खर्च पर पाबन्दी की साधारण, लेकिन दूरदर्शी, कारगर कूटनीतिक मांग ‘दाम बांधो‘ बुलन्द की थी। 27 करोड़ भारतीयों की ‘तीन आना‘ प्रतिदिन की औसत आमदनी वाले एक पंक्ति के ऐतिहासिक शोध के जरिये उन्होंने योजनाकारों, अर्थशास्त्रियों, सांख्यिकी वेत्ताओं और आई.सी.एस. अफसरों की फौज के बोझिल, किताबी आंकड़ों को बौना कर दिया। लोहिया ने पूंजीपतियों और जमींदारों से नफरत करने की सियासी मकसदों के लिए प्रचारित की जा रही प्राथमिकता के बदले वरिष्ठ नौकरशाही के तेवरों से उपजे समाजतोड़क वर्गविभेद का खत्म करना ज़्यादा जरूरी बताया। वर्गरहित समाज की स्थापना का उनका संघर्ष नकलनवीसी में माक्सवादी नस्ल का नहीं हो सकता था। स्वामी और सेवक, मालिक और मजदूर के अमानवीय औद्योगिक रिश्ते से उपजी कड़ुआहट और अधिकारों की मांग का कम्युनिस्ट विवेचन लोहिया की राय में भारत जैसे परम्परा पीड़ित, अर्धविकसित देश के लिए असंगत पश्चिमी परिकल्पना थी। वे कारखानों की प्रौद्योगिक संस्कृति से उपजी वर्ग संघर्ष की भूमिका को (संभावित) राष्ट्रीय क्रांति का सबसे असरदार या अकेला अणु विस्फोट नहीं मानते थे। कम्युनिस्टों से सीधे संघर्ष से परहेज और किताबी समाजवादियों की भीड़ से बचते लोहिया सम्भावित समाजवादी सन्सार अपने वृहत्तर होते व्यक्तित्व में निखारते रहते थे। ज़रूरी अधोसंरचना के अभाव में राजनीति में राष्ट्रीय समाजवाद का उनका सपना गांधीवाद का संशोधित हो सकता विकल्प नहीं बन सका। यह एक साथ लोहिया और देश की असफलता है।
संसद में लोहिया का मशहूर भाषण- तीन आने बनाम पन्द्रह आने
डाॅ. राममनोहर लोहियाः अध्यक्ष महोदय, अभी तक इस बहस का नतीजा इतना निकला है कि मैंने 27 करोड़ हिन्दुस्तानियों के लिए तीन आने रोज की आमदनी कही, प्रधानमन्त्री ने 14 आने रोज की और योजना मन्त्री ने साढ़े सात आने अपने रोज की। अब प्रधानमन्त्री और योजना मन्त्री आपस में निबट लेंगे कि दोनों में कौन सही है। मेरी बहस यह नहीं है कि हिन्दुस्तानियों की और खास तौर से 27 करोड़ की आमदनी तीन आने या साढ़े तीन आने है। बल्कि यह देश इतना गरीब है जिसका अन्दाजा इस सरकार को नहीं है, और इस गरीबी को दूर करने के लिए जब तक इस सरकार में भावना नहीं आएगी, तब तक कोई अच्छा नुस्खा तैयार नहीं हो सकता।
पहली बात तो मुझे कहनी है, जो आंकड़े योजना मन्त्री ने यहां रखे उनके बारे में, कि वह कर जांच कमेटी के लिए तैयार किये गये थे। वित्त मन्त्रालय ने पूछा था कि किस तरह से हिन्दुस्तान के लोगों की आमदनी है और खपत है ताकि वह कर अच्छा और ज्यादा लगा सके। इसलिए इस जांच समिति के आंकड़े पहले से ही सन्देशात्मक थे क्योंकि उनका तात्पर्य ही कुछ और था।
श्री मोरारकाः (झुंझनू): अध्यक्ष महोदय, इस बहस की शुरुआत डाॅ0 लोहिया के इस कथन से हुई कि देश के 27 करोड़ लोग तीन आने रोज पर ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं। इसका तर्क बहुत साधारण है लेकिन नतीजा गम्भीर है। सदन को यह जानने का अधिकार है कि वह जाने कि डाॅ. लोहिया के तर्क सही हैं, अगर वे सही नहीं हैं तो डाॅ. लोहिया के तर्कों के प्रभाव क्या पड़ेंगे?
डाॅ. लोहिया की बहस में एक जबरदस्त कमी है जिसके जरिए वे इस नतीजे पर पहुंचे कि 27 करोड़ लोगों की औसत प्रतिदिन प्रति व्यक्ति आमदनी 3 आना है। (अंग्रेज़ी में)
डाॅ. राममनोहर लोहियाः अध्यक्ष महोदय, माननीय सदस्य भाषण तैयार करके लाये थे, मेरे भाषण को सुनने से पहले। सब बतलाया मैंने।
श्री मोरारकाः 27 करोड़ व्यक्ति भुखमरी की हालत में नहीं जी सकते। वे हमेशा कर्ज पर भी नहीं जिन्दा रह सकते। नेशनल सेम्युल सर्वे के आंकड़े साढ़े सात आना फी आमदनी प्रतिदिन वाला ज्यादा सही है, डाॅ. लोहिया के आंकड़े भ्रमात्मक हैं। (अंग्रेजी में)
डाॅ. राममनोहर लोहियाः आपने मोर करेक्ट शब्द इस्तेमाल किये हैं। जरा बतला दीजिए कि सही क्या है।
कम्युनिस्टों से अलग हटकर मजदूर और मालिक के संघर्ष को लोहिया बढ़ावा नहीं देना चाहते थे। उनकी राय में यह भी एक पश्चिमी अवधारणा थी क्योंकि वैसे भी भारत में मजदूर वर्ग और संगठित मजदूरों की संख्या असंगठित क्षेत्र के किसानों और खेतिहर मजदूरों के मुकाबले बहुत कम होती है। असंगठित और खेतिहर मजदूरों के साथ ज्यादा अन्याय हो रहा है, और वह भी ज्यादातर जातिभेद के कारण। जबकि संगठित क्षेत्र के मजदूरों के शोषण में जाति भेद का तत्व उतना मुखर नहीं होता है। लोहिया ने पाया कि निचली और पिछड़ी जातियों के नेताओं और प्रतिनिधियों को पर्याप्त संरक्षण और पद नहीं दिए जाते थे।
लोहिया ने देखा कि कम्युनिस्टों के मन में जमींदारों और मारवाड़ी कुल के व्यापारियों के लिए वर्ग भेद आधारित नस्ल की बेसाख्ता नफरत थी। उनसे अलग हटकर लोहिया ने अपने आक्रमण का मुख्य लक्ष्य इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारियों को बनाया। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि आईसीएस की नौकरी के कारण समाज दो अलग—अलग खेमों में बट गया है। एक तरफ तो बिना पढ़े लिखे गरीब किसान हैं, मजदूर हैं। दूसरी तरफ बहुत कम संख्या के पश्चिमी नस्ल के ‘एलीट‘ क्लास के सत्ताधारी हैं। वे केवल बाहर की नकल करते और भारत के लोगों का बेतरह शोषण करते रहते हैं। चाणक्य शैली में उनकी जड़ पर हमला करने का उपक्रम करते लोहिया ने अपना प्रसिद्ध आंदोलन शुरू किया जिसका ऐलान था ‘अंग्रेजी हटाओ।‘ जब अंग्रेजी हट जाएगी तो अंग्रेज और अंग्रेजियत अपने आप हटेंगे। यही तो गांधी की भी अवधारणा थी। गांधी ने भी तो आखिर में देश की आजादी के बाद नेताओं के कर्म देखकर झल्ला कर दुखी होकर कहा था ‘जाओ! दुनिया से कह दो, गांधी अंग्रेजी भूल गया है। अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजीदां कुछ राजनेताओं और ज़्यादातर नौकरशाही के अफसरों के कारण लोहिया हर तरफ से अंग्रेजियत को भारत से समूल उखाड़ देने के पक्ष में हो गए थे।
(जारी)
इसे भी पढ़ें:
समाजवादी-ललक: गांधी के बाद लोहिया के सांस्कृतिक मानस से सबसे अधिक प्रभावित प्रबुद्ध
समाजवादी-ललक-2: डॉ.राममनोहर लोहिया ने 71 साल पहले हिंदुत्व पर क्या लिखा था, पढ़िये
समाजवादी-ललक-3: संघर्षधर्मी जनचेतना के सबसे जानदार सिपहसालार यानी डॉ. राममनोहर लोहिया
समाजवादी-ललक-4: यूसुफ मेहर अली मज़ाक़ में लोहिया को कहते थे बंजारा समाजवादी
समाजवादी-ललक-5: लोहिया और गांधी के वैचारिक रिश्ते के मायने
समाजवादी-ललक-6: जर्मनी में डाॅक्टरेट की तैयारी करते समय लोहिया सोशल डेमोक्रैट बन गए थे
समाजवादी-ललक-7: संविधान के 'भारत के हम लोग' वाले मुखड़े के तेवर में लोहिया ने फूंकी सांस
समाजवादी-ललक-8: मानव अधिकार के लिए हमेशा सजग और प्रतिबद्ध रहे लोहिया
(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।