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समाजवादी-ललक-8: मानव अधिकार के लिए हमेशा सजग और प्रतिबद्ध रहे लोहिया

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भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अहम व्यक्तित्व से फॉलोअप रुबरू कराना चाहता है। साबरमती का संत नाम से 50 क़िस्त के मार्फत महात्मा गांधी को समझने की कोशिश की गई थी। वहीं सदी के महाचिंतक स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित करीब 20 क़िस्त भी आपने पढ़े होंगे। धुर समाजवादी लीडर डॉ .राममनोहर लोहिया के बारे में आप तीन किस्त पढ़ चुके हैं। गांधीवादी वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी की क़लम से नियमित आपको पढ़ना मयस्सर होगा। आज पढ़िये 8वीं क़िस्त-संपादक

कनक तिवारी, रायपुर:

राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अनुच्छेद 51 क में मूल कर्तव्य का परिच्छेद संविधान में 1977 में शामिल किया गया है। इन कर्तव्यों का समकालीन उल्था यदि लोहिया की दृष्टि में सजगता से किया जा सके, तो पूरा संवैधानिक पाठ समाजवादी नस्ल के अभिनव तेवर में आज भी जज्ब किया जा सकता है। लोहिया होते तो मानव अधिकारधर्मिता की कोशिश संविधान की केन्द्रीय आवाज में शामिल ज़रूर करते। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जन्मे संयुक्त राष्ट्र संघ में उद्घोषित मानव अधिकार पहले ही संविधान में सार्थक ढंग से उल्लेखित हो सकते थे। यूरो-अमेरिकी संविधानविद भारतीय सामन्ती शासनतंत्र, जातिप्रथा, मतवाद, कट्टर मजहबपरस्ती, वर्णाश्रम जैसी कई रूढ़ियों और प्रथाओं से प्रताड़ित और अनुभवसिद्ध नहीं रहे हैं। इसलिए यूरो-अमेरिकी अवधारणाओं से प्रेरित संविधान में मूल अधिकारों की भाषायी अभिव्यक्ति तक में भारत के लिए सुलभ मानव अधिकारों के तेवर ठीक से नज़र नहीं आते हैं। संविधान में तो मूल अधिकारों के अमल की दुर्गति तथा पंचायती राज और राष्ट्रभाषा की अवधारणा का विलोप भी है। 

लोहिया, नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश और अन्य समाजवादियों की संविधान सभा में प्रतिभागिता नहीं होने से संविधान को बोझिल, अकादेमिक किताब के मुकाबिले जनधर्मी पाठ में तब्दील नहीं किया जा सका। हिन्दी भाषा भाषी समर्थक भी संविधान सभा में हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहते उसे राजभाषा भर बना पाने की वकालत कर पाए। पलटवार नहीं किया कि विक्टोरियाई शास्त्रीय शब्द-छल से लकदक अंगरेजी भारत का संवैधानिक संस्कार क्यों और कितना रच पाएगी? पंडिताऊ किस्म की बोझिल राजभाषा से भी जीवन-विसंगत उबाऊपन पैदा होता ही होता है। यह तिलिस्म भी लोहिया ने समझाते ब्रिटिश सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को खंगालते जनअभिव्यक्ति के लिए कई नए शब्द गढ़े। मजिस्टर, कलट्टर, उर्वसीयम, रपट जैसे बीसियों शब्द लोहिया की देन हैं। ये केवल चर्चा का विषय नहीं होकर जनता की जुबान पर अपनी जगह सुरक्षित कर चुके हैं। 

 

क्या आप स्त्रीवादी लोहिया को जानते हैं? | फॉरवर्ड प्रेस
 
भारत के संविधान में अनुच्छेद 51-क इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में आपातकाल रहते जोड़ा गया। उसमें भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा वह (क) संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे, 
 (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे, 
 (ग) भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे, 
 (घ) देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे, 
 (ड.) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं, 
 (च) हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करे, 
 (छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणी मात्र के प्रति दयाभाव रखे, 
 (ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे, 
 (झ) सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे, 
 (´) व्यक्गित और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत् प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले। 
 (ट) यदि माता-पिता या संरक्षक, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान करे। 

दरअसल भारतीय संविधान सभा की पहली बैठक 09.12. 1946 के करीब एक साल पहले गांधी जी के संवैधानिक विचारों को एकजाई करते वर्धा के सेक्सरिया काॅमर्स काॅलेज के प्रिंसिपल श्रीमन्नारायण अग्रवाल ने आज़ाद भारत के लिए गांधीवादी संविधान पुस्तक लिखी थी। यह पुस्तक संविधान सभा के कुछ सदस्यों को उपलब्ध भी रही है। गांधी ने मूल अधिकारों को नागरिकों को दिए जाने के परंतुक की तरह मूल कर्तव्यों के प्रतिबंधों का सुझाव दिया था जिनके बिना मूल अधिकार नहीं दिए जाने का आवहान किया गया था उक्त पुस्तक के अनुसार ये मूल नागरिक कर्तव्य इस तरह हैं:

1. All citizens shall be faithful to the State especially in times of national emergencies and foreign aggression. 
2. Every citizen shall promote public welfare by constituting to State funds in cash, kind or labour as required by law. 
3. Every citizen shall avoid, check and if necessary, resist exploitation of man by man. 

यही वह बिन्दु है जहां से लोहिया ने संविधान के अनुच्छेद 19 में दी गई नागरिक आजादियों का व्यावहारिक और मैदानी प्रयोग किया कि वे किसी भी मनुष्य का शोषण नहीं होने देंगे और ऐसी नागरिक अवज्ञा सत्याग्रह की परिधि में होने से वह अपराध नहीं है और इसलिए सरकारों को उसे प्रतिबंधित करने का कोई संवैधानिक हक नहीं हो सकता। दरअसल गांधी ने सिविल नाफरमानी, असहयोग और सत्याग्रह वगैरह के नैतिक जनवादी हथियार दिए थे। उनका सफल परीक्षण तो सबसे ज़्यादा लोहिया को ही करना पड़ा। भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। गांधी उसके दो वर्ष पहले ही चले गए थे। इसलिए गांधीवाद के संबंध में प्रामाणिक तौर पर अभिव्यक्ति और कर्म सहित लोहिया को जनता का मोर्चा संभालना पड़ा था। यह इतिहास का सच है। यह भी है कि 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में डाॅ. अंबेडकर ने गांधी का नाम लिए बिना उनके नागरिक अवज्ञा के सिद्धांत खारिज कर दिए थे। यही कहा था कि सरकार के खिलाफ यदि शिकायत है तो लोग निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जा सकते हैं। भारत जैसे विशाल जनसंख्या के देश में मुकदमों के जरिए एक ढीली ढाली, खर्चीली न्याय व्यवस्था में जनअधिकार किस तरह कारगर हो सकते हैं यह अलग सवाल है।

(जारी)

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।