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साबरमती का संत-43: मौजू़दा हालातों में गांधी एक बेहतर और कारगर विकल्प

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। पेश है,  43वीं किस्त -संपादक। )

कनक तिवारी, रायपुर:

गांधी की आत्मा में वे सारे सवाल पिछले कई वर्षों से उठ-गिर रहे थे। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रही के रूप में गांधी के पास अद्भुत अनुभवों का जखीरा था, जब उन्होंने गोरे साम्राज्यवाद की यातनाएं झेलीं। दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में इस सत्याग्रही ने एक काठियावाड़ी वणिक की मूल संरचना से उठकर खुद को वहां के सबसे महत्वपूर्ण जननेता के रूप में स्थापित और विस्तारित किया। ट्रांसवाल और अन्य स्थानों पर सत्याग्रह करते हुए गांधी ने चम्पारण और बारदोली की अपनी भूमिका का पूर्वाभ्यास दक्षिण अफ्रीका में ही किया। इसी क्रम में साबरमती आश्रम और सेवाग्राम की पूर्व पीठ के रूप में फीनिक्स आश्रम को भी समझा जा सकता है। यह भी उल्लेखनीय है कि दक्षिण अफ्रीका में गांधी को जो सामाजिक परिवेश मिला वह भारत के मुकाबले कहीं अधिक आधुनिक, व्यापक और रेस्पांसिव था। विशेषकर दक्षिण अफ्रीका की महिलाएं भारत की महिलाओं के मुकाबले ज्यादा खुलेपन के साथ कार्यक्रमों और सत्याग्रहों में शामिल होती थीं। हिन्दू-मुसलमान एका का भी दक्षिण अफ्रीका जीवित गवाह रहा है। इसके उलट धार्मिक, सामाजिक बीमारी के कारण बाद में गांधी को भारत-पाक विभाजन का अभिशाप तक अपनी आंखों देखना पड़ा।

 

गांधी के एक बड़े अध्येता भीखू पारेख उनकी कुछ कमियों की ओर भी इशारा करते हैं। उनका तर्क है कि आधुनिक सभ्यता की गांधी-समीक्षा कुछ उपलब्धियों की अनदेखी करती है। मसलन सभ्यता की वैज्ञानिक और आलोचनात्मक अन्वेषण वृत्ति, मनुष्य द्वारा प्रकृति का नियंत्रण और सभ्यता की स्वयं की सांगठनिक शक्ति। पारेख का कहना है कि ऐसी उपलब्धियों का यह भी निहितार्थ है कि इनका कुछ न कुछ आध्यात्मिक आयाम तो है जिसे गांधी ने ठीक से नहीं देखा होगा। गांधी का फोकस एक खास युग की आधुनिक सभ्यता की समीक्षा और औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की बुराइयों को देखने का था। यह अलग बात है कि गांधी ने कोई सौ वर्ष पहले पाठक के जरिए जो सवाल पूछे थे, उन्हें अब तक तथाकथित अविकसित और विकासशील देशों की दुनिया पश्चिम की मालिक सभ्यता से अब तक पूछ रही है। गांधी ने भारत को सभ्य बनाए जाने के इंग्लैंड के मिशन की वैधता और नीयत पर ही सवाल किया था। उसे लगभग अकेले/पहले भारतीय के रूप में खारिज भी कर दिया था। उन्हें पश्चिम से कुछ सीखने की इच्छा ही नहीं थी, यद्यपि पश्चिम से बहुत कुछ सीखा गया और सीखा भी जा सकता था। इसलिए गांधी ने केवल अभिनय करते हुए यह कहा कि यदि भारतीय अपनी गौरवशाली ऐतिहासिक उपलब्धियों का अहसास कर लें तो उन्हें पश्चिम से कुछ सीखने की स्थिति का तिरस्कार करना होगा।

 

 

गांधी तो क्या कोई भी व्यक्ति, विचार या व्यवस्था निर्विकल्प नहीं है। मौजू़दा हालातों में गांधी एक बेहतर और कारगर विकल्प हैं। यह बात धीरे-धीरे दुनिया में गहराती जा रही है। अकादेमिक इतिहासकारों के बनिस्बत यदि इतिहास निर्माता खुद आंखों देखा, बल्कि भोगा हुआ सच लिखें, तो वह बाद की पीढ़ी के भी किसी देशज बुद्धिजीवी के वर्णन, विवरण से ज़्यादा विश्वसनीय, प्रामाणिक और उद्वेलित करता हुआ होता है। इतिहास की ऐसी गांधी-समझ बुद्धिजीवियों का नकार नहीं करती। गांधी दृष्टि विदेशी लेखकों से उस सांस्कृतिक समझ और मुहावरे की उम्मीद भी करती है जिनके अभाव में इतिहास का निरपेक्ष, तटस्थ और वस्तुपरक मूल्यांकन हो सकना गांधी स्वीकार नहीं कर पाते हैं। क्या इससे यह नहीं लगता कि टीपा गया इतिहास एक ऐसा बयान है जो घटित नहीं हुआ होगा। वह ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखा गया जो वहां था ही नहीं। गिबन ने तो लगभग चिढ़कर खुद कहा है कि औपचारिक इतिहास होता कहां है? वहां तो केवल जीवनियां होती हैं।

जनसमर्थन और जनप्रतिनिधित्व के बिना लोकतंत्र में किसी नेता को जन-भविष्य गढ़ने  का उत्तरदायित्व नहीं दिया जा सकता। भारत में लेकिन यही हो रहा है। राजनीतिक मनुष्य का विकास धरती में गड़ गए बीज की तरह होता है जो पौधे से धीरे धीरे वृक्ष में तब्दील होता है। देश के प्रधानमंत्री का विकास और विस्तार स्वाभाविक नहीं रोपित है। उनके चेहरे के तेवर को पढ़ने से यह समझ नहीं आता कि उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं। देश महंगाई की मार से अपनी टूटी हुई कमर को सहलाना चाहता है। प्रधानमंत्री के पास कोई उत्तर नहीं है। उनकी बौद्धिकता में सात्विक अहंकार की अनुगूंजें हैं। हर तीन माह बाद महंगाई के कम होने की मृग-तृष्णा का आश्वासन है। आश्वासन देने के दूसरे दि नही कीमतों में बढ़ोत्तरी की सरकारी घोषणाएं हो जाती हैं। अमेरिका भारत की संसद में आकर अट्टहास करता है। प्रधानमंत्री के चेहरे पर पुरस्कार प्राप्त छात्र की तरह मुस्कान तैरने लगती है। मीडिया कॉरपोरेटियों से प्राप्त प्रमाणपत्र को महात्मा गांधी की सीख के ऊपर चस्पा कर देने को इतिहास लेखन समझता है।

जारी

 

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।