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साबरमती का संत-40: क्‍या महात्‍मा गांधी ने ऐसे ही स्वराज्य की कल्‍पना की थी, जहां है सिर्फ अफ़रातफ़री 

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। पेश है,  40 वीं किस्त -संपादक। )

कनक तिवारी, रायपुर:

एक विरोधाभास या असमंजस भी है। संसदीय विधायन, न्यायपालिका और तमाम  प्रशासन का सरंजाम संविधान के सुपुर्द होता है। संविधान की उद्देशिका में शुरुआत के शब्द हैं ‘हम भारत के लोग‘ और फिर अंत में इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।‘ संविधान के उद्घोष से संगति बिठाएं, तो हम भारत के 130 करोड़ लोग संविधान के निर्माता हैं। यह अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के.के. मैथ्यू के अनुसार 27.05 प्रतिशत लोगों ने ही वोट देकर संविधान सभा को बनाया था। इतने वर्षों के बाद अनुभव यह है कि कार्यपालिका अर्थात मंत्रिपरिषद ने न्यायपालिका और विधायिका को लगभग दरकिनार करके अमलकारी शक्ति अपनी मुट्ठी में कर ली है। चुटकुला भी चलता है कि देश को पी.एम.सी.एम. और डी.एम. ही तो चलाते हैं। गांधी का कथित अंतिम व्यक्ति तो अब करोड़ों के बहुवचन में तब्दील हो गया है। तब की कतार भीड़ में तब्दील हो गई है। तब का विचार विमर्श अब नागरिक जीवन में भीड़ का कोलाहल है। जिस पद्धति का स्वराज्य गांधी चाहते थे, वह मौजूद तो है, लेकिन वहां भारी अफरातफरी है। नागरिकता, निजता, शिक्षा, इलाज, संस्कृति, रोजगार और नियोजन आदि के अधिकारों के चश्मों पर धुंध छा गई है या अकिंचनता की आंखों के चश्मों का नंबर बदल गया है। गांधी बेतरह गायब हैं। बुलाने से भी आते, मिलते नहीं हैं।

सात समुंदर पार के चौबीसों घंटे चमकने वाले विलायती नस्ल के मालिक सूरज को  गांधी ने बोलने की आजादी के तहत चुनौती दी थी। बोलने की आजादी के पैरोकार गांधी के अखबारों ‘यंग इंडिया‘, ‘हरिजन‘, ‘नवजीवन‘, ‘इंडियन ओपिनियन‘ वगैरह के वंशज काॅरपोरेटी मीडियामुगलों के ढिंढोरची बने चौथे स्तंभ को ज़मींदोज़ कर चुके हैं। उनके राजनीतिक वंशज गांधी के जन्म और शहादत तक के सवालों के अज्ञान के कारण जगहंसाई करा रहे हैं। चम्पारण, बारदोली, दांडी, साबरमती, सेवाग्राम धीरे धीरे गुमनामी में डूबते सूरज हैं। गुम हो रही रोशनी में ‘मेक इन इंडिया‘, ‘स्मार्टसिटी‘, ‘बुलेट टेªन‘, ‘स्टार्ट अप‘, महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, भुखमरी, पस्तहिम्मती, तशद्दुद, खूंरेजी का अंधेरा उग रहा है। गांधी को वहम क्यों है कि अब भी भारत को उनकी जरूरत है। यही व्यंग्य तो गांधी की पूंजी है। अभिमन्यु के रथ के चाक की तरह भारत की बीसवीं सदी को अपने कांधे उठाए गांधी झिलमिलाते ध्रुवतारे की तरह क्यों हैं?

 

भारत की एकता, अस्मिता और ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया के सामने कथित सांस्कृतिकता का विदेशी राक्षस आकर खड़ा हो गया है। आधी रात के बाद दूरदर्शन में उत्तेजक फिल्में और सीरियल शुरू होते हैं। दिन में अपसंस्कृति पर व्याख्यान देने वाले रात में जागकर उन्हें खुद देखते हैं। भारतीयता पर धुंआधार भाषण देने वाले राष्ट्रवादी नेता, उद्योगपति और नौकरशाह अपने बच्चों को विदेशों में ही पढ़ाते हैं। राष्ट्रभाषा प्रचार समितियों के कर्ताधर्ता अपनी संतानों के लिए देशों विदेशों से आयातित सेल फोन, वाॅकमैन, लैपटाॅप कम्प्यूटर, जीन्स वगैरह के तोहफे विश्व हिन्दी सम्मेलनों से खरीद कर लाते हैं।       स्वदेशी के तमाम पैरोकारों के आसपास से विदेशी गंध आती रहती है। अब तो प्यास की राष्ट्रीय आदत का यह आलम है कि वह पेप्सी और कोका कोला की बोतलों से कम पर समझौता ही नहीं करती। गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस, गांधी जयंती वगैरह के मुख्य अतिथियों और अन्य कपड़ों से नीनारिक्की, चार्ली, ब्रूट, जोवन, सेक्स अपील जैसे विदेशी इत्रफुलेलों की गंध वातावरण में ठसके से समाती जा रही हों। 

कुछ मुठभेड़े नहीं हो पाईं या एकाध बमुश्किल हुईं। रवीन्द्रनाथ टैगोर, विवेकानंद, गांधी और भगतसिंह वगैरह आपस में बौद्धिक जिरह नहीं कर पाए। गांधी बेलूर मठ में जाने के बाद भी विवेकानन्द से मिल नहीं पाए। नेहरू और भगतसिंह में विमर्श हुआ है। सामूहिक तर्क के पड़ाव तक पहुंचने के बदले मसीहाओं के विचार कुछ लोग हाईजैक करके ले गए। रामकृष्ण मिशन तो सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा हारा है। जहां वह कहने की कोशिश कर रहा था कि हमें प्रचलित और रूढ हिन्दू धर्म का अनुयायी नहीं माना जाए। उन्हीं दिनों रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद पर एक नायाब निबंध लिखा। जो रवीन्द्रनाथ ने कहा वही तो नरेन्द्रनाथ ने शिकागो में कहा। दोनों लकदक पोशाकें पहनते थे। इसलिए उन्हें छोड़ ‘चर्चिल के अधनंगे फकीर‘ को बिंदेश्वरी पाठक के जजमानों ने दीवार में चस्पां कर दिया। उनके विचार उनके जिस्म से नोचकर फेंक दिए।

जारी

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।