(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है, 29 वीं किस्त -संपादक। )
डा जंग बहादुर पाण्डेय, रांची:
तू कोलोदधि का महास्तंभ, आत्मा के नभ का तुंग केतु,
बापू तू मर्त्य -अमर्त्य, स्वर्ग-पृथ्वी, भू-नभ का महा सेतु।
तेरा विराट यह रूप,
कल्पना पट पर नहीं समाता है,
जितना कुछ कहूं, मगर कहने
को शेष बहुत रह जाता है।
राष्ट्र कवि दिनकर:
नीति कहती है कि कहने को शेष बहुत रह जाता है, वही शख़्स विशेष हो जाता है।राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ऐसे ही इंसान थे, जिनके बारे में सब कुछ नहीं कहा जा सकता है।
किसी को समय बडा बनाता है और कोई समय को बडा बना देता है।कुछ लोग समय का सही मूल्यांकन करते हैंऔर कुछ लोग आने वाले समय का पूर्वाभास पा जाते हैं। कुछ लोग अतीत को परत दर परत तोड़कर उसमें वर्तमान के लिए ऊर्जा एकत्र करते हैं और कुछ लोग वर्तमान की समस्याओं से घबराकर अतीत की ओर भाग जाते हैं।राष्ट्र पिता महात्मा गांधी एक ऐसे ही युग पुरुष थे,जिन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से समय को बड़ा बना दिया और वर्तमान की समस्याओं से कभी मुंह नहीं मोड़ा अपितु समस्याओं पर विजय प्राप्त कर उनपर कामयाबी का झंडा बुलंद किया।
गांधी जी का सपना था स्वराज और सुराज।स्वराज 15 अगस्त 1947 को प्राप्त हो गया, लेकिन सुराज का सपना अभी भी अधूरा है। सुराज अर्थात् सुशासन और आत्मनिर्भरता। सबका विकास और सबके लिए प्रकाश। गांधी जी ने स्वतंत्रता के लिए सत्य और अहिंसा को अपना अमोघ अस्त्र बनाया था ।खादी को स्वदेशी उत्पादन का मूलाधार बताया।स्वाधीनता संग्राम के दिनों में देश का नेतृत्व करते हुए महात्मा गांधी ने स्पष्ट शब्दो में कहा था कि राष्ट्र का विकास ग्रामों से ही किया जा सकता है और गांव के परम्परागत हस्त शिल्प उद्योगों के बिना ग्रामीण विकास की कल्पना नहीं की जा सकती।गांधी जी कहा करते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है।उनके समय तक भारत के अधिकांश हस्त शिल्प उद्योगों का ब्रिटिश वाणिज्य नीति के कारण पतन हो रहा था।गांव गाँव में बनने वाले सूती और रेशमी कपड़ों की मांग पर विदेशी कपड़ो का प्रभाव फैल रहा था।सारे संसार को औद्योगिक ग्रामीण सामग्री का निर्यात करने वाला भारत, जब अपने ही बाजारों में इगंलैंड के कारखानों में बनी वस्तुओं को खरीदने के लिए मजबूर कर दिया गया था,तब महात्मा गांधी ने खादी की परिकल्पना समाने रखी।यह कोई नयी चीज नहीं थी।खादी के कपड़ें सदियों से भारतीय ग्राम शिल्प का हिस्सा बनकर व्यवहार में आते थे। इसी से महात्मा गांधी ने कहा कि हर गांव का पहला काम अपनी जरूरत की तमाम चीजें खाने के लिए अनाज और कपड़े के लिए कपास पैदा करना है।अपने गांव में उत्पन्न कपास को खादी के रूप में देश के कोने कोने में पहुचाने में असमर्थ देशवासियों के लिए महात्मा गांधी ने खादी का अखिल भारतीय मंत्र समूचे देश को दिया।
खादी का मंत्र भारत के समग्र विकास का हिस्सा बने, इसे ध्यान में रखकर ही गांधी जी ने ग्राम विकास और ग्राम समाज की कल्पना की थी।खादी कार्यकर्ताओं को सलाह देते हुए उन्होंने कहा था:
कातो समझ बुझकर कातो
जो काते सो पहने
जो पहने सो काते
सूत कातने में श्रम और आत्मनिर्भरता का बोध है।
इन पंक्तियों से संकेत मिलता है कि महात्मा गांधी ने सूत कातने की परम्परा के साथ ग्रामीण जीवन की आदतों का एकीकरण किया।जो कातेगा वहीं पहनेगा और जो पहनना चाहता है उसे कातना भी पड़ेगा।खादी की परिकल्पना इसी संकल्प के साथ सामने आयी कि अपनी दैनिक जरूरतों के लिए लोग अपने संसाधनों पर ध्यान दें।खादी के साथ आर्थिक विकास का सीधा संबंध जोड़ते हुए महात्मा गांधी ने खादी को तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन का अविभाज्य हिस्सा बना दिया।शायद ही कोई राष्ट्रीय नेता हो,जिसने उन दिनों चरखा न चलाया हो।चरखा आंदोलन तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन का महत्वपूर्ण अंग था।हर नगर, हर गांव,हर घर में उन दिनो चरखे चल रहे थे।चरखे की आवाज के साथ खादी ने ग्रामीण विकास को एक नया और व्यवस्थित आकार प्रदान किया।
सेवा,सहकार, संकल्प, स्वदेशी ,स्वराज्य, सुराज, स्वनियोजन गांधी जी के मूल मंत्र थे। उन्होंने हरिजन में लिखा है कि मुझे इसमें जरा भी संदेह नहीं कि हमारे हिन्दुस्तान जैसे देश में ,जहाँ लाखों आदमी बेकार पड़े हैं,लोग इमानदारी के साथ अपनी रोजी कमा सकें।इसके लिए उनके हाथ पैरों को किसी न किसी काम में लगाए रखना जरुरी है।खादी और कुटीर उद्योग उनके लिए आवश्यकता है।मेरे लिए यह बात सूर्य प्रकाश की भांति स्पष्ट है कि इन उद्योगों की आज सख्त जरूरत है।
गांधी के समय से लेकर अब तक भारत के 3 लाख से अधिक गांवों में खादी ने एक व्यवस्थित विकास यात्रा की है।खादी ने भारत की स्वाधीनता के प्रारंभिक दशकों में अपनी धीमी शुरूआत की ,लेकिन आज गांधी जी का सपना साकार होने लगा है। सामुदायिक विकास के हर चरण पर खादी ने राष्ट्रीय विकास धारा मेंअपने को स्थापित किया है।यही कारण है कि जिस खादी का व्यवहार आजादी के पहले, आजादी के प्रारंभिक वर्षों में केवल राजनीति से जुड़े हुए लोग करते थे,आज वह जन साधारण की पोसाक बन गई है।क्रमशः समूचे देश के सामने उजागर हो गया है कि खादी के बारे में गांधी जी की परिकल्पना बहुत सही थी।उन्होंने न केवल इसे स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ा बल्कि इसे देश की आत्मनिर्भरता का आधार भी बतलाया। देश के आर्थिक विकास के लिए खादी को आत्मनिरीक्षण और आत्म सुधार का माध्यम घोषित करते हुए महात्मा गांधी ने गांवों के विकास की धारा आरंभ करने पर बल दिया था। उनके अनुसार गांव की तरक्की के बिना देश का विकास संभव नहीं।इसके लिए आवश्यक है कि गांव गांव मे हस्त शिल्प उद्योगों का विकास और प्रसार हो।खादी और उससे जुडे हस्त शिल्पों ने गांव की विकास यात्रा को क्रमशः पल्लवित किया है।यह खादी के वर्तमान स्वरूप से लक्षित होता है।लेकिन अभी भी गांधी जी का सपना पूरी तरह साकार नहीं हो सका है। उन्होंने खादी को विकास की मुख्य धारा का प्रकाश स्तंभ बनाने पर बल दिया था।अभी भी खादी और उससे जुड़े ग्रामीण हस्त शिल्प में विकास और प्रचार की आवश्यकता है।ऐसे भारतीय नागरिकों की मानसिकता को तैयार करना बड़ी चुनौती है,जो राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर खादी को अपनावें।इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए औद्यौगिक चकाचौंध के दौर में खादी से जुड़ना एक महत्वपूर्ण संकल्प होगा।आइए हम सब मिलकर महात्मा गांधी के सपनो को साकार करने के लिए खादी अपनाने का व्रत लें।
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(लेखक हिन्दी विभाग, रांची विश्वविद्यालय के अध्यक्ष रह चुके हैं। )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।