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समाजवादी-ललक-़10: दक्षिणपंथ और वामपंथ -किसके निकट थे लोहिया

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भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अहम व्यक्तित्व से फॉलोअप रुबरू कराना चाहता है। साबरमती का संत नाम से 50 क़िस्त के मार्फत महात्मा गांधी को समझने की कोशिश की गई थी। वहीं सदी के महाचिंतक स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित करीब 20 क़िस्त भी आपने पढ़े होंगे। धुर समाजवादी लीडर डॉ .राममनोहर लोहिया के बारे में आप गांधीवादी वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी की क़लम से नियमित पढ़ रहे हैं। आज पढ़िये 10वीं क़िस्त-संपादक

कनक तिवारी, रायपुर:

आम आदमी से बड़ी संख्या में महत्वाकांक्षा और जुगत लिए लोहिया दक्षिणपंथी तत्वों के मुकाबले कम्युनिस्टों और समाजवादियों से बेहतर नजदीकी अपनी रणनीति के कारण भी महसूस करते थे। इसके बावजूद वामपंथ के शीर्ष नेता नम्बुदिरिपाद से लोहिया की एक मायने में पटरी नहीं बैठती थी।       इसलिए नहीं कि नम्बुुदिरिपाद में और किसी मुद्दे को लेकर उसे मतभेद था। वह चीन के भारत पर आक्रमण के मुद्दे को लेकर तो था ही। लोहिया कहते थे कि इन वामपंथियों को अंतरराष्ट्रीय राजनीति की संतुलित, भविष्यमूलक और समयबद्ध समझ नहीं है। अपने समय के कम्युनिस्ट नेताओं को लेकर लोहिया ने एक बात और देखी थी। ये सब के सब केवल अपने प्रदेश के वोटरों तक सीमित रहते हैं। वे फिर इनकी राष्ट्रीय भूमिका को लेकर किस तरह इनके साथ हमकदम हुआ जा सके। लोहिया की समझ थी कि कम्युनिस्ट लोग ‘एलीट वर्ग‘ को भी विभाजित करने की जुगत में भी रहते हैं। प्रगतिशील-उद्योगपति या कुछ बेहतर पढ़े.लिखे पश्चिमी समझ और प्रकृति के बौद्धिक मुखौटे धारे लोगों को कम्युनिस्ट अपने साथ रखते हैं। तो भी समझते हैं कि एक तरह से उनकी नैतिक या बौद्धिक विजय है। लोहिया इस तरह का कोई उपवर्ग बनाने के पक्ष में कभी नहीं रहे। उन्होंने प्रेस में भी अलग.अलग तरह के विभाजन देखने के बावजूद उस में से किसी एक का साथ या एक का विरोध करने का कोई इरादा कभी नहीं किया। वे समझते रहे कि देश का अवाम बड़ी संख्या में उनके साथ आएगा तो ‘एलीट‘ वर्ग का ढकोसला अपने आप खत्म हो जाएगा।

पत्रकार शिवकुमार मिश्र ने कहा है लोहिया नागरिक स्वतंत्रता की आभा के आलोक में जनतंत्र का कीर्ति स्तम्भ स्थापित करना चाहते थे। वर्ष 1965 में मार्क्सवादियों की जब धरपकड़ हुई थी तब लोहिया ने अनूठे अन्दाज़ में कम्युनिस्टों की रिहाई के लिए देशव्यापी अभियान चलाया था और दिल्ली के बिड़ला कपड़ा मिल के मजदूरों की सभा को सम्बोधित किया था। तब लोहिया ने बताया था कि दक्षिण भारत के कम्युनिस्ट विशेषकर सर्वश्री गोपालन, पी. सुन्दरैया, पी. राममूर्ति और नम्बूदिरिपाद ने राजनीति का पाठ ‘कांग्रेस-सोशलिस्ट‘ के रूप में पढ़ा था। लोहिया का अपने पूर्व समाजवादी साथियों से भावनात्मक लगाव था क्योंकि इन पूर्व कांग्रेस सोशलिस्टों ने भी लोहिया की तरह ईमानदारी, सादगी और अपरिग्रह के पथ को आलोकित किया था और उनका भी लोहिया की तरह अपरिग्रह पर अटूट भरोसा था। इस बिन्दु पर वे गांधी के करीब थे। 


 
अपने एक निबंध में गिरीश मिश्र और बृजकुमार पांडेय ने लोहिया की आलोचना में लिखा है “मार्क्सवाद एवं सोवियत संघ के प्रति लोहिया का विरोध भारत की आजादी के बाद अधिक प्रखर हुआ। 1930 से लेकर 1940 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों के दौरान लोहिया ने शायद ही कभी अपनी कम्युनिज्म और सोवियत विरोधी मान्यताओं को तूल दिया। शायद इसके दो कारण रहे होंगे। पहला कारण रहा होगा जवाहरलाल नेहरू के साथ उनकी कम्युनिस्ट स्वतंत्र भारत में ‘भारत छोड़ो आंदोलन‘ में अपनी भूमिका के परिणामस्वरूप राष्ट्र की मुख्यधारा से कटकर प्रभावहीन होंगे। यहां यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि 1930 के दशक के दौरान सोवियत संघ के प्रति लोहिया का रुख बड़ा गरमजोशी का रहा। उन्होंने अपने द्वारा लिखे पैम्फ्लेट ‘इंडियाज फाॅरेन पालिसी‘ (1938) जिसका प्रकाशन अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने किया और जिसकी भूमिका नेहरू ने लिखी थी ने में, कहा थाः ‘‘विश्व के राज्यों में सामान्यतया हमें सोवियत रूस का समर्थन करने मे कोई हिचक नहीं होनी चाहिए क्योंकि उसने राज्य की नीति के आधार के रूप में निश्चय ही साम्राज्यवाद का परित्याग कर दिया है।‘‘

(जारी)

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।