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समाजवादी-ललक-़17: इतिहास और संस्कृति को टुकड़ों में देखना लोहिया का नज़रिया नहीं रहा

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भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अहम व्यक्तित्व से फॉलोअप रुबरू कराना चाहता है। साबरमती का संत नाम से 50 क़िस्त के मार्फत महात्मा गांधी को समझने की कोशिश की गई थी। वहीं सदी के महाचिंतक स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित करीब 20 क़िस्त भी आपने पढ़े होंगे। धुर समाजवादी लीडर डॉ .राम मनोहर लोहिया के बारे में आप गांधीवादी वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी की क़लम से नियमित पढ़ रहे हैं। आज पढ़िये 17वीं क़िस्त-संपादक

कनक तिवारी, रायपुर:

फर्रुखाबाद से उनके नहीं चाहने पर भी लोकसभा सदस्य चुने गए डाॅ. लोहिया को संसद में बहुत धारदार बोलते देखकर जवाहरलाल नेहरू ने अपनी झल्लाहट में कहा था ‘‘यह तो सड़क छाप, बाजार छाप भाषा बोलने के महारती हैं।‘‘ लोहिया ने नेहरू मंत्रिमंडल के खिलाफ रखे अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में इतनी दमदार तकरीरें की थीं कि उनकी वक्तृता का लोहा मान लिया गया था।  इस लोकसभा सदस्य ने नेहरू के जवाब देने के वक्त संसद में हाजिर रहना मुनासिब नहीं समझा। वे गैरहाज़िरी के जरिए नेहरू के लिए नफरत और दूरी का इस तरह इजहार करने का सांकेतिक प्रयत्न करते समझे गए थे।             लोहिया को आजा़दी के बाद सरकार ने 16 बार जेल की हवा खिलाई थी। यह अलग बात है कि विरोधाभास में नेहरू ने अपने सबसे कटु आलोचक की निंदा करते भी एक तरह का सम्मान दे दिया था। लोहिया अकेले सबसे बड़े राजनेता थे जिन्होंने लगातार कोशिश की थी कि राजनीति की वाचालता में शाइस्तगी, शास्त्रीयता और शुचिता के भाषायी जंगल को साफ कर उसे बोलचाल की जनभाषा में परोसने का काम लोकतंत्र और संविधान के इरादों को मजबूत करने के लिए ज़रूर किया जाए। 

आजा़दी के बाद उन्होंने मतलबपरस्त राजनीतिज्ञों को अपनी बेहतरी में दत्तचित्त देखा। उससे लोहिया में ऐसे सियासतदां हुजूम के लिए नफरत का बगूला उठता गया। उन्होंने नए उत्साह और आक्रोश के साथ उपेक्षित, शोषित, पीड़ित जनता की आवाज बनकर विद्रोह तक की भाषा में खुद को दीक्षित किया। इस बात को भी बहुत सूक्ष्मता से समझना होगा कि लोहिया नेहरू से व्यक्तिगत तौर पर नफरत नहीं करते थे, जैसा बहुतों का ख्याल है। इसी तरह लोहिया का चेहरा बिगाड़ दिया गया। दरअसल नेहरू द्वारा अपनाए जा रहे कार्यक्रमों और प्रयोगों से लोहिया इस कारण नाराज थे क्योंकि वह एक तरह से किसी एलीट वर्ग के बड़े नेता, किसी अभिजात कुल के बड़े नेता, या विचारधारा या सरकार के द्वारा एक नकली किस्म का लोकतांत्रिकीकरण करने की कोशिश या शिगूफा से ज्यादा गंभीर कुछ नहीं था।

लोहिया में जबरदस्त खोजी इतिहास बोध था। मौत के पहले अर्ध निद्रा में भी लोहिया ‘राजा ने रानी को मारा‘ और ‘रज़िया बेगम‘ जैसे अर्थमय शब्द बुदबुदा रहे थे। निन्दक आलोचकों ने उनमें तत्कालीन अनावश्यक संदर्भ भी ढूंढ़े। दरअसल लोहिया के जेहन में इतिहास के कई अनछुए, अनसुलझे, अनदिखे पेचीदे सवाल बीजगणित के समीकरण के पायदानों की तरह व्यक्त होेने के लिए डूबते उतराते थे। उनके पहले तार्किकता के जरिए हल करने के बदले इन सवालों को अमूमन फार्मूलाबद्ध घुट्टियां बनाकर पिलाया जाता रहा था। आधुनिक ही नहीं, प्राचीन इतिहास के शासनतंत्र के सन्दर्भ में जनता की भूमिका तलाशते लोहिया ने ऐसे कई उपेक्षित और गुम हो गए सवाल पहली बार खड़े किए। कुदरत ने उन्हें मुनासिब वक्त नहीं दिया कि इतिहास की फाॅर्मूलाबद्ध सलवटों पर अपने मौलिक नायाब तर्कों की इस्तरी और करते। इतिहास की पाठ्यक्रमित समझ की गंदगी धो पोंछकर साफ करने के कई जतन फिर भी लोहिया की खोजी बुद्धि में थे। ऐतिहासिक चरित्रों जैसे अशोक और अकबर वगैरह की असरदार हैसियत पारंपरिक इतिहासकारों ने बना ही दी है। लोहिया अपनी मौलिक सांस्कृतिक जेहनियत से कबीर, तुलसीदास, चैतन्य, मीराबाई, नानक और गालिब वगैरह को उनके मुकाबले में रखते करुणामय मनुष्य-संवेदन के अभाव में शासकों को फीका चित्रित करते हैं।

इतिहास और संस्कृति को टुकड़ों, कालखंड या विभक्ति में देखना लोहिया का नज़रिया नहीं रहा। उनमें अबूझ, अदृश्य, अगम्य संस्कृति की समझ सरिता की तरह बहती रही है। यही आर्द्रता लोहिया के पूरे चिंतन में है। उस वक्त भी जब वे राजनीति के सिरफुटौव्वल कठोर दीखते सवालों से जूझते सियासी हमले और बचाव कर रहे हों। गांधी के अलावा हिन्दुस्तानी अवाम के लिए बाकी बड़े नेताओं के मुकाबले लीक से हटकर लोहिया ने अपनी समझ का जनवादी चिन्तन किया था। पूरे भारतीय वांग्मय को नए सिरे से देखने की उनकी कोशिश होती थी। नवजागरण काल के हस्ताक्षरों राममोहन राय, महर्षि दयानंद विवेकानन्द, अरविन्द, केशवचंद्र सेन, तिलक वगैरह के अवदानों को अच्छी तरह आकलित करते लोहिया सरल, सर्वसुलभ और जनआत्मीय लोकसंस्कृति का नजरिया विकसित करते हैं। उनकी कशिश इतिहास में वह संकेत सूत्र बिखराती है कि उसे शब्दों में समेट लेने का उपक्रम करना इतिहास की नई बानगी बनाना है।

(जारी)

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।