भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अहम व्यक्तित्व से फॉलोअप रुबरू कराना चाहता है। साबरमती का संत नाम से 50 क़िस्त के मार्फत महात्मा गांधी को समझने की कोशिश की गई थी। वहीं सदी के महाचिंतक स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित करीब 20 क़िस्त भी आपने पढ़े होंगे। धुर समाजवादी लीडर डॉ .राममनोहर लोहिया के बारे में आप गांधीवादी वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी की क़लम से नियमित पढ़ रहे हैं। आज पढ़िये 11वीं क़िस्त-संपादक
कनक तिवारी, रायपुर:
1946 में आगरा जेल से रिहा होने के बाद स्पष्ट तौर पर लगा कि लोहिया बदल गये हैं। उन्होंने अपने भूतपूर्व पथ प्रदर्शक नेहरू और उनके चिन्तन से अपना नाता पूरी तरह तोड़ लिया था और अपने को उनके प्रभाव से मुक्त कर लिया था। जर्मन प्रवास के दिनों में ग्रहण किये गये विचार उन पर हावी हो गये थे। श्रीमती इंदुमति केलकर ने अकारण ही यह नहीं लिखा है कि लोहिया के जीवनकाल में ही जनसाधारण और गरीब लोग उन्हें महात्मा गांधी के बाद अपना सबसे बड़ा मसीहा मानने लगे थे। ”उन्होंने न केवल मार्क्सवाद और कम्युनिज्म के प्रति अपना दृष्टिकोण बदला बल्कि सोवियत संघ के प्रति भी अपने विचारों में संशोधन किया। अपने एक लेख "ट्वेंटियथ रशियन कांग्रेस एंड इंडियन कम्युनिस्ट्स" में उन्होंने स्तालिन को ‘विश्व इतिहास के बड़े अपराधियों में से एक‘ करार दिया तथा घोषित किया कि ‘‘रूस के वर्तमान नेतागण स्तालिन के अपराधों में सहभागी रहे हैं। वस्तुतः वे स्तालिन जैसे शेर के सामने बौने सियार सिद्ध हुए हैं। स्तालिन के हर काले कारनामे में शामिल होने के कारण उनके द्वारा स्तालिन की निन्दा एक महज बकवास है।‘‘
लोहिया के निकटतम साथी और प्रसिद्व समाजवादी नेता राजनारायण के अनुसार, ‘इकानाॅमिक्स आफ्टर मार्क्स‘ डाॅ0 लोहिया की एक छोटी सी पुस्तक है जिसे उन्होंने 1942 के तूफानी वक्त के दौरान लिखा था। इस किताब को यूसुफ मेहरअली ने प्रकाशित किया था। उसमें उन्होंने मार्क्स की ‘सरप्लस थ्योरी आफ वैल्यू‘ पर अपनी उंगली उठाते हुये इंगित किया था कि श्रमिकों का शोषण उनके अतिरिक्त वक्त की कीमत न चुका कर ही केवल नहीं होता बल्कि उसके अन्य तरीके भी हैं। उन्होंने बताया कि अमेरिका का मजदूर जो उत्पादन तीन मिनट में करता है, उसी को रूस का मजदूर 6 मिनट में, चीन का 40 मिनट में और भारत का मजदूर साठ मिनट में करता है। इस तरह अमेरिका और रूस का मजदूर की मजदूरी क्रमश: तीन और 6 मिनट के लिये पाता है। उतनी ही मजदूरी भारत का श्रमिक साठ मिनट काम करने के बाद पाता है। विदेशी व्यापार और आयात निर्यात के जरिये विकसित राष्ट्र पिछड़े राष्ट्रों का इसी प्रकार शोषण करते हैं और इसे दृष्टि में रखते हुये माक्स का यह नारा कि ‘वर्कर्स आफ द वर्ल्र्ड यूनाइट‘ बेमानी हो जाता है, क्योंकि विकसित राष्ट्रों का मजदूर विकासशील राष्ट्रों के श्रमिकों के शोषण में भागीदार हो जाता है।
लेखक शिवप्रसाद सिंह कहते हैं लोहिया ने संस्कृति के नाम पर भारत में जिस वातावरण को देखा और भोगा, उसे उन्होंने एक शब्द में नाम दिया ‘‘कीचड़।‘‘ ऊंची जातियां सुसंस्कृत पर कपटी हैं, छोटी जातियां थमी हुई और बेजान हैं। देश में जिसे विद्वता के नाम से पुकारा जाता है, वह ज्ञान के सार की अपेक्षा सिर्फ बोली और व्याकरण की एक शैली है। शारीरिक काम करना भीख मांगने से ज्यादा लज्जास्पद समझा जाता है। हिन्दुस्तान को इस सांस्कृतिक जकड़बन्दी से मुक्ति दिलाने के उनके अभिमान के दो मोर्चे हैं-शूद्र और नारी। इसी को वे प्रतीक रूप से ‘‘सीता शंबूक धुरी‘‘ भी कहते हैं। शूद्र हमारी सामाजिक स्थिति का बैरोमीटर हैं और सारी सम्पूर्ण अंतर्वेयक्तिक सम्बन्धों का केन्द्र। शूद्र की मुक्ति जाति प्रथा के ध्वंस में ही निहित है। लोहिया ने जाति प्रथा पर जैसा प्रहार किया, जैसी बौद्धिक चिन्तन की लहर जगायी, वह भारत के इतिहास में अभूतपूर्व घटना है।”
(जारी)
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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।