(हिंदी के वरिष्ठ लेखक असगर वजाहत 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में शिरकत करने पाकिस्तान गए थे। वहां लगभग 45 दिन घूमते रहे। लाहौर, मुल्तान और कराची में अनेक लोगों से मिले थे। संस्थाओं में गए थे। उन अनुभवों के आधार पर उन्होंने एक सफरनामा 'पाकिस्तान का मतलब क्या' लिखा था, जो तब ज्ञानोदय में छपा था और उसके बाद ज्ञानपीठ ने उसे पुस्तक रूप में छापा था । उस पर आधारित कुछ अंश द फॉलोअप के पाठक 12 हिस्से में पढ़ चुके हैं। अब इस सफ़र को आगे बढ़ा रहे हैं यूपी सरकार में वरिष्ठ अधिकारी रहे मंज़र ज़ैदी। प्रस्तुत है 22 वां भाग:)
मंज़र ज़ैदी, लखनऊ:
तक्षशिला से गुरुद्वारा जाते समय हमें बताया गया कि खानपुर में पंजाब के प्रसिद्ध माल्टों के बहुत से बाग़ हैं। क्योंकि खानपुर में डैम बना है अतः इस क्षेत्र में पानी काफी मात्रा में उपलब्ध होने के कारण मालटे की पैदावार अधिक होती है। यह निर्णय हुआ कि बाग़ में जाकर ताजे मालटे खाएं। एक बाग़ के किनारे कार रोक दी गई। खेतों में बनी पगडंडियों पर चलते हुए तथा कहीं-कहीं पानी की नालियों को फलांगते हुए किसी तरह बाग़ में पहुंच गए। वहां बाग़ के स्वामी कुछ अन्य व्यक्तियों के साथ चारपाइयों पर बैठे थे। यह जानकर कि हम इंडिया से आए हैं बाग़ के स्वामी ने हमारा ज़ोरदार स्वागत किया और बांस और बान से बनी हुई चारपाइयों पर हमें बैठाया। उन्होंने हम लोगों से कहा कि आप स्वयं पेड़ों से मालटे तोड़ कर खा सकते हैं। उन्होंने हमें मालटे काटने के लिए चाकू भी उपलब्ध करा दिए। यद्यपि बहुत से मालटे जमीन पर भी गिरे हुए थे परंतु हमने पेड़ों से मालटे तोड़कर खाना उचित समझा।
वैसे भी पेड़ों पर इतना नीचे मालटे लगे हुए थे कि उन्हें हाथ से आसानी से तोड़ा जा सकता था। मालटे मौसमी की तरह के थे मगर देखने में लाल और खाने में मौसमी से अधिक स्वादिष्ट थे। हमने खूब मालटे तोड़े और दिल भर कर खाए। चलते समय जब हमने उन्हें माल्टो की कीमत देनी चाही तो उन्होंने यह कह कर लेने से मना कर दिया कि आप इंडिया से आए हैं, हमारे मेहमान हैं इसलिए आपसे कीमत नहीं लेंगे। यद्यपि हमें अच्छा नहीं लगा परन्तु उनके स्नेह और प्रेम को देखते हुए हम चुप रहे और उनसे विदा होकर बाग़ से बाहर आ गये।
बाग से निकलकर हम पेशावर जाने वाली जीटी रोड से होते हुए हसन अब्दाल नामक शहर में पहुंच गए जहां पर गुरुद्वारा स्थित है। यह शहर रावलपिंडी से 45 किलोमीटर की दूरी पर है तथा इस की समुद्र तल से ऊंचाई 1150 फीट है। घनी आबादी वाले शहर में जगह-जगह टूटी हुई सड़कों पर यात्रा करके किसी प्रकार गुरुद्वारे तक पहुंच गए। रास्ते में सड़कों पर काफी सिख दिखाई दिए। गेट पर पहुंचकर यहां भी वही समस्या आई जो लाहौर में गुरुद्वारा डेरा साहब में आई थी अर्थात हमें गुरुद्वारे में जाने से रोक दिया गया। यहाँ भी सिख भाइयों को हमने बताया कि हम भारत से आए हैं जहां किसी भी गुरुद्वारे में किसी के जाने के पर कोई पाबंदी नहीं है। उन्होंने बताया कि यहां सुरक्षा को देखते हुए सरकार ने यह पाबंदी लगाई हुई है। उनसे काफी अनुरोध करने पर हमें अंदर जाने दिया गया। वहां उपस्थित कुछ सिखों से वार्ता की गई। उन्होंने बताया कि गुरु नानक देव जी भाई मरदाना जी के साथ बैसाख संवत 1578 में अर्थात 1656 ईस्वी में गर्मी के दिनों में हसन अब्दाल आए थे।
गुरुद्वारे के अंदर एक पत्थर पर गुरु नानक देव जी के हाथ का चिन्ह है इसी कारण इसे गुरुद्वारा पंजा साहब कहते हैं। गुरुद्वारे का निर्माण 1830 ईस्वी में सिख शासक के प्रसिद्ध जनरल हरि सिंह नलवा द्वारा कराया गया था। वर्ष में दो बार देश विदेश से बहुत से यात्री यहां दर्शन करने आते हैं। वैशाखी के अवसर पर बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। उन्होंने बताया कि मेले के अवसर पर सरकार द्वारा सुरक्षा आदि की उचित व्यवस्था की जाती है। हमने उनसे पूछा कि गुरुद्वारे के बाहर जो बोर्ड लगा है उस पर गुरुद्वारा श्री पंजा साहब उर्दू और गुरुमुखी में लिखा है। इसके अलावा भी छोटे-छोटे जो बोर्ड लगे हैं उन पर भी उर्दू में लिखा हुआ है। क्या आप लोगों को उर्दू पढ़ने में कोई दिक्कत या ऐतराज होता है? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हमारे बुजुर्ग मुल्क के बंटवारे से पहले भी उर्दू पढ़ते थे। सिखों का तो इंडिया में भी उर्दू में बहुत योगदान रहा है। भारत के पंजाब से सिख पत्रकार उर्दू के अखबार और मैग्जीन भी निकालते रहे हैं। कुंवर महेंद्र सिंह बेदी और कुंवर राजेंद्र सिंह बेदी के अतिरिक्त अन्य कितने ही सिखों का भारत में उर्दू शायरी और उर्दू साहित्य में बहुत नाम है......क्रमशः
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पहला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: हिंदी के एक भारतीय लेखक जब पहुंचे पाकिस्तान, तो क्या हुआ पढ़िये दमदार संस्मरण
दूसरा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: पड़ोसी देश में भारतीय लेखक को जब मिल जाता कोई हिंदुस्तानी
तीसरा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: आतंकवाद और धर्मान्धता की जड़ है- अज्ञानता और शोषण
चौथा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: हिन्दू संस्कारों की वजह से मैं अलग प्लेट या थाली का इंतज़ार करने लगा
पांचवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: दरवाज़े पर ॐ लिखा पत्थर और आंगन में तुलसी का पौधा
छठवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: पत्थर मार-मार कर मार डालने के दृश्य मेरी आँखों के सामने कौंधते रहे
सातवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: धर्मांध आतंकियों के निशाने पर पत्रकार और लेखक
आठवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: मुल्तान में परत-दर-परत छिपा हुआ है महाभारत कालीन इतिहास का ख़ज़ाना
नौवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: कराची के रत्नेश्वर मंदिर में कोई गैर-हिंदू नहीं जा सकता
दसवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: अपने लगाए पेड़ का कड़वा फल आज ‘खा’ रहा है पाकिस्तान
11वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: कराची में ‘दिल्ली स्वीट्स’ की मिठास और एक पठान मोची
12 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : इस्लामी मुल्क से मैं लौट आया अपने देश, जहां न कोई डर और ना ही ख़ौफ़
13 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : बस से जब पहुंचा लाहौर, टीवी स्क्रीन पर चल रही थी हिंदुस्तानी फिल्म
14 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : 18 वीं शताब्दी के इस गुरुद्वारे की दीवारें हैं पांचवें गुरु अर्जुन देव की शहादत की गवाह
15 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : अज़ान और अरदास की जुगलबंदी- गुरुद्वारे के पास ही है लाहौर में बादशाही मस्जिद
16 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : लाहौरी क़िला और महाराजा रंजीत सिंह की समाधि- न रख और न रखाव
17 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : मुग़ल बादशाह शाहजहां ने लाहौर के शाहदरा बाग़ में बनवाया था जहांगीर का मक़बरा
18 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : जब लाहौर से रावलपिंडी तक जीटी रोड पर दौड़ पड़ी 129 किलोमीटर की स्पीड से कार
19 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : तक्षशिला की सैर-कभी सनातन और बौद्ध धर्मों का रहा केंद्र
20 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : श्रीराम के भाई भरत के पुत्र तक्ष के नाम पर बसा था तक्षशिला
21 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : विश्व के इस प्राचीन विश्वविद्यालय की दीवारें कुछ कहती हैं आप से
(मूलत: यूपी के जिला बिजनौर के चांदपुर के रहने वाले मंज़र ज़ैदी शायर और लेखक हैं। सिंचाई विभाग में अधिकारी रहे। संप्रति UP-RRDA से संबद्ध और स्वतंत्र लेखन )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।