(हिंदी के वरिष्ठ लेखक असगर वजाहत 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में शिरकत करने पाकिस्तान गए थे। वहां लगभग 45 दिन घूमते रहे। लाहौर, मुल्तान और कराची में अनेक लोगों से मिले थे। संस्थाओं में गए थे। उन अनुभवों के आधार पर उन्होंने एक सफरनामा 'पाकिस्तान का मतलब क्या' लिखा था, जो तब ज्ञानोदय में छपा था और उसके बाद ज्ञानपीठ ने उसे पुस्तक रूप में छापा था । उस पर आधारित कुछ अंश द फॉलोअप के पाठकों के लिए। प्रस्तुत है 7वां भाग:)
असग़र वजाहत, दिल्ली:
मुल्तान के होटल में अगले दिन सुबह सैयद मसूद काज़मी आये। बातचीत होने लगी। पता चला काज़मी साहब पत्राकार हैं और ‘आस टाइम्स’ के चीफ एडिटर हैं। शहर के जाने-माने बुद्धिजीवी हैं। उनका परिवार भी भारत विभाजन के समय पाकिस्तान आया था। बात थोड़ी और आगे बढ़ने लगी तो अचानक मेरे ऊपर हैरत का पहाड़ टूट गया। काज़मी साहब ने बताया कि उनका परिवार उत्तर प्रदेश के ज़िला फतेहपुर से कराची गया था। मैंने उन्हें बताया कि मैं भी फतेहपुर का हूँ और पुश्तैनी घर वहीं है। काज़मी साहब ने पाकिस्तान में अपने परिवार की कहानी बतायी। यह पता चला कि उनके पिता जी गाँव में जो ज़मीन वगै़रह छोड़ आये थे, उसके बदले उन्हें पाकिस्तान में कुछ नहीं मिला। कुछ देर बाद हम लोग मुल्तान का पुराना शहर देखने निकले।
होटल की पार्किंग में काज़मी साहब की लाल रंग की प्यारी-सी स्कूटी खड़ी थी जो देखने में मोटर साइकिल और मोपेड के बीच की चीज़ नज़र आती थी। काज़मी साहब ने बताया यह वाहन कम्पनी ने उन्हें कुछ डिस्काउंट पर दिया है क्योंकि उन्होंने अपनी पत्रिका ‘आस टाइम्स’ में उसका विज्ञापन छापा था। उन्होंने यह भी बताया कि यह बैटरी से चलती है और अस्सी किलोमीटर के बाद बैट्री चार्ज करना पड़ती है। मैं उसकी प्रशंसा करके उस पर बैठ गया।
प्रोग्राम था कि काज़मी साहब ‘वाल्ड सिटी’ के अन्दर ले जाएँगे और वे इलाके दिखाएँगे जो सबसे पुराने हैं। मेरी भी दिल्लचस्पी उसी में थी। रात शायद बारिश हुई थी या पता नहीं क्या था कि सड़कों पर कीचड़ था। भीड़-भाड बहुत ज़्यादा थी और उसी की तुलना में शोर शराबा भी था। काज़मी साहब की मोपेड ‘वाल्ड सिटी’ के एक पुराने दरवाजे़ से अन्दर जाने लगी। थोड़ी-सी चढ़ाई थी। काज़मी साहब ने एक्सीलेटर पर जोर डाला, मोपेड ने अपनी औकात से ज़्यादा आवाजें निकालीं लेकिन आगे नहीं बढ़ी तो काज़मी साहब हैंडिल को दायें-बायें घुमाने लगे ताकि कुछ गति आये। इस कोशिश में मोपेड डगमगाने लगी और मेरे लिए सन्तुलन बनाये रखना कुछ मुश्किल हो गया। लेकिन मैं मुल्तान की सड़क पर गिरकर ज़ख्मी नहीं होना चाहता था। मैंने दोनों पैर टेक दिये। मोपेड ने फिर पूरा दम लगाया लेकिन बात बनी नहीं। काज़मी साहब से मैंने पूछा कि मैं उतर जाऊँ?“ काज़मी साहब ने सख्ती से मना कर दिया। उनका इशारा था कि मोपेड की ताक़त पर शक करने का मुझे कोई हक़ नहीं है। बहरहाल मैं पीछे बैठा रहा और इस तरह डोलता रहा जैसे ‘रोला-क्रोटा’ पर होता है। आखिर, काज़मी साहब ने मजबूर होकर कहा, ”आप थोड़ा उतर जाइये, चढ़ाई है।“ मैं फौरन से पेश्तर उतर गया। मुश्किल ये थी कि मेरे बैग में कैमरा था और डर थ कि मैं गिरा तो कैमरा टूट जाएगा।
काज़मी साहब ने बड़े प्यार और खुलूस से शहर की फसील दिखाई। वह रास्ता दिखाया जिस पर फसील बनी थी। गलियाँ, कूचे, नुक्कड़ दिखाये। काज़मी साहब शहर के अच्छे जानकार हैं। उन्हें ये भी मालूम था कि इन मोहल्ले में कौन रहते हैं या पार्टीशन से पहले कौन रहते थे। उन्होंने मुझे हिन्दुओं के मोहल्ले दिखाये जहाँ पुरानी शानदार हवेलियाँ अपने अतीत के वैभव का बखान कर रही थीं। मैं सोचने लगा इतनी बड़ी और भव्य इमारतें बनाना एक पीढ़ी का काम नहीं है। न जाने कितनी पीढ़ियों का धन संचित होता है तब एक इमारत बनती है और जब अचानक उस इमारत के मालिक से कहा जाता है कि अब यह तुम्हारी नहीं है तुम इसे छोड़ कर चले जाओ, तो उसे कैसा लगता होगा।
पुरानी शानदार हवेली की तीसरी मंजिल पर हवेली के मालिक के नाम का पत्थर पढ़ना मुश्किल काम था। मैंने दूसरा कैमरा निकाला जिसमें काफ़ी अच्छा ‘जूम लेंस’ लगा था। हवेली की तीसरी मंज़िल पर लगे पत्थर पर जूम इन किया तो ॐ के नीचे 1931 लिखा था। कलात्मक ढंग से पत्थर में बेलबूटे बनाकर दाहिनी तरफ उर्दू में गोस्वामी ब्रज कुमार और उसके नीचे कृष्ण कुमार लिखा था। बायीं तरफ पहलवान गोस्वामी कांशीराम लिखा था। ऐसी न जाने कितनी इमारतें थीं।
बारह बजे के क़रीब काज़मी साहब ने कहा कि वे अपने आॅफ़िस जाना चाहते हैं क्योंकि मोपेड की बैटरी को चार्ज करने की ज़रूरत है। हम लोग मुल्तान के प्राचीनतम किले, जो अब एक विशाल टीला है और जिस पर मध्ययुग के स्मारक बने हैं, के पास आ गये। यहाँ काज़मी साहब एक पुरानी और जर्जर किस्म की इमारत के सामने मोपेड रोक दी। इमारत के नीचे कुछ बहुत साधारण किस्म की दुकानें थीं। एक पठान दुकान के बाहर अंगूठियाँ वगै़रह बेच रहा था। इमारत को देखकर काज़मी साहब ने कहा, ”यह इमारत गिरायी जाने वाली है।“
”क्यों?“
”कार्पोरेशन वालों का कहना है कि यह किसी भी वक़्त गिर सकती है।“ मैं परेशान हो गया। मतलब हम ऐसी इमारत के अन्दर जा रहे हैं जो किसी भी वक़्त गिर सकती है।
मोपेड खड़ी करके वे लोहे के सीखचे लगे एक दरवाजे़ पर आये और ताला खोलने लगे। सामने सीढ़ियाँ दिखायी पड़ रही थीं। सीढ़ियों पर कूड़ा भी नज़र आया। कुछ सीलन का भी एहसास हुआ। सीखचों वाला दरवाज़ा खोलकर वे सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। सीढ़ियों पर सीलन थी। कुछ अंधेरा-सा था। हम ऊपर आ गये। लड़की के जर्जर दरवाजे़ में लगा ताला खोलते हुए काज़मी साहब ने कहा, ”मैं दो महीने के बाद आॅफ़िस आ रहा हूँ। कभी मेरे साथ चार सब एडीटर काम किया करते थे...मैं पिछले महीनों बीमार रहा इसलिए मैगजीन भी नहीं निकल सकी...अब सबसे पहले तो मैं आॅफ़िस शिफ़्ट करूँगा।“
कोई पन्द्रह फीट लम्बा और आठ-दस फीट चैड़ा कमरा था जिसमें सम्पादक की मेज़ के अलावा एक मेज़ और थी। हर जगह पुराने अख़बार, काग़ज़, लिफाफे, चिट्ठियाँ, फाइलें बिखरी पड़ी थीं और हर चीज़ पर इतनी धूल थी कि काज़मी साहब की बात पर यकीन करना पड़ता था कि वे दो महीने बाद आॅफिस आये हैं। काज़मी साहब ने चीज़ों को ठीक से रखना और सफषई करना शुरू किया। मैंने सोचा यह काम इतना आसान नहीं है इसलिए उन्हें रोका; वे नहीं रुके तो में उनकी मदद करने लगा।
चीफ एडीटर की मेज़ के पीछे टाॅयलेट का दरवाज़ा था और बराबर ही एक किचन था जहाँ चाय के अनधुले कप पड़े थे। कपों में चाय के दाग़ सूख चुके थे। काज़मी साहब ने काम चलाऊ सफाई कर ली। हम दोनों बैठ गये तो उन्होंने कहा कि क्या मैं चाय पीना चाहता हूँ? मैं समझ गया कि दो महीनों से गंदे पड़े कपों को साफ करने के बाद भी अगर उनमें चाय पी गयी तो अतीत और वर्तमान एक हो जाएँगे। मैंने मना किया लेकिन काज़मी साहब की एक आदत है, जो मुझसे मिलती-जुलती है, वह यह कि जिस बात या काम को लोग मना करते हैं, उसे ज़रूर करते हैं। मेरे मना करने के बावजूद उन्होंने चाय बनायी। हमने चाय पी। उसके बाद काज़मी साहब ने कहा कि मैं नीचे चला जाऊँ ऊपर से वे एक तार फेंकेंगे जिसमें एक प्लग लगा होगा, उसे मैं मोपेड की बैटरी में लगा दूँ ताकि वह चार्ज हो जाये और हम लोग कुछ और घूम सकें।
बैटरी चार्ज होने के दौरान काज़मी साहब ने एक पुरानी फाइल निकाली जिसमें उनकी फतेहपुर की ज़मीन के कागज़ थे। उन्होंने खसरा, खितौनी तक संभाल कर रखे हुए थे। कागज़ात के हिसाब से उनके वालिद फतेहपुर हसवा यू.पी. के गाँव बहेड़ा सादात, पोस्ट ऐरायाँ, तहसील खागा में 34.390 एकड़ ज़मीन के मालिक थे। वे मार्च 1949 में कराची आ गये थे। अपने गाँव के छोटे-मोटे जमींदार सैयद इफ्तिखार हुसैन वल्द मीर हसन को लांढ़ी मोहजिर काॅलोनी कराची, 30 सी-वन एरिया क्वाटर्स में 363 नम्बर का क्वार्टर दिया गया था।
कागज़ात दिखाते हुए काज़मी साहब बोले, ”आज मेरे पास एक इंच ज़मीन नहीं हैं।“
”क्यों? कस्टोडियन से मिली होगी?“ मैंने कहा।
”जज...पाँच हज़ार रुपये माँगता था...अब्बा के पास...आप जानते हैं...खाने के लाले पड़े थे...नहीं दिया...केस हार गये।“
मैं कागज़ात को उलटने-पलटने लगा। इसमें सैयद हसन मुज्तबा के नाम शिआ इंटर काॅलेज, लखनऊ के एथलीटिक डिपार्टमेंट का एक सर्टिफिकेट मिला जिसमें प्रमाणित किया गया था कि वे 1942-44 के बीच स्कूल की हाॅकी, क्रिकेट और फुटबार टीम के सदस्य थे। मैंने पूछा, ”सैयद हसन मुज्तबा कौन थे?“
”मेरे बड़े अब्बा।“
”वे भी पाकिस्तान आ गये थे।“ मैंने पूछा।
”हाँ...।“ वे बोले।
”फिर?“
”उनके साथ भी यहाँ कुछ अच्छा नहीं हुआ।“ वे ख़ामोश हो गयै। मैंने बहुत कुरेदना ठीक नहीं समझा।
कुछ देर के बाद मैंने काज़मी साहब से कहा, ”जिस तरह आपके वालिद फतेहपुर हसवा के गाँव बहेड़ा सादात से कराची आये थे उसी तरह पुष्पा अग्निहोत्राी के नाना मुल्तान से दिल्ली गये थे। वे मुल्तान में दिल्ली गेट के बाहर आग़ापुरा मोहल्ले में रहते थे। उन्होंने मुझसे अपना घर देखने को कहा है। क्या आप इस काम में मेरी मदद कर सकते हैं?“
काज़मी साहब फौरन तैयार हो गये। बैट्री चार्ज हो चुकी थी। हम दिल्ली गेट की तरफ़ निकले। काज़मी साहब ने बताया कि दिल्ली गेट की अभी हाल ही में मरम्मत करायी गयी है। उन्होंने एक जगह मोपेड खड़ी कर दी। मैं दिल्ली गेट की तस्वीरें लेने लगा। पूछने पर पता चला कि मोहल्ला आग़ापुरा दिल्ली गेट से बाहर है। हम बाहर आ गये। एक पहचान यह बतायी गयी थी कि उसके पास गुरुदारा था। काज़मी साहब ने एक बूढ़े दुकानदार से गुरुद्वारे के बारे में पूछा तो उसने कहा, ”हाँ यहाँ, इधर एक छोटा-सा गुरुद्वारा हुआ तो करता था।“
”अब कहाँ है?“ मैंने पूछा।
”अब?“ उसने मेरी तरफ़ देखा।
”धीरे-धीरे गिरता चला गया था, फिर लोगों ने उसका मलबा हटा कर दुकानें लगा लीं।“
हम लोग जहाँ गुरुद्वारा हुआ करता वहाँ आये और पास वाली पहली गली में घुसे। उमेश जी ने लिखा था, दो मंज़िला मकान था जिसमें बारह कमरे थे। मुझे जो भी दो मंज़िला बड़ा मकान मिला। मैंने तस्वीर खींच ली। सोचा इन्हीं में से कोई होगा और पुष्पा जी अपने नाना का घर पहचान लेंगी। एक गली के दो मंज़िला मकानों की तस्वीरें लेकर मुझे संतोष नहीं हुआ। मैं पास की दूसरी और तीसरी गली के सभी दो मंज़िला मकानों को कैमरे में कै़द कर लिया।
रात का खाना-वाना खाकर कमरे में लेटा ही था कि शाकिर साहब का फोन आ गया। इधर-उधर की बातचीत के बाद कहा, ”कल की ट्रेन से आपका कराची जाने का टिकट करा दें।“ मुझे कुछ हैरत हुई। फिर सोचा क्या जल्दी है कि मैं मुल्तान एक ही दिन बाद छोड़ दूँ? फिर सोचा हो सकता है ‘मोहफिज़ों’ का दबाव हो। मैंने कहा, शाकिर साहब मैं कल ही तो आया हूँ। अभी मुल्तान ठीक से देखा तक नहीं...अगर कल मैं कराची चला जाता हूँ तो यहाँ आने की कोई ज़रूरत ही न थी और फिर मैं बूढ़ा आदमी हूँ। इतना स्ट्रेन नहीं ले सकता।“
ज़ाहिर है मेरे जवाब पर वे क्या कहते। फोन रखने के बाद मैं फिर सोचने लगा कि यह मसला क्या है।
रात का ग्यारह बज चुका था। कुछ पढ़ रहा था कि अचानक किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। दिल में सौ तरह की बातें आने लगीं लेकिन दरवाज़ा तो खोलना ही था। सामने मुल्तान पत्राकार संघ के महामंत्राी रज़ी साहब खड़े थे जिनसे मैं पहले दिन ही मिल चुका था।
”प्रेस क्लब चलेंगे।“ उन्होंने मुझसे पूछा।
”अभी।“ मैंने हैरत से कहा।
”हाँ...यहाँ क़रीब ही है।“
”प्रेस क्लब कितने बजे तक खुलता है?“ मैंने पूछा।
”पूरी रात।“ वे बड़े आत्म विश्वास से बोले।
”पूरी रात?“
”हाँ, पूरी रात।“ उन्होंने दोहराया।
”इसका मतलब हुआ चैबीस घंटे।“
”हाँ...पूरे दिन तो खुला ही रहता है।“
”मैंने ज़िंदगी में बहुत कम प्रेस देखे हैं...लेकिन शायद.....।“
हम बाहर निकल आये। सड़क पर बिल्कुल सन्नाटा तो नहीं था लेकिन ट्रैफिक बहुत कम हो गया था। प्रेस क्लब तक जाने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। यह एक ख़ासी बड़ी, नयी बनी इमारत थी। इसके कम्पाउंड में कारें और बड़ी तादाद में मोटरसाइकिलें खड़ी थीं।
अन्दर एक बड़े से हाॅल में बड़े साइज का टीवी चल रहा था। इधर-उधर सोफे पड़े थे जिनमें पत्राकार पसरे पड़े थे या चाय पी रहे थे। हाल से निकल कर हम दूसरे कमरे में आ गये क्योंकि हाल में टीवी की आवाज़ ख़ासी ऊँची थी।
”पहले तो ये बताइये कि यहाँ का प्रेस क्लब पूरी रात क्यों खुलता है?“ मैंने पूछा।
”जो जर्नलिस्ट रात की शिफ्ट में आते हैं वे पहले यहाँ आ जाते हैं, यहाँ बैठते हैं, यही से अख़बार के दफ़्तर चले जाते हैं। जिनकी शिफ़्ट रात में ख़त्म होती है वे भी यहीं चले आते हैं।“ ”वे रात में घर क्यों नहीं जाते?“
”कुछ के घर शहर से दूर है...कुछ आसपास के कस्बों से आते हैं।“ रज़ी साहब बोले। मुझे लगा असली बात वे छिपा रहे हैं। वह शायद यह है कि पत्राकारों का रात के समय अकेले घर जाना ख़तरनाक साबित हो सकता है।
कुछ और पत्राकार भी आ गये। भारतीय पत्रकार जगत और पाकिस्तान पत्रकार जगत की चर्चा होने लगी। उन्हें यह जाकर आश्चर्य हुआ कि भारत में पत्रकारों को इतनी ‘मोटी-मोटी’ सैलरी मिलती है। फिर बात होने लगी अख़बारों के दामों पर। मैंने लाहौर की अनारकली बाज़ार के मोड़ पर जब अख़बार ख़रीदे थे तो बड़ी हैरत हुई थी। अपनी भारतीय आदत के मुताबिक मैंने पाँच-छह अख़बार और दो-तीन पत्रिकाएं ख़रीद ली थीं। अख़बार वाले से पैसे पूछे तो उसने आठ सो रुपये बताये थे।“
”आठ सौ!“ मैं हैरान रह गया था।
बाद में पता चला था कि पाकिस्तान में अख़बार बहुत महँगे हैं। किसी अख़बार का दाम पच्चीस रुपये से कम नहीं है। पत्रिकाएँ ढाई-तीन सौ रुपये की आती हैं। ऐसा क्यों है, बताते हुए लोगों ने कहा था पाकिस्तान के अख़बारों को उतना विज्ञापन नहीं मिलता जितना भारत के अख़बारों को मिलता है। अब सवाल यह है क्यों? उसका जवाब यह दिया गया कि व्यापार, उद्योग, मंडी, मार्केट जितनी बड़ी भारत में है उतनी बड़ी पाकिस्तान में नहीं है। इसलिए पाकिस्तान में विज्ञापन व्यवसाय उतना विकसित नहीं है, जितना भारत में है।
यहाँ बातचीत से यह भी पता चला कि भारत में पत्राकार जिस तरह सरकार से सुविधाएँ प्राप्त करते हैं, वैसी यहाँ नहीं मिलतीं।
रात एक बजे के करीब रज़ी साहब ने होटल पहुँचा दिया। मुझे अच्छी तरह से पता लग गया था कि भारत और पाकिस्तान में पत्रकार होने का एक मतलब नहीं है। हालाँकि दोनों जगह समानताएँ हैं लेकिन पाकिस्तान का पत्रकार भारत के पत्रकार की तुलना में ज़्यादा असुरक्षित है। अन्तर्राष्ट्रीय संस्था ‘कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट’ की ताज़ी रिपोर्ट के अनुसार 1992 से लेकर 2010 तक पाकिस्तान में 39 पत्राकारों की हत्याएँ की गयी हैं। भारत में यह संख्या 27 है। पाकिस्तान के मानव अधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2009 में ही सात पत्रकारों की हत्याएँ हुई थीं। पाकिस्तान में मीडियाकर्मियों के अपहरण, कातिलाना हमलों, मारपीट, धमकियों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। सन् 2009 में ही 163 मीडियाकर्मियों को प्रताड़ित किया गया था। पंजाब में 54, सरहदी सूबों में 52, इस्लामाबाद में 28 बिलोचिस्तान में 03 मीडियाकर्मियों पर हमले किये गये थे।
बिलोचिस्तान में अख़बारों के दफ़्तरों को पुलिस तथा अर्ध सैनिक बल घेरे रहते हैं। 2009 में उर्दू डेली ‘असाप’ ने घोषणा की थी कि वह अपना प्रकाशन बंद कर रहा है क्योंकि दो सप्ताह तक सुरक्षा बलों ने अख़बार के आॅफिस में आने जाने वालों की तलाशी और पूछताछ का ऐसा अपमानजनक चक्र चलाया था कि अख़बार को अपना बोरिया बिस्तर बाँधने का फैसला करना पड़ा था। ‘आज़ादी’ अख़बार के दफ़्तर के बाहर भी यही हाल था। इन अख़बारों को सरकारी विज्ञापन रोक दिये गये थे। जबकि उनका सर्कुलेशन बहुत ज्यादा था। पाकिस्तान मानव अधिकार आयेग ने अपनी 2009 की रिपोर्ट में विस्तार से पत्राकारों पर किये गये हमलों का विवरण दिया है, जो अकल्पनीय लगता है।
जारी
पहला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: हिंदी के एक भारतीय लेखक जब पहुंचे पाकिस्तान, तो क्या हुआ पढ़िये दमदार संस्मरण
दूसरा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: पड़ोसी देश में भारतीय लेखक को जब मिल जाता कोई हिंदुस्तानी
तीसरा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: आतंकवाद और धर्मान्धता की जड़ है- अज्ञानता और शोषण
चौथा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: हिन्दू संस्कारों की वजह से मैं अलग प्लेट या थाली का इंतज़ार करने लगा
पांचवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: दरवाज़े पर ॐ लिखा पत्थर और आंगन में तुलसी का पौधा
छठवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: पत्थर मार-मार कर मार डालने के दृश्य मेरी आँखों के सामने कौंधते रहे
(असग़र वजाहत महत्त्वपूर्ण कहानीकार और सिद्धहस्त नाटककार हैं। इन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। ये दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं। संप्रति स्वतंत्र लेखन )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।