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समाजवादी-ललक-़19: लोहिया का व्यक्तित्व जटिल, पेचीदा और अनिश्चित सा लगता रहा

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भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अहम व्यक्तित्व से फॉलोअप रुबरू कराना चाहता है। साबरमती का संत नाम से 50 क़िस्त के मार्फत महात्मा गांधी को समझने की कोशिश की गई थी। वहीं सदी के महाचिंतक स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित करीब 20 क़िस्त भी आपने पढ़े होंगे। धुर समाजवादी लीडर डॉ .राम मनोहर लोहिया के बारे में आप गांधीवादी वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी की क़लम से नियमित पढ़ रहे हैं। आज पढ़िये 19वीं क़िस्त-संपादक

कनक तिवारी, रायपुर:

लोहिया के व्यक्तित्व में विरोधाभास है। ऊपरी तौर पर उनका व्यक्तित्व जटिल, पेचीदा और अनिश्चित सा लगता रहा। अपनी युवावस्था में अलबत्ता लोहिया विनम्र, मितभाषी और जिदरहित दिखाई देते हैं। बाद में खासतौर पर आजा़दी के संघर्ष में कड़ी यातना झेलते, अंगरेजों की जेलों में यातनाएं सहते और आजादी के बाद निजाम का अवाम के साथ गैरजिम्मेदार बल्कि असंवैधानिक रुख देखकर लोहिया के व्यवहार में चिड़चिड़ापन, आक्रोश और कठोरता के साथ विरोध करने का सैलाब उमड़ने लगता था। वे इन दिनों बेचैन और अधीर होने के साथ तुनकमिजाज भी हो चले थे।  किसी व्यक्ति के चरित्र को बताने के लिए अमूमन व्यक्तित्व के तयशुदा फ्रेम होते हैं। उनमें किसी चौखटे में लोहिया की तस्वीर नहीं डाली जा सकती। ऐसे कई वक्त आए हैं जब वे उदास, अवसाद भरे, एकाकी और निराश भी दीखते रहे। तब भी उन्होंने ‘निराशा के कर्तव्य‘ जैसा बहुमूल्य निबंध आस्था की रोशनाई से लिखा। कई तरह के सामाजिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक बंधनों के मद्देनजर आजाद ख्याल के लोहिया किसी पिंजड़े में बंद किए जाने जैसा आत्मबोध उजागर करते रहे। वैसे क्षण भी लेकिन उनकी निर्मिति के ताजातरीन आयामों को उद्घाटित करते थे। 

 

लोहिया व्यावहारिक राजनीति के खिलाड़ी होने के बावजूद आदर्शवादी राजनीतिज्ञ ही थे। उनके जीवित रहते ही बीसवीं सदी में राजनीति व्यवसायवादी होती गई। इससे भी लोहियाई आदर्श राजनीतिक जीवन के आचरण में वांछित उम्मीद में अमल में नहीं आ सके। लोहिया में मुफलिसों के लिए संवेदना और सहानुभूति और तल्खी घनीभूत होती गई थी। तेजी से इन्कलाबी बदलाव लाये जाने की अपनी नाकामियों के अहसास ने भी उन्हें परले दर्जे का जिद्दी, सनकी और अड़ियल भी प्रचारित कर दिया था। लोहिया में दरअसल करुणा का झरना प्रवाहित होता रहता था लेकिन उनमें आक्रोश जाहिर करने की भी जबरदस्त क्षमता थी। अतीत को बूझकर अपने सोच में आत्मसात करने उनमें नायाब इतिहास-दृष्टि और बौद्धिक ऊंचाई को नये आयाम देने वाला प्रखर आधुनिक भावबोध भी था। रोज ब रोज के सामाजिक व्यवहार के सिलसिले में उनकी अतिबौद्धिकता और विद्रोही स्वभाव उन्हें कभी कभी बहुत असंतुलित भी कर देते रहे। उनसे बड़ा विवादग्रस्त तथा विवादास्पद लोकधर्मी व्यक्ति भी बीसवीं सदी के राजनीतिक भारत में आसानी से ढूंढ़ा नहीं जा सकता। देश प्रेम, वंचितों से हमदर्दी, समाजवाद के लिए प्रतिबद्धता और सत्ता-विद्रोह के प्रति स्वैच्छिक आचरण उनके जीवन के समीकरण थे।          उनमें हर व्यक्ति से तत्काल घुल मिल जाने की जबरदस्त कूबत थी। यही कारण था कि देश की मिट्टी की ताजगी और महक से गढ़े हुए इस ‘खास‘ हो गए आदमी का ‘आम‘ आदमियों से जानदार स्नेह का वास्ता था। लोहिया महज व्यक्ति नहीं, मानवीय चेतना के प्रतिनिधि अंश भी हो रहे थे। संवेदनाएं भविष्य की सिसकियों में पूछती रहेंगी-‘डाॅ. लोहिया, तुम कहां हो‘?

 

राजनीति को लोहिया का अवदान महत्वपूर्ण होने पर भी तुलनात्मक लाक्षणिकताओं और परिणामों में असरकारक नहीं हो पाया। कई ज्ञात अज्ञात कारणों की पेचीदगियों की वजह से वह हो भी नहीं सकता था। लोहिया सोच की व्यावहारिक फितरत में यूटोपियाई नस्ल की वाचालता के लक्षण झिलमिलाने लगते थे। इस जननेता को यथार्थ की कड़ियल धरती पर जद्दोजहद करते देखने के बाद भी लोग उसे किसी स्वप्न महल का नियंता समझने लगते थे। जनधारणा में राजनीति तो ठर्र किस्म की इन्सानी फितरत ही समझी जाती है। राजनीतिज्ञों का खुदगर्ज मकसद सत्ता पर बैठकर ऐंठना, इतराना और दौलतपरस्ती की अजीर्ण होने तक लूटखसोट करना भी होता है। उत्तर-गांधी युग में लगातार यही हो ही रहा है। कई बड़े नेता इस भूलभुलैया में आज भी नीयतन आत्ममुग्ध हैं। बर्तानवी नस्ल के सिस्टम के कोल्हू के बैलों को लगता है वे मंजिल तक पहुंच रहे हैं। दरअसल वे सिस्टम द्वारा खींची गई परिधि में चकरघिन्नी की तरह घूमते वायदों की जिन्सों से तेल तो उद्योगपतियों के लिए पेर रहे हैं। जिन्सों से बची वायदाखिलाफी की खली, भूसी, चूनी, चारा वगैरह आंखों पर पट्टी बंधी जनता को कीड़े और इल्लियां भी खिला रहे हैं। जनता मिलाकर नेताओं को रोक भी नहीं पाती। वह पांच पांच साल में प्रतिनिधियों को चुन लेने भर को लोकतंत्र का अधिकार क्या हथियार समझे गफलत में जी रही है। राजनेताओं के भद्र सामंती दिखाऊ आचरण में बाजारू खरीद फरोख्त की फितरतें अकड़ती भी रहती हैं। उनमें मानवीय, शैक्षिक, कलात्मक और  सांस्कृतिक बोध की भ्रूण हत्या भी हो चुकी होती है। अन्यथा उन जीवन्त तत्वों के  कारण ही कोई देश अपने मुकाम तक पहुंचने की जुगत करता है। (कल आखिरी किश्त होगी।)

 

(जारी)

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।