भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अहम व्यक्तित्व से फॉलोअप रुबरू कराना चाहता है। साबरमती का संत नाम से 50 क़िस्त के मार्फत महात्मा गांधी को समझने की कोशिश की गई थी। वहीं सदी के महाचिंतक स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित करीब 20 क़िस्त भी आपने पढ़े होंगे। धुर समाजवादी लीडर डॉ .राममनोहर लोहिया के बारे में आप गांधीवादी वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी की क़लम से नियमित पढ़ रहे हैं। आज पढ़िये 13वीं क़िस्त-संपादक
कनक तिवारी, रायपुर:
स्त्री को अपनी मंज़िल तक पहुंचने के सभी आयाम उन्होंने अपने चिंतन में उकेर दिए थे। उनके लिए स्त्री होने का अर्थ एक ऐसी सर्वसंभावना संपन्न औरत से था, जो ज़रूरत पड़ने पर पुरुषों को मात देते इतिहास का बोझ अपने कंधों पर उठा ले। रंगभेद की दुनिया के सौंदर्यात्मक अत्याचारों और गोरों के व्यभिचारों से पीड़ित सांवली बल्कि काली स्त्री को लोहिया ने आदर देने जेहाद छेड़ा। उन्होंने जोर देकर कहा, गोरी के मुकाबले सांवली स्त्री में कुदरती लावण्य, यौन शुचिता और असीम प्रेम करने की अपूर्व गुंजाइशें होती हैं। नृतत्व शास्त्र के किसी सिद्धांत का उल्लेख किए बिना लेकिन उन्हें जानते हुए लोहिया ने मनुष्य की अभिव्यक्ति की प्रेम व्याख्याओं में ऐसी समझ विकसित की कि स्त्री विरोधी सौंदर्यशास्त्र की प्रचलित पुरुष अवधारणाओं को खामोश होकर हथियार डालने पड़े।
आज भी नारी अधिकारों को लेकर जो सार्वजनिक बहसें चल रही हैं। लोहिया ने ही उनकी शुरुआत सुरंग में बारूद रखकर कर दी थी। अब उसका दुहराव भर हो रहा है, लेकिन फिर भी ढीला ढाला, फीका और लगभग बेमन से। इतिहास की लेकिन वह मजबूरी हो चुकी है। लोहिया ने अद्भुत वाक्य कहा था कि इतिहास में नारी अगर नर के बराबर हुई है, तो केवल ब्रज में और वह भी कान्हा के पास। कृष्ण को केन्द्र में रखकर उनके सामने अपना संपूर्ण नारीत्व उघाड़ती द्रौपदी और वृन्दावन में अपराध बोध रहित होकर, राधा- ये दोनों किरदार पारम्परिक समझ के प्रचलित यौन-समीकरणों के परे हो गई थीं। लोहिया ने कहा पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक जिसे ‘अवरुद्ध रसिकता‘ के नाम से जानते हैं, वह ग्रंथि तक महाभारत काल की इन महान नायिकाओं के जेहन में नहीं थी। स्त्री पुरुष के ऐसे संबंधों का कोई छोर या अंत नहीं होता। वह अनंत हो चुका ही प्रजनित होता है।
नारी के लिए लोहिया के मन में आदर देने की ललक थी। वे पूरी दुनिया लेकिन भारत में ज़्यादा नर नारी की गैरबराबरी को लेकर परेशान थे। उनकी तयशुदा मान्यता थी कि नारी शारीरिक ताकत में तो पुरुष से कमज़ोर होती है। इसलिए उसे विशेष अधिकार और सुविधाएं समाज में मिलनी ही चाहिए। भारतीय नारियों की पश्चिमी वेशभूषा और फैशन तथा खूबसूरत दिखने के ठनगन और जतन के कई असंगत तौर तरीकों के प्रति लगाव से लोहिया नाखुश भी होते थे। उनकी सपाट राय थी कि समाज के संतुलित विकास के लिये नारी को संगठनात्मक, तालीमी और प्रशासनिक जिम्मेदारियों को लेकर ज्यादा जगहें और अधिकार दिए जाएं। मधु लिमये ने स्वीकार किया है कि ‘‘लोेहिया स्त्री-पुरुष समानता के बड़े समर्थक थे। किन्तु उनके जीवन में समाजवादी कभी एक स्त्री कार्यकर्ता को लोकसभा तक नहीं पहुंचा सके।‘‘ समझना मुश्किल होता कि स्त्री के प्रति भद्रता उनमें अंतर्निहित हो गई थी अथवा उसके लिए अनजाने में मनोवैज्ञानिक प्रयत्न होते थे। लोहिया में तहजीब का सम्मिश्रण बनारस और बर्लिन की पढ़ाई से संयुक्त रूप से उपजा। वह परंपरा में आधुनिकता और आधुनिकता में परंपरा की खोज करने जैसे मानव विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम की तरह समझा और पढ़ा जा सकता था।
(जारी)
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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।