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समाजवादी-ललक-़14: जातिवाद से लोहिया को सिर्फ सबसे अधिक परहेज़ ही नहीं था, बल्कि नफरत थी

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भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अहम व्यक्तित्व से फॉलोअप रुबरू कराना चाहता है। साबरमती का संत नाम से 50 क़िस्त के मार्फत महात्मा गांधी को समझने की कोशिश की गई थी। वहीं सदी के महाचिंतक स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित करीब 20 क़िस्त भी आपने पढ़े होंगे। धुर समाजवादी लीडर डॉ .राममनोहर लोहिया के बारे में आप गांधीवादी वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी की क़लम से नियमित पढ़ रहे हैं। आज पढ़िये 14 वीं क़िस्त-संपादक

कनक तिवारी, रायपुर:

जातिवाद की समस्या से लोहिया को सबसे अधिक परहेज था, बल्कि नफरत थी। वह राज्य शक्ति के अहंकार को भी जातीय हिंसा से जोड़ने के अनोखे अन्वेषक थे। ऐसा नहीं है कि लोहिया और उनकी वैचारिकता को सत्ताशीनता की अनुकूलता से प्रतिरोध, विसंगति, विषमता या अनिच्छा रही हो। गांधी की तरह के बड़े नेता बनने की दमित महत्वाकांक्षा भी यदि उनमें रही हो या पनपना चाहती रही हो तब भी लोहिया की प्रकृति में कोई बनावटीपन नहीं था। उनमें एक साथ देश के कई बड़े नेताओं का उभयनिष्ठ सोच गहरा गया था। ज्या़दा से ज्या़दा लोगों को ज्या़दा से ज्या़दा वैचारिक कार्यक्रम और मुद्दों पर एक साथ लोहिया संबोधित करना चाहते थे। एक तरह से उन्हें बहुत व्यग्रता और बहुत जल्दी भी थी। जाति प्रथा के लोहिया जानी दुश्मन थे। भाषणों, लेखों, चिंतन और कर्म के जरिए उन्होंने धर्म, इतिहास, संस्कृति, समाज, राजनीति सभी कसौटियों पर कसकर उसे एक खोखली, जंगली और वहशी प्रथा घोषित किया।

लोहिया के निकटतम सहयोगी राजनारायण ने भारतीय जातिवादी समस्या और वर्गविहीन समाज की मार्क्सवादी रचना के आदर्शों को लोहिया की दृष्टि से खंगालते हुए कहा है ‘‘समता को साकार और सगुण करने के तर्क को वे आगे ले जाते थे और भारतीय समाज में जो जातीय आधार पर एक बहुत बड़ा हिस्सा पिछड़ा और अछूत जातियों का है, उसे हर दृष्टि से उठाने के हेतु विशेष अवसर देने के वे प्रबल समर्थक थे। वे न केवल विधायिका और कार्यपालिका में सठ प्रतिशत स्थान उनके लिए सुरक्षित करने के पक्षधर थे, बल्कि पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में भी वे इस सिद्धान्त का अनुपालन करने का आग्रह रखते थे। जिन वर्गविहीन समाज की रचना का आदर्श कार्ल माक्स ने अपने कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में स्थापित किया था उसे डाॅ. लोहिया ने भारतीय समाज के सन्दर्भ में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की संज्ञा से अभिहित किया था। वे जाति को वर्ग का गतिहीन रूप और वर्ग को जाति का गतिशील रूप मानते थे। उनका कहना था कि वर्ग ही कालांतर में रूढ़ होकर जाति बन जाता है। अतः समता स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि जातियों को तोड़ा जाये।‘ इस कार्यक्रम को चलाने के लिए उन्होंने अलग से ‘जाति तोड़ो सम्बोधन‘ का संगठनात्मक ढांचा खड़ा किया था।‘‘ 

 

 

लोहिया रंग भेद के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने मनुष्य विरोधी इस वहशी प्रथा पर आर्थिक, राजकीय, श्रृंगार शास्त्र तथा सौन्दर्य शास्त्र के नजरिए से भी विचार किया था। उन्हें इस पर गहरा एतराज था कि गोरी जातियों को गैरमानवीय आधारों पर सुन्दर और कुलीन मान लिया गया है। उनका सीधा तर्क है कि प्राचीन सभ्यताओं वाले मिश्र और भारत आखिर सांवली जातियों के ही देश हैं। कवियों और चित्रकारों के उदाहरण देकर तर्क किया कि विशुद्ध कलात्मक स्तर पर तो जातीय सीमाएं खत्म हो जाती हैं। आर्थिक गैरबराबरी के खिलाफ लोहिया ने अकेले जितना संघर्ष किया, उतना कई नामधारी संस्थाएं नहीं कर सकीं। उन्होंने शोषक गैरबराबरी की फकत जबानी आलोचना ही नहीं की, बल्कि उसके समाधान के लिए रचनात्मक समाजवादी आर्थिक सिद्धांतों और कर्म करते रहने का ऐलान दुनियावी ज्ञान के हवाले किया।

(जारी)

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।