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विवेक का स्वामी-19: मुझे फौलाद की देह और वैसी ही धमनियां और नसें चाहिए

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कनक तिवारी, रायपुर:

यह बिल्कुल पारदर्शी्, स्वाभाविक और जाहिर है कि अमेरिका और यूरोप में रहकर विवेकानन्द ने मातृभूमि के सबसे पुराने विश्व धर्म के संबंध में उग चुकी भ्रांतियों पर दोषारोपण करने की वृत्तियों का पर्दाफाश कर उन्हें दूर किया। अन्य किसी धर्म के स्वधर्म नहीं होने पर ऐसा नहीं कर सकते थे फिर भी समाज सेवा के कंटूर धर्म के चेहरे पर उगाए। तब वह समाजसेवा केवल हिंदू के लिए नहीं पूरे भारत के लिए थी। वहां पर हिंदुओं को श्रेष्ठता दिए जाने का सवाल उनकी नजर में नहीं था। यही कारण है सनातन या भारतीय धर्म के सर्वोच्च नैतिक, आध्यात्मिक और अकादेमिक चेहरे को लेकर तो विवेकानन्द को हिंदू धर्म का सबसे उर्वर प्रवक्ता कहा जा सकता है। लेकिन भारत बल्कि इंसानियत की सेवा करने का उनका मकसद और एजेंडा देश के हर आदमी के लिए था। हिंदू को वरीयता, प्राथमिकता या श्रेष्ठता का अहसास उन्होंने कभी नहीं कराया। 

रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द द्वारा स्थापित संस्था है। इसलिए उनकी वैचारिकी की उत्तराधिकारी है। विवेकानन्द के जीवन-संदेशों का प्रचार भद्रता और साधुता के बुनियादी अवयवों का परचम हाथ में लेकर संस्था करती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों ने विवेकानन्द को ब्लैंक चेक समझकर उनके आदर्शों और विचारों और हिंदू धर्म के प्रति उनकी अवधारणाओं का राजनीतिक नकदीकरण करने में कोताही नहीं की, बल्कि सियासी कुशलता बरती है। उन्होंने विवेकानन्द साहित्य का जनवादी अध्ययन, उस पर सार्वजनिक विचार विमर्श, उसकी समाजमूलक व्याख्या और उसे जनउपयोगी साहित्य के जरिए प्रचारित करने में दिलचस्पी नहीं ली। ऐसा करने से हिन्दुत्व की उनकी समझ की लोक छवि को जनमानस द्वारा सम्भावित अनुमोदन नहीं करने की संभावना लगी होगी। इसलिए उन्होंने विवेकानन्द की दुनियावी दैहिक व्यक्तित्व को उनका प्रतिनिधि प्रतीक बनाते युवकों का रूमानी आइकॉन बना दिया। उन्हें बार बार बात याद दिलाया कि विवेकानन्द मजबूत भारत चाहते थे। इसलिए देश स्वस्थ हो तो युवकों के लिए यही आवश्यक है कि उनमें मातृभूमि की भक्ति के लिए स्वस्थ शरीर की पर्याप्त योग्यता हो।

वेद पुराण, गीता वगैरह के मुकाबले फुटबॉल खेलने की सलाह विवेकानन्द ने खास संदर्भों में दी थी। उसे विकृत कर देने से विवेकानन्द का दैहिक चेहरा तो देश का अभीष्ट नहीं है। मुझे फौलाद की देह और वैसी ही धमनियां और नसें चाहिए-यह विवेकानन्द ने जिस आध्यात्मिकता की तासीर के संदर्भ में कहा था, उसका प्रचार विवेकानन्द को हिंदुत्व का प्रतीक बनाने की कोशिश करते दैहिक, दैविक, भौतिक ताप के अर्थों में करने लगते हैं।

हिंदू राष्ट्रवाद की परिकल्पना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार की मौलिक उपज नहीं है। इसकी परिभाषा और फलक बनाने में विनायक दामोदर सावरकर के हिंदुत्व संबंधी विचारों और उनके भी लगभग गुरु रहे बी. एस. मुंजे के समानांतर फलसफा को पढ़ने समझने और हृदयंगम से हुई।  बाल गंगाधर तिलक को भी उनका प्रेरक माना जा सकता है। वे विवेकानन्द के बहुत नजदीकी रहे हैं। छात्र जीवन में कोलकाता में अरविंद घोष और बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के कथित राजनीतिक राष्ट्रवाद से भी हेडगेवार प्रभावित रहे। विवेकानन्द का राष्ट्रवाद पूरी तौर पर संघ के सैद्धांतिक सोच और रणनीतिक क्रियात्मकताओं के खांचे में फिट नहीं बैठता। इसलिए राष्ट्रीय स्वयं संघ को विवेकानन्द से मूल नहीं, अतिरिक्त लगाव है। मुख्यतः सावरकर तथा उसी तरह के अन्य संकीर्ण कट्टरवादी हिंदुत्व विचारकों का सोच ही उनका बुनियादी वैचारिक प्रतिफलन है।

हेडगेवार के उत्तराधिकारी माधव सदाशिव गोलवलकर बेहतर, व्यवस्थित, गंभीर और अध्यवसायी विचारक लगते रहे। भले ही उनकी हिंदुत्व की दृष्टि में कई बार सावरकर की दृष्टि से टकराव होता भी कई विचारकों ने ढूंढा है। गोलवलकर को शुरू में निजी आध्यात्मिक उपलब्धि पाने की इच्छा रही है। कई कारणों से वह संघ का काम एक बार छोड़कर चले भी गए। दोबारा पूरी उम्मीदों और दृढ़ता के साथ लौटे। विवेकानन्द से प्रभावित होकर गोलवलकर ने विवेकानन्द के शिकागो व्याख्यान का मराठी में अनुवाद प्रकाशित किया। बाद में ‘वी  अवर नेशनहुड डिफाइंड‘ नामक प्रसिद्ध पुस्तिका लिखी। उन्होंने रामकृष्ण मिशन के हिंदू धर्म संबंधी कुछ विचारों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार समुच्चय में बहुत चतुराई के साथ शामिल कर लिया। संघ ने भी गृहत्यागी किस्म के प्रचारकों के जरिए अपने विचार फलक का कार्यक्रम, प्रचार प्रसार और संगठनात्मक फैलाव की तकनीक विवेकानन्द से भी प्रेरित होकर अडॉप्ट की।( कल आखिरी किस्त )

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(स्वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।