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विवेक का स्‍वामी-4: धार्मिक निजी पहचान क़ायम रखते हुए भी परस्‍पर धर्मों में आपसी सहकार संभव

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कनक तिवारी, रायपुर:

अप्रत्यक्ष रूप से वैसे तो भारतीय संविधान विवेकानन्द की बहुत सी सामाजिक अवधारणाओं का अनजाना समर्थक दस्तावेज़ लगता है। ज्ञान के कई आयामों में पारंगत दखल देने के बावज़ूद वैश्विकता की आवाज होकर भी विवेकानन्द शत-प्रतिशत भारतीय थे और निष्कपट देशभक्त। दरअसल उनके विचार और कर्म अपने समय के आगे आगे चल रहे थे। हिन्दुओं का बड़ी संख्या में ईसाई धर्म में अंतरण कराना उन्हें सख्त नापसंद था। कई आलिम-फाजिल और अभी हिन्दू यूरोपीय जीवन शैली के प्रति आकर्षित होने के कारण स्वेच्छा से ईसाई बन रहे थे। विवेकानन्द ऐसे प्रबुद्धजनों द्वारा दुनियावी लालच के शिकार होने से सायास धर्म परिवर्तन के कटुतम आलोचक थे। श्रीरामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द की हिन्दू धर्म संबंधी मुख्य अवधारणाएं लकीर की फकीर की तरह नहीं हैं। उन्होंने प्राचीन सनातन आध्यात्मिक विश्वासों को बिना चोट पहुंचाए अपनी समावेशी समझ की आत्मिक शब्दावली में रूपान्तर किया। ये दोनों विचारक धर्म की औपचारिकताओं, कर्मकांडों, रूढ़ियों, मैनेजमेन्ट और दिखाऊ लोकाचार से बचते हिन्दू या सनातन धर्म के केन्द्रीय तत्व की आध्यात्मिकता के तंतुओं को अपनी नजर और समझ से व्यवस्थित, विकसित और विन्यस्त करने के उन्नीसवीं सदी के सबसे अलग और अनोखे मानव विज्ञान के खोजियों में सुविचारित रूप से सुरक्षित हैं। आज भी रामकृष्ण मिशन के साधुओं के शिक्षण, व्यवहार और आचरण में हिन्दू धर्म के व्यावहारिक ढकोसलों के प्रति समर्पण नहीं है। 

 

 

विवेकानन्द ने धर्म को आडंबरों से बार-बार मुक्त करने की जिरह करते सेक्युलर नस्ल के इहलौकिक आदर्शों के अमल से अपने राजनीतिक दर्शन को समझाने का साक्ष्य दिया है। उन्हें धार्मिक अंधविश्वास या स्वर्ग जैसे सुपरनैचुरल से लगातार गहरी नफरत रही है। धार्मिक कूपमंडूकता से टकराते कई बार विवेकानन्द मिथकों को खारिज करते बल्कि नास्तिक होते लगते विचारों को भी अपनी चिन्तन परिधि से बाहर नहीं करते। अपने शुरुआती क्रांतिकारी जीवन की अनपेक्षित नाकामियों के बाद विवेकानन्द समय के प्रवाह और संयोग के कारण भी अपने गुरु श्रीरामकृष्णदेव से दीक्षित होकर आध्यात्मिक प्रचारक का मुखौटा लगाकर एक मानव विश्वविद्यालय ही बन गए। विवेकानन्द ने जिस तरह का समाज बनाने का आह्वान किया था, वह किसी औपचारिक संगठन या सियासी विचार आंदोलन के अभाव में आखिरकार दक्षिणपंथी तत्वों द्वारा तरकीब से हाइजैक कर लिया गया है। कम लोगों को मालूम होगा कि विवेकानन्द के आध्यात्मिक प्रवचनों की महफिल में सभी मजहबों की प्रार्थनाओं को शामिल किया जाता रहा है। राजस्थान में ऐसी ही एक आत्मिक बैठक उनके लिए एक मौलवी ने आयोजित की और अपने दोस्तों, परिचितों को बुलाया। ठसाठस भरे कक्ष में विवेकानन्द ने अपने प्रवचन के पहले उर्दू गज़लें, हिन्दी भजन, बांग्ला कीर्तन, विद्यापति, चंडीदास और रमाप्रसाद की रचनाएं, वेदों और उपनिषदों के श्लोक, बाइबिल, पुराण के उद्बोधन, बुद्ध, शंकर, रामानुज, गुरुनानक, चैतन्य, तुलसीदास, कबीर और श्रीरामकृष्णदेव सहित कई महापुरुषों की शिक्षाएं और सूक्तियां भूमिका के बतौर शामिल कीं। (दि लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानन्द पृष्ठ 265)। 

’धार्मिक समन्वय’ विषय पर लिखते हुए विवेकानन्द ने ’डेट्रायट फ्री प्रेस’ के 14 फरवरी 1894 के अंक में कहा है-" मेरा धर्म हिंदू धर्म है। हम कभी धर्म प्रचार का कार्य नहीं करते। हम अपने धर्म के सिद्धांत दूसरों के ऊपर लादने की चेष्टा नहीं करते। दूसरों की विचारधारा को अपनी जैसी बनाने की कोशिश में तत्पर रहने वाले धर्म प्रचारक हमारे पास नहीं हैं। हमारा धर्म अधिकांश धर्मों से पुराना है और ईसाई मत -मैं इसे इसकी जद्दोजहद करने की विशेषताओं के कारण धर्म नहीं कहता -यह सीधे हिंदू धर्म से प्रादुर्भूत हुआ है। यह उसकी शाखाओं में से एक बड़ी शाखा है।’ 

 

30 दिसंबर 1894 को क्लिंटन एवेन्यू पाउच गैलरी में इथिकल सोसाइटी ब्रुकलिन के समक्ष दिए गए अपने भाषण में विवेकानन्द ने कहा था ’यदि केवल एक ही धर्म सच्चा हो और बाकी सभी झूठे। तो तुमको यह कहने का अधिकार होगा कि वह धर्म बीमार है। यदि एक धर्म सच्चा है तो अन्य सभी भी सच्चे होंगे। इस प्रकार हिंदू धर्म उतना ही तुम्हारा है जितना कि मेरा।‘‘ विवेकानन्द कई बार स्पष्ट कह चुके हैं कि सभी मजहबों के आंतरिक तत्वों को एक दूसरे में शामिल करने की जिद, जरूरत या पहल नहीं होनी चाहिए। सबकी धार्मिक निजी पहचान कायम रखते हुए भी धर्मों में आपसी सहकार करना मुमकिन है। उनका कहना था कि सनातन धर्म या वेदान्त में पूरी दुनिया के सभी उपयोगी धर्मतत्वों को स्वीकार लेने की एक पुष्ट परंपरा पहले से ही है।      अन्य धर्मों की वैचारिकी में वेदान्त या हिन्दू धर्म की शिक्षाओं को जबरिया ठूंसने की जरूरत नहीं है। यह तो हिन्दू धर्म प्रचारकों की काबिलियत, बौद्धिकता और उनके लचीले आग्रहों की कशिश पर निर्भर होगा कि दुनिया के तमाम मजहब वेदांत को खुद ब खुद किस हद तक स्वीकार करते हैं। विवेकानन्द ने इसलिए एक ऐसे ईश्वर की परिकल्पना भी की थी जिसे भाषायी कारणों से भले ही हिन्दू धर्म से विकसित प्रतीक सूत्र के रूप में समझाया जाए लेकिन दरअसल वह विश्व धर्म का आशय ही हो सकता है। उसे ईश्वर जैसे शब्द के बदले मात्र एक शब्द ‘ओम्‘ के जरिए अभिव्यक्त करना कठिन नहीं होगा।

( जारी )

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।