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विवेक का स्वामी-18: स्वामी विवेकानंद की अभिनव पहल 

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कनक तिवारी, रायपुर:

भारत अपनी आत्मतुष्टि, बल्कि आत्मपुष्टि में इतना स्वाभिमानी रहा है कि अपने विचारों को न तो किसी अन्य मजहब पर लादना चाहता रहा है और न ही उनके विचारों के प्रचार प्रसार में भौतिक प्रतिरोध उत्पन्न करता रहा है। यदि अन्य मजहब के विचार भारतीय मनीषा में स्वानुभूत होकर जज़्ब हो जाएं तो विवेकानन्द को उससे अनुकूलता है। ऐसा ही करने की वे जीवन भर पैरवी करते रहे हैं। अपनी सैद्धांतिक उत्कृष्टता पर पहुंचने के बाद भी हिंदू धर्म दुनियावी आचरण में पुरोहितशाही का शिकार होकर अधर्मी धर्म भी विवेकानन्द की निगाह में बनता गया है। धर्म अपने व्यवहार और अत्याचार की बानगी में जिस तरह क्रूर होता गया है, उसकी अनदेखी  विवेकानन्द ने नहीं की। वे ऐसी क्रूरता का मुंह नोचने के सबसे बड़े आध्यात्मिक से सिपहसालार भी रहे हैं। अन्य धर्मों के समानांतर हिंदू धर्म भी यदि एक तरह का मजहब समझा जाए, तो उसमें विवेकानन्द के समय तक आते आते जितनी भी धार्मिक स्थापनाएं अंतस्थ हो गई थीं, उन सबका संज्ञान लेना विवेकानन्द के लिए आवश्यक था। तत्प्रचलित हिंदू धर्म मूल सनातन धर्म नहीं था, बल्कि उसमें पिछली कुछ शताब्दियों में बाहर से आए विदेशियों और खासतौर पर मुस्लिम प्रभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती थी। वे भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता के साथ उसमें अंतर्विष्ट हो गए थे। इसीलिए विवेकानन्द ने बारबार हिंदू धर्म की परिभाषा स्थिर की।

हिंदू धर्म वह है जो किसी भी विदेशी आक्रांता के पहले देश में अपनी आध्यात्मिक समझ और धार्मिक ग्रंथों तथा महापुरुषों की शिक्षाओं के प्रतिफलन के संकुल रूप में था। विशेषकर उपनिषदों का दर्शन और वेद वगैरह जिनकी बहुत सी आध्यात्मिक उपपत्तियां कृष्ण ने गीता में सार रूप में संग्रहित कर दी थीं। उसके बाद मध्य युग में भक्तियुगीन कवियों और अन्य समाज सुधारकों तथा जैन, बौद्ध और हिंदू धर्म के आपसी संघर्षों के बाद व्यापक भारतीय मनस्थिति बनी थी। उस संबंधित युगबोध की धार्मिक भावनाओं को विवेकानन्द ने खारिज या  उपेक्षित नहीं किया था। अंततः उन्नीसवीं सदी में हिंदू धर्म को लेकर विवेकानन्द की समझ बनी। उसमें ईसाइयत और इस्लाम के साथ आध्यात्मिक, नैतिक और राजनीतिक स्थिति में भी हो रही छटपटाहट और पारस्परिक आदान प्रदान भी को लेकर उसकी अनदेखी कर विवेकानन्द हिंदू धर्म की संभावनाओं को इतिहास के फलक में टांक नहीं सकते थे।

विवेकानन्द भारतीय नवजागरण के मध्यान्ह का सूर्य हैं। वे अपनी बौद्धिक, आध्यात्मिक और कर्मगत दीप्ति से प्रकाशित होते हैं। उनके शिकागो संबोधन के सौ वर्ष होने पर बहुत सावधानी और चतुराई के साथ एक बार फिर विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार ने विवेकानन्द को अपने विचारों का पूर्ण आत्मविश्वास के साथ अपनी भविष्यमूलक सियासी सम्भावनाओं को ध्यान में रखकर प्रचार कर दिया। ऐसी कोशिशों को पूरी तौर पर रद्द करना भी संभव नहीं है। विवेकानन्द के कथनों में ऐसा बहुत कुछ है जिसे संदर्भ से हटाकर अथवा अलग तरह से व्याख्यायित कर उन्हें हिंदुत्व की अवधारणा के एक बहुत बड़े पोषक संरक्षक के रूप में समझाया और प्रतिष्ठित किया जाने पर मनाही नहीं हो सकती। इसके बावजूद यह समानान्तर या विकल्प में कहना जरूरी होगा कि विवेकानन्द को इतने साधारणीकरण की प्रसरणशीलता में व्याख्यायित करना गंभीर प्रयास नहीं समझा जाना चाहिए। उनमें इतने विरोधाभास, विसंगतियां, विषमताएं और विश्वास के तरह तरह के स्पेक्ट्रम दिखाए जाते हैं कि विवेकानन्द को तटस्थ, वस्तुपरक और आलोचकीय दृष्टि से समवेत रूप में समझ लेना या समझा देना चुनौतीपूर्ण बुद्धिजीविता का कार्य है। विवेकानन्द मौजूदा वक्त में भी तटस्थ दृष्टि से व्याख्यायित नहीं किए जा सके हैं। विपर्यय यह कि आज भी उनके साथ ऐसी ही स्थिति उनके गतिशील होने का भी जीवंत प्रमाण है।

विवेकानन्द के महत्वपूर्ण व्याख्याकार तपन रायचौधुरी के अनुसार उनकी शख्सियत के कम से कम तीन आयाम हैं। वे क्रम से एक के बाद एक अंतर्निभर होते भी अलग अलग विवेकानन्द के त्रिआयामी व्यक्तित्व का उद्घाटन करते हैं। उनकी पहली प्रतिक्रिया या समझ अपने आत्मिक विकास को परिपूर्णता तक पहुंचाने की कशिश रही है। यह अपने गुरु श्रीरामकृष्ण से सीखा। शुरुआत में विवेकानन्द इस अवधारणा से पूरी तौर पर आश्वस्त दिखाई देते हैं। शायद उन्होंने इसे ही जीवन का लक्ष्य समझा। पहली अमेरिका और यूरोप यात्रा के समय विवेकानन्द के व्यक्तित्व का दूसरा आयाम अपने आप उद्घाटित हुआ। यह भारत की समस्याओं को लेकर उनके अंदर व्यथापूर्ण हलचल के चलते कोई रास्ता या हल तलाशने की कोशिश के कारण उनमें अस्तव्यस्त धार्मिक और वेदांत की अवधारणाओं के प्रभाव से अलग तरह की समझ का यौगिक बनता दिखाई देता है। वहां उन्हें भारत-गौरव के बोध से भी खुद को लैस करना पड़ा। तब तक भारत और हिंदू धर्म के संबंध में अमेरिकी ईसाई जगत में एक कुत्सित धारणा घनीभूत हो चुकी थी। उससे दो चार होते विवेकानन्द का तीन वर्षों के अमेरिका प्रवास में इतिहास का नया अध्याय लिखने का प्रारब्ध था। तीसरे उन्होंने एक बेहतर विकल्प ढूंढा। संसार के सभी धर्मों में अंतर्निहित शाश्वत सत्य की खोज में सबको मिल जुलकर कोषिष करते सहकार भी करना चाहिए। ईसाइयत के लाक्षणिक अवयवों की गुणवत्ता के संदर्भ में विवेकानन्द ने हिंदुओं की आध्यात्मिक स्थिति की प्रस्तुति का सर्वश्रेष्ठ अवसर उन्होंने अमेरिका प्रवास में नहीं गंवाया।

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।