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विवेक का स्‍वामी-16:  जब तक देश का एक कुत्ता भी भूखा रहता है, तो उसे खिलाना और उसकी हिफाजत करना मेरा धर्म

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कनक तिवारी, रायपुर:

स्वामी विवेकानन्द को लेकर मेरे सरोकार का एक कारण और भी है। उन्हें भगवाधारी साधु के रूप में प्रचारित कर उनकी संकीर्ण हिन्दू राष्ट्रवादी मार्केटिंग हो रही है। यह कहते हैं कि उन्होंने वेदांत का प्रचार करने से ज़्यादा युवकों को फुटबाॅल खेलने की प्रतीकात्मक सलाह भी दी थी। वेदांत की शिक्षाएं लेना लेकिन उपेक्षित नहीं किया था।  धर्म और अध्यात्म के अलावा सामाजिक जीवन के बाकी क्षेत्रों में धुर दक्षिणपंथी और वामपंथी विचारकों ने भारतीय इतिहास को विवेकानन्द से वंचित रखने की बौद्धिक, सरकारी, पाठ्यक्रमित और गैरनीयतन कोशिशें भी की हैं। अमेरिकी धर्म गुरुओं और राजनेताओं के आचरण पर कड़ी टिप्पणी करने के कारण विवेकानन्द के कालजयी यश को यूरोप और अमेरिका के विद्वान हिन्दू धर्म की चहारदीवारी और उसके विश्व के धर्मों से आध्यात्मिक अंतर्संबंधों के सीमित दायरे में भी देखते हैं। भारतीय बल्कि दुनिया के मुफलिस समाज के लिए किए गए विवेकानन्द के काम को समाजशास्त्रीय बौद्धिक रिसर्च में भी दरकिनार कर दिया जाता है। उनसे प्रभावित भारतीय प्रबुद्ध वर्ग भी शिक्षा, समाजशास्त्र, राजनीतिविज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र और संसदीय संस्थाओं के संदर्भ में विवेकानन्द के उपजाऊ तथा भविष्यमूलक सूत्रों की समझ विकसित करने में अपने पारंपरिक दिमागी ढांचे केे कारण परहेज करता है। 

विवेकानन्द से गौसंरक्षण समिति के एक पदाधिकारी से हुई बातचीत उनकी धर्म दृष्टि और गाय को लेकर दृष्टि के बारे में भी मकड़जाला साफ करता है। यह आजकल हिन्दू धर्मध्वजों ने अपनी आंखों पर स्वेच्छा से आंज रखा है। विवेकानन्द और गांधी ने गाय को कभी भी माता की तरह पूजने का आग्रह नहीं किया। हिन्दू जनविश्वास के अनुसार गाय में माता की छवि का अवलोकन किया जाना तो उनकी सहमति की परिधि में था। उन्होंने पदाधिकारी से समिति के मकसद के बाबत पूछा। संगठन और कामकाज के लिए आर्थिक सहायता कहां से मिलती है? उत्तर वही जुमला था, जो इक्कीसवीं सदी में गोरक्षक और गोगुंडों की गाय थीसिस में आज भी टर्रा रहा है। यही कि एक गोशाला बना दी गई है। वहां बीमार, अनुपयोगी, लावारिस हर तरह की उपेक्षित गायों का इलाज और जीवन रक्षा होती है। इस काम के लिए समाज से दान मिलता रहता है। 

विवेकानन्द ने झल्लाकर कहा मारवाड़ी व्यापारियों से तुम्हें गायों की रक्षा के नाम पर धन मिलता है। तुम्हें मालूम है कि मध्य भारत भयंकर अकाल की चपेट में है। भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार करीब 9 लाख लोग भयंकर भुखमरी का शिकार हैं। गोरक्षण समिति ने मनुष्यों के लिए क्या किया है? जवाब मिला वह तो समिति का काम नहीं है। वह केवल गोमाता की सेवा करती है। यदि लोग अकालपीड़ित हैं तो वह उनका कर्मफल है। उत्तेजित विवेकानन्द ने किसी तरह खुद को काबू किया। कहा ऐसी संस्थाएं मनुष्य के लिए सहानुभूति नहीं रखतीं। भूखों को मुट्ठी भर अनाज देने की उनमें भावना तक नहीं है। वे पशुपक्षियों की सेवा करने को तो धर्म समझते हैं। मैं ऐसी धार्मिक समझ पर लानत भेजता हूं। उन्होंने पदाधिकारी को आड़े हाथों लेते कहा तुम्हारा तर्क मान लिया जाए, तब तो यह स्वयंसिद्ध है कि इन सभी गायों ने पिछले जन्म में ऐसे कर्म किए होंगे कि इस जन्म में इन्हें पशु बनना पड़ा और इनका अंत कभी भी कसाई के हाथों ही होना तय हो चुका था। 

अप्रेल 1897 में ‘हितवादी’ पत्रिका के संपादक और बेहद जागरूक बुद्धिजीवी सखाराम गणेश देउस्कर विवेकानन्द से अपने दो मित्रों के साथ मिले थे। उनमें एक मित्र पंजाब का था। वहां हालात विवेकानन्द की जानकारी के अनुसार चिंताजनक हो रहे थे।  विवेकानन्द ने पंजाब में अनाज की कमी और उच्च वर्गों द्वारा अकिंचनों को शिक्षा दिए जाने तथा अन्य सामाजिक सुधारों को लेकर अपनी चिंता को उजागर किया। विदा लेते वक्त पंजाब के आगंतुक ने विवेकानन्द से कहा कि वह तो उनसे धर्मसंबंधी चर्चा करने आया था, लेकिन विवेकानन्द ने पूरा विमर्श पंजाब की बदहाली पर केन्द्रित कर दिया। इस तरह आज का दिन तो बेकार चला गया।  संजीदा होकर विवेकानन्द ने उस अतिथि से कहा जब तक देश का एक कुत्ता भी भूखा रहता है, तो उसे खिलाना और उसकी हिफाजत करना मेरा धर्म है। इसके अलावा कुछ है तो या वह नकली धर्म है या अधर्म है। वर्षों बाद देउस्कर ने अभिभूत होकर यह संस्मरण दर्ज किया कि ऐसा कहते वक्त विवेकानन्द एक तरह की भावुक देशभक्ति के उन्माद में डूब गए थे। 

यह कड़वा सच है कि हिन्दू मुस्लिम इत्तहाद की आध्यात्मिक कोशिशों की असफलता के बाद विवेकानन्द कैसा हिन्दुस्तान पाते। इस दुर्दशा के विस्तार में जाए बिना गौमाता को बीफ बनाने हिन्दुत्व की हिंसा परवान चढ़ी है। एक ही उदाहरण काफी होगा। दादरी, बसाहड़ा,अखलाक,गोधरा,पहलूखान, व्यक्तिवाचक संज्ञाएं हैं। इन्हें भाववाचक संज्ञाओं की तरह ख्यातनाम कर दिया गया है। हालिया वर्षों में मनुष्य व्याकरण की व्यक्तिवाचक संज्ञाओं को भाववाचक संज्ञाओं, फिर सर्वनाम, फिर विशेषण में तब्दील करने की हिंसात्मक प्रविधि चल रही है। भिवंडी, सहारनपुर, गोधरा, मुजफ्फरनगर, समझौता एक्सप्रेस, ताज होटल वगैरह नफरत और हिंसा के विशेषण प्रतीक हैं। हिंसा, खूंरेजी, हत्या, बलात्कार, फिरौती, अपहरण जैसी पौरुषेय गतिविधियां परत दर परत समाज की चिंता रेखाएं बनकर उसके चेहरे को विकृत कर रही हैं। जमे हुए दूध में खमीर उठाने ‘लव जेहाद‘, ‘घर वापसी‘, ‘हिन्दू औरतों के कम से कम चार बच्चे‘, ‘फतवा‘, ‘काफिर‘, ‘खाप पंचायत‘, ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद‘, ‘पुलिसिया एनकाउंटर‘ जैसी लाक्षणिकताएं कुलबुलाती रहती हैं। संविधान की पंथनिरपेक्षता की न सूखने वाले घाव की पतली पपड़ी उखड़ती रहती है। ठीक नीचे बदबूदार मानसिकता का मवाद दुर्गंध का प्रजनक होता रहता है। देश है कि जीने का अभिनय कर रहा है।

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।