(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है, 14वीं किस्त -संपादक। )
अव्यक्त, दिल्ली:
7 सितंबर, 1927 को जब गांधीजी मद्रास के पचैयप्पा कॉलेज में बोलने गए तो वहाँ एक दिलचस्प घटना घटी। अपने भाषण में जैसे ही गांधीजी ने कहा,“मैं चाहूंगा कि यहाँ मुसलमान विद्यार्थी भी [संस्कृत] पढ़ने आ सकें।” तभी श्रोताओं में से एक आवाज़ आई, “पंचमों को इसमें दाखिला नहीं दिया जाता।” इस पर गांधीजी ने कहा, “यह तो मुझे नई बात का पता लगा। पंचमों और मुसलमानों, दोनों के लिए इस संस्था के द्वार खोल देने चाहिए। यदि यहाँ पंचमों को दाखिला नहीं दिया जाएगा तो मैं इसे हिन्दू संस्था मानने से इन्कार करता हूँ।” श्रोताओं में से फिर आवाज़ आई, “सुंदर! बहुत खूब!”
गांधीजी ने आगे कहा, “हिन्दू संस्था होने का यह मतलब तो नहीं होता कि कोई पंचम या मुसलमान यहाँ पढ़ न सके। मैं समझता हूँ कि अब समय आ गया है कि ट्रस्टी लोग इसकी नियमावली में रद्दोबदल करें।” 20 मार्च, 1927 को हरिद्वार स्थित गुरुकुल कांगड़ी में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् के अपने अध्यक्षीय भाषण में गांधीजी ने कहा, “संस्कृत का अध्ययन करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है। हिन्दुओं का तो है ही, मुसलमानों का भी है। क्योंकि आखिर उनके पूर्वज भी राम और कृष्ण ही थे। और अपने पूर्वजों को जानने के लिए उन्हें संस्कृत सीखनी चाहिए। फिर बोले, “जो संस्था एक-दूसरे के प्रति मन में द्वेष और भय रखने की शिक्षा दे, निश्चित मानिए कि वह राष्ट्रीय संस्था कदापि नहीं है। राष्ट्रीय संस्थाओं को हिन्दू-मुस्लिम एकता के संदेशवाहक तैयार करने चाहिए। जो संस्थाएँ धर्मान्ध, कट्टर हिन्दू या मुसलमान तैयार करती हैं, वे नष्ट कर देने योग्य हैं। शैक्षणिक संस्थानों का उद्देश्य व्यक्ति को धर्मान्ध बनाना नहीं है।”
उसी साल जुलाई में बंगलोर के चामराजेन्द्र संस्कृत पाठशाला में अपने संबोधन में गांधीजी ने कहा था, “मुझे यह सुनकर बहुत दुःख हुआ कि मैसूर राज्य में कुछ ऐसे पंडित हैं जो कथित ‘शूद्रों’ या ‘पंचमों’ को संस्कृत सिखाने में हिचकते हैं। ...मनुष्य के समान शब्दों के अर्थ का भी विकास होता रहता है। और यदि कोई वैदिक वचन भी विवेकबुद्धि या अनुभव के विपरीत पड़ता हो तो उसे त्याग ही देना चाहिए।...भारत के विभिन्न भागों में मेरा जो अनुभव रहा है उससे तो मैंने यही जाना है कि यदि व्यक्तिशः तुलना की जाए तो बौद्धिक अथवा नैतिक, किसी भी दृष्टि से कथित ‘अस्पृश्य’ लोग अपने ‘स्पृश्य’ भाइयों से उन्नीस नहीं पड़ते। ...और मैंने आदि कर्नाटक लड़कों को भी देखा है जो संस्कृत श्लोकों को पढ़ने और उनका सस्वर पाठ करने में यहाँ के किसी ब्राह्मण ल़ड़के या लड़की से कम नहीं हैं।...इसलिए मैं इस बात के लिए आपका आभारी हूँ कि आपने मुझ-जैसे क्रांतिकारी विचार रखने वाले व्यक्ति को अपने यहाँ बुलाया और केवल बुलाया ही नहीं, बल्कि उसे मानपत्र भेंट किया और उसमें उसके विचारों का अनुमोदन भी किया।”
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(लेखक पत्रकार और लेखक हैं। )
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