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समाजवादी-ललक-़15: 1936 में डाॅ. लोहिया ने नागरिकता को किया था परिभाषित

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भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अहम व्यक्तित्व से फॉलोअप रुबरू कराना चाहता है। साबरमती का संत नाम से 50 क़िस्त के मार्फत महात्मा गांधी को समझने की कोशिश की गई थी। वहीं सदी के महाचिंतक स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित करीब 20 क़िस्त भी आपने पढ़े होंगे। धुर समाजवादी लीडर डॉ .राममनोहर लोहिया के बारे में आप गांधीवादी वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी की क़लम से नियमित पढ़ रहे हैं। आज पढ़िये 15 वीं क़िस्त-संपादक

कनक तिवारी, रायपुर:

सन् 1936 में डाॅ. लोहिया ने ‘नागरिक स्वाधीनता का संघर्ष‘ पुस्तिका की रचना की थी। भूमिका पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखी। आज़ादी के बाद आंतरिक आपातकाल में दिनेश दासगुप्ता ने इसे छपवाया और उसके तीन दशक बाद नागपुर के श्री हरीश अडयालकर ने।.....‘नागरिक स्वाधीनता क्या है‘ और ‘भारत में नागरिक स्वाधीनता की अवस्था‘ 1936 में प्रकाशित ‘द स्ट्रगल फाॅर सिविल लिबर्टीज़‘। डाॅ. लोहिया ने अखिल भारतीय कांग्रेस के विदेश-विभाग के सचिव रहते लिखी थी। कांग्रेस के विदेश-विभाग ने इसे जवाहरलाल नेहरू की भूमिका सहित प्रकाशित किया था। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध नागरिक अधिकारों और आज़ादी की लड़ाई में शहीदों की कुर्बानी के बाद विभाजित देश के संविधान में नागरिक और व्यक्ति स्वाधीनता के अधिकारों तथा अन्य अधिकारों को लिपिबद्ध किया गया।.... अपनी इस असाधारण, मौलिक और धारदार पुस्तक में लगभग पहले भारतीय की तरह लोहिया लिखते हैं-‘‘नागरिक स्वाधीनता की रक्षा के लिये सभी प्रकार की खाइयां खोदनी चाहिये और किले बनाने चाहिये। नागरिक स्वाधीनता के लिये किया जाने वाला आंदोलन ऐसी ही एक खाई है और एक किला है। हो सकता है कि आंदोलन से सिर्फ जनमत ही मजबूत हो लेकिन यह भी संभव है कि राज्य को झुकना पड़े। इस तरह की काफी घटनाएं हुई हैं जब जनता की अनवरत मांग के आगे प्रशासन या उसके अफसरों के पहले के आदेश रद्द किये गये हैं और राजनीतिक बंदियों की रिहाई हुई है। 

 

 ऐसी बात नहीं कि नागरिक स्वाधीनता का सिर्फ हमारे देश या किसी अन्य देश में ही उल्लंघन हो रहा है, दुनिया का बड़ा हिस्सा कमोबेश आज एक जेलखाना बन गया है। विश्व का जनमत आज नागरिक स्वाधीनता के हनन का पहले से कहीं ज्यादा प्रतिवाद करता है। कहीं भी जब नागरिक स्वाधीनता का उल्लंघन होता है तो विश्व जनमत तुरन्त उसके विरोध में संगठित रूप से आवाज उठाता है। राष्ट्रीय नागरिक स्वाधीनता यूनियनों को आपस में सूचनाओं और प्रचारात्मक साहित्य का आदान-प्रदान करना चाहिये।‘‘

सरकारी और मठी गांधीवादियों की अहिंसा को लोहिया ने कमजोर हिंसा और अहिंसा का मिश्रण कहा। इसका अर्थ था सेवाएं भी रखो लेकिन युद्ध में उनका ठीक से इस्तेमाल मत करो। (अपनी जनता के दमन के लिये भले ही इन्हें बहादुरी के पुरस्कार दो), इकतरफा निःशस्त्रीकरण की बात करो, मध्यस्थता, पंच-फैसला, द्विपक्षी बातचीत, प्रतिरक्षा की तैयारी के बहाने युद्ध की चुनौती को टालो आदि-आदि। ये सब प्रतिरोध से बचने के तरीके हैं। लोहिया ने इसे कमजोर हिंसा और अहिंसा का मिश्रण इसलिए कहा कि उनके अनुसार ‘‘अहिंसा के दो गुण हैं निहत्थापन और प्रतिरोध। इनमें से किसी एक को छोटा करना बड़ी भारी गलती होगी। अगर प्रतिरोध में कमी आई तो निहत्थापन कायरता और अन्याय के आगे सिर झुकाना होगा। यह आगे चलकर हथियारों और युद्ध को बढ़ावा देगा।‘‘ (लोहिया रचानावली खंड एकः पृष्ठ 147-149)। 

 

एक बार लोहिया ने गांधी के संस्मरण सुनाते हुए गांधी जी की एक महत्वपूर्ण बात बताई-‘‘1916 में गांधी जी ने कहा था कि मेरा देश कायरता और पौरुषहीनता के कारण मार्शल लाॅ के सामने झुकने के बजाए अगर कोई वाइसराय की हत्या करता है तो मैं उसे पसंद करूंगा।‘‘.....लोहिया ने अहिंसा को एक और आयाम भी दिया। यह है करुणा-मिश्रत क्रोध की अहिंसा। इसे भी बापू की देन ही कहा जा सकता है जिसके वशीभूत होकर कभी बापू ने कहा था कि जिस वाइसराय पर असंख्य लोगों को भूखा-नंगा रखकर अधिक खर्च किया जाता है उसका तो मर जाना ही अच्छा है। लोहिया ने इसे खूबसूरत उपमा दी एक आंख में करुणा के आंसू एक में क्रोध की लाली।

(जारी)

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।