(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। पेश है, 45वीं किस्त -संपादक। )
कनक तिवारी, रायपुर:
इतिहास यह बात हैरत के साथ दर्ज करेगा कि अपनी मौत के एक दिन पहले 29 जनवरी, 1948 को कांग्रेस संविधान का ड्राफ्ट लिखते जांचते गांधी ने फिर कहा था कि कांग्रेस को संविधान में शामिल किया जाए। कांग्रेस स्वयंमेव खुद को भंग करती है तो वह लोकसेवक संघ के रूप में दुबारा जीवित होकर संविधान में लिखे बिंदुओं के आधार पर देश को आगे बढ़ाने के काम के प्रति प्रतिबद्ध होती है। यही प्रमुख और बुनियादी दस्तावेज है, जिसे बीज के रूप में भविष्य की कांग्रेस के गर्भगृह में गांधी ने बोया था। वह बीज एक विशाल वृक्ष के रूप में गांधी की मर्यादा के अनुसार विकसित नहीं हो सका। यह बात अलग है। बापू के जीवनीकार प्यारेलाल के ‘हरिजन‘ के लेख के अनुसार 29 जनवरी को गांधी पूरे दिन कांग्रेस संविधान का प्रारूप तैयार करते रहे। बुरी तरह थक गए थे। फिर भी काम पर डटे रहे। उन्होंने आभा गांधी से कहा कि मुझे देर रात तक जागना पड़ेगा। 30 जनवरी की सुबह वह प्रारूप उन्होंने प्यारेलाल को दिया। प्यारेलाल से वापिस मिलने पर फिर सुधारा। 30 जनवरी की सुबह प्रारूप संविधान कांग्रेस पार्टी को दिया आखिरकार वह प्रारूप पार्टी के महासचिव आचार्य जुगलकिशोर ने 7 फरवरी 1948 को जारी किया था। किसी कथन को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए शब्दार्थ, निहितार्थ, संदर्भ, समझ और सूचनात्मक ज्ञान का समुच्चय ज़रूरी है। मंतव्य साफ है। एक जीवित संगठन के रूप में कांग्रेस की उपयोगिता नहीं रह गई थी इसलिए क्या गांधी ने कांग्रेस को खत्म कर देने की सलाह दी थी? गांधी ने दरअसल यह सलाह एक कालजयी दस्तावेज के अनुसार कांग्रेस के इच्छापत्र के रूप में रच दी थी।
दक्षिणपंथी राजनेताओं के लिए गांधी राजनीति का अनपच हैं। वे जानते हैं गांधी ने उन्हें कम से कम तीस चालीस बरस सत्ता में आने से रोक रखा था। मरने के बाद भी गांधी के कारण 1967 तक गैरकांग्रेसवाद फलाफूला नहीं था। गांधी ने सांस्कृतिक धार्मिक रूपक प्रतीक बल्कि रूढ़ियां भी सहेज रखी थीं। अपनी सयानी बुद्धि के तहत गांधी ने कांग्रेस के फकत मौजूदा स्वरूप को ही तिरोहित करने की बात कही थी। यदि भंग करने कहते तो गांधी के राजनीतिक फलसफे से ही मुठभेड़ करनी पड़ती। कांग्रेस को समाप्त करने के अपने भावुक आग्रहों में गांधी ने सलाहें नहीं थोपीं। कांग्रेस से आत्ममंथन करने कहा। लोग कई बार मरने की दुआ मांगते हैं लेकिन मुकम्मिल तौर पर जीना चाहते हैं। गांधी भी यही ठनगन करते रहते हैं। गांधी के अनुसार किसी मुद्दे पर उनकी आखिरी बात ही सच मानी जाए। इस लिहाज से देखना होगा गांधी ने कांग्रेस को भंग करने को लेकर आखिरी तीर क्या चलाया था।
गांधी कांग्रेस में कब रहते थे। कब छोड़ देते थे। आखिरी के दो तीन वर्षों में कांग्रेस से अलग थलग गांधी की सलाह बाहरी व्यक्ति की थी। वे खिन्न थे। उदास थे। पराजित और थका हुआ भी महसूस करते थे। नेहरू-पटेल युति ने देश और कांग्रेस को सम्हाल लिया था। फिर भी अपनी हत्या के एक दिन पहले गांधी कांग्रेस के संभावित संविधान के बीज रूप का विन्यास समर्पण के साथ कर रहे थे। उस संक्षिप्त दस्तावेज में गांधी ने स्वाभाविक ही कांग्रेस की इच्छा पर छोड़ा कि वह खुद का शरीर छोड़कर अपनी आत्मा को लोकसेवक संघ जैसे किसी संगठन की देह में प्रत्यारोपित या अंतरित कर दे। गांधी के बहुत से विचार व्यावहारिक नहीं होते थे। वरना गांधी सरकारी कार्यक्रमों में शिरकत करते पाए जाते। गांधी नाम, सर्वनाम, विशेषण, समास सभी कुछ होकर भारतीय याद घर में किसी के शकुन तो किसी के अपशकुन की आंख बनकर फड़कते रहते हैं।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी अपने किसी भी केवल एक बुजुर्ग का वसीयतनामा नहीं हो सकती थी। इतनी बौद्धिक क्षमता, नीयत और समय हो कि बीसवीं सदी के शुरुआती इतिहास की पड़ताल करें, तो गांधी से अभिभूत होना पड़ जाएगा। गांधी को जिन्ना ने भी बनिया कहा था। फलितार्थ यह था कि गांधी बटवारे के हर सौदे में हानि लाभ का जोखिम देखते थे। चर्चिल ने उन्हें अधनंगा फकीर कहा था। उसमें वस्त्रहीनता पर कटाक्ष नहीं, फकीरी की आड़ में अंग्रेज को निपटाने वाले सूरमा के लिए वीर समर्थन का भाव था। षाह की वक्रोक्ति से गांधी के लिए प्रशंसा का निर्झर नहीं बहता। वह गांधी को कुनबापरस्त कांग्रेसी बुजुर्ग होने तक सीमित करता है। इसीलिए तो गांधी को मोदी सरकार ने सुलभ शौचालय का प्रहरी ही बनाया है। उनके रचनात्मक कार्यक्रम का ककहरा भी सरकार नहीं पढ़ती। सियासत का लिटमस कागज नीला से लाल हो जाए तो गांधी और लाल से नीला हो जाए तो गोडसे की फिल्म चलने लगती है।
बनिया सम्बोधन तो बीत चुके व्यापार युग की कौंध है। काॅरपोरेटियों के चंदे दोस्ती, मार्गदर्शन, दबाव और रिटर्न गिफ्ट के चलते मोदी शासन गांधी और बनिया जैसे सम्बोधनों की युति को इतिहास का कूड़ा ही तो बना रहा है। वह गांधी को राष्ट्रऋषि, हर हर गांधी, आइकाॅन, बाॅस, गांधी इज़ इंडिया वगैरह तो कहने से रहा। वह नहीं जानता गांधी फीनिक्स पक्षी हैं। देह जल जाने के बाद राख को फूंक मारने से वे पुनर्जीवित हो जाते हैं। पिछली पीढ़ी का असम्मान बल्कि उपहास वैश्विक बाजार का ताजा फंडा है। मौजूदा शासन उसका बोनस लेते रहने को आतुर है। गांधी को बीत गए इतिहास का हाशिया समझकर मदनमोहन मालवीय, सरदार पटेल, सुभाष बोस आदि के मुकाबले परास्त कर संघ विचार अपने कुल पूर्वजों की अप्रतिष्ठा को कैशलेस स्मृतियों और इतिहास के बैंक में जमा रखने को आतुर है। गांधी आंख की किरकिरी हैं। उसकी दवा रामदेव के योगासन में भी नहीं मिलती। गांधी की देह गंध दलितों में सूंघने से मौजूदा शासकों को घिन भी होने लगती। वह दलितों की हत्या और बलात्कार में भी बदलती रहती है। इसलिए गांधी को दलित, आदिवासी, सेक्युलर, धर्मनिष्ठ प्रतिनिधि भारतीय भूमिका से बेदखल कर बिका हुआ मीडिया बार बार इस मुद्दे को उछालता रहेगा। कहेगा गांधी को बनिया तो भी कहने में क्या बुरा है?
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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।