(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है, 36वीं किस्त -संपादक। )
कनक तिवारी, रायपुर:
गांधी का बचपन किसी रूमानी आख्यान के राजकुमार की दिनचर्या नहीं है। इस पूत के पांव पालने में नहीं दिखाई दिए। वह चमत्कार पुरुष नहीं था। उसमें हीन और दयनीय भावनाएं अंदर ही अंदर घुटती रहीं। वैसा तजुर्बा करोड़ों मुफलिसों को भी होता ही रहता है। वह धीरे धीरे किसी कद्दावर वटवृक्ष की तरह अपने अनुभवों से सिंचता हुआ उठता रहा। ०पीटरमेरिट्ज़ बर्ग स्टेशन पर सामान की तरह फेंक दिया। उसे लात, घूंसों और लाठियों तक से पीटा गया। कई रातें उसने बिना सोए और बिना खाए पिए भी काटीं। वह मीलों तक चलकर शाकाहारी भोजन भी ढूंढ़ता था। उसने दक्षिण अफ्रीका जैसे परदेस में अपना देश अपनी परंपराओं में बिंधकर ढूंढ़ लिया। उसने कांग्रेस केे पूरे आंदोलन को उसके तामझाम से अलग करके सबको आईना दिखाया। आईना आत्ममुग्धता का एक बड़ा कारण होता है। आईने के अंदर खुद का ईमान, अक्स और चरित्र ढूंढ़ने की कला को भी गांधी ने ही ईज़ाद किया। आत्मा वही है जो अन्याय करने पर खुद को अपना मुंह नोचने की मौलिकता और हिम्मत दे। इतिहास गांधी के लिए कभी कोई सज़ा तजवीज़ नहीं कर पाया। उसने खुद को बार बार सजा दी। उसने खुद को गुनहगार पाया। गांधी ने आत्मसम्मोहन की मिथकीय अवधारणा तक को मनोविज्ञान के इलाके से बेदखल कर दिया।
असफल कोशिशें जारी हैं कि इस बूढ़े आदमी को इक्कीसवीं सदी में खारिज कर दिया जाए। उसे बीत गए इतिहास में दाखिल दफ्तर कर दिया जाए। मानवीय सभ्यता की ऊंचाइयों और उसकी असफलताओं का लेखाजोखा लिए एक अजूबा बने गांधी अपनी कौंध लिए धरती पर आए। उनमें आसमानी देवता होने का अंश नहीं दिखा। वे एक साथ पांचों कर्मेन्द्रियों और पांचों ज्ञानेन्द्रियों के समुच्चय बनकर औसत मनुष्य होने का शाश्वत बोध कराते हैं। यही तो कबीरदास ने कहा था शायद गांधी के लिए, लेकिन पांच छह सौ वर्षों पहले, कि इसने अपने होने की चादर जैसी पाई थी, वैसी ही ओढ़ी और वैसी ही बाद की पीढ़ियों को वापस कर दी। एक तावीज़ गांधी ने दी थी। कहा था जब कोई भी काम करो, यह सोचो कि तुम्हारे ऐसा करने से देश के अंतिम व्यक्ति का क्या होगा? मुनाफे के सरकारी कारखाने काले बाजारियों को औने पौने बेचे जा रहे हैं। निजीकरण शब्द को राष्ट्रीयकरण का समानार्थी कहा जा रहा है। अमेरिका जाना मक्का मदीना या बद्रीनाथ जाना हो रहा है। काॅरपोरेटिये हमारी आत्मा में समा गए हैं। सामुदायिक हिंसा में मनुष्य नहीं कीड़े मकोड़े मारे जा रहे हैं। देश के करोड़ों लोगों के पास रोजगार नहीं है। उसके मुकाबले आप्रवासी भारतीयों के अधिकार तय करने की प्राथमिकताएं हैं। हिंसा, आगजनी, अपहरण, बलात्कार, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार बढ़ रहे हैं। इनसे निपटने नेता और वरिष्ठ नौकरशाह विदेशों में ट्रेनिंग ले रहे हैं। अपराधियों को जेल में जगह नहीं मिल पा रही है। इसलिए वे रेलवे के ‘तत्काल आरक्षण‘ की योजना के अनुसार संसद और विधानसभाओं में अपनी जगहें सुरक्षित कर रहे हैं। न्यायालय अधिकतर पटवारियों, कोटवारों और बाबुओं को सजा देने में मुस्तैद हैं। कालाबाजारिए, हलवाई, मुनाफाखोर, तांत्रिक, धर्माचार्य बाइज्जत बरी होने का नवयुग उद्घाटित कर रहे हैं। अनुकम्पा नियुक्तियां नहीं हो रही हैं। मंत्रियों, अधिकारियों और भ्रष्टों की अनुकम्पा पर नियम विरुद्ध नियुक्तियां हो रही हैं। उन अछूतों के लिए माले मुफ्त शराब पीने के बाद बुद्धिजीवी लिख रहे हैं कि गांधी की दलितों के लिए करुणा संदिग्ध थी।
गांधी बनाम अम्बेडकर का मिथक रचा जा रहा है। गांधी ने ही बाबा साहब की असाधारण मेधा के कारण उन पर भारत के संविधान रचने की महती जिम्मेदारी सौंपने का आग्रह किया था। गांधी की मूर्तियां खंडित की जा रही हैं। उनकी याद में दिए जाने वाले पुरस्कार गांधी विरोधी आचरणों को भी दिए जा रहे हैं। गांधी माला की सुमरनी नहीं हैं जिनके नाम का जाप किया जाए। कई गांधीवादियों ने अलबत्ता करोड़ों के सरकारी अनुदान डकार कर गांधी बनते मैली कुचैली धोती, छितरी दाढ़ी, हिंसक विनम्रता और लिजलिजे व्यक्तित्व का तिलिस्म बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। गांधी दरअसल एक वामपंथी हैं, लेकिन माक्र्स की नकल के नहीं। भारतीय औपनिवेशिक परम्परा के ऋषि चिन्तन के असल की तरह। उनका उत्तर आधुनिक पाठ भी बनता है। कोई उनसे मिले तो। उनका हालचाल पूछे तो। राजघाट पर समाधि जिसकी है, वह गांधी नहीं है। गांधी तो जनघाट पर ही अपनी मुक्ति पा सकता है। गांधी को लेकिन मुक्ति नहीं चाहिए थी। उसने मरण को संस्कार बनाया है। इसलिए जो भी इस रास्ते पर चलेगा, उसे ही मोहनदास करमचंद गांधी को जिलाए रखने का हक होगा।
हो सकता है कि अपनी भावुकता के कारण हम गांधी के बारे में सही निर्णय नहीं कर पायें क्योंकि हम उनके बहुत निकट हैं। युगों बाद इतिहास इस पर अपना फैसला करेगा। मुझे भी लगता है कि आगे चलकर गांधी के सभी युगीन रूप झड़ जायेंगे और तब हमें गांधी की सही शक्ल दिखाई देगी। आज हम उनके बारे में मोहग्रस्त होकर सोचते हैं, इसलिये हमारा स्वप्न भंग हो रहा है। यह सोचना कि गांधी हमारी सभी समस्याएं हल कर देंगे, हमारी मूर्खता है क्योंकि जब तक हम उनके बारे में ठंडी, तटस्थ और निरपेक्ष दृष्टि नहीं बनायेंगे, हमें उनके बारे में खीझ हो सकती है लेकिन हम उनका सही मूल्यांकन नहीं कर पायेंगे। गांधी को हमने पुस्तकालयों, अजायबघरों और मुर्दा स्मारकों में कैद कर दिया है। सारा देश गांधी का नाम केवल तोते की तरह रटता है। हम सार्वजनिक भाषणों में गांधी की प्रशंसा करते हैं और करते हैं निजी जीवन में अगांधी आचरण। उनके लिए तो यह एक भयानक आघात है जो गांधी युग में पैदा होकर भी उन्हें देख नहीं सके। आज देष में सब कुछ है, शायद गांधी की आत्मा नहीं है।
गांधी लेकिन फकत आयोजनों और बकवास के मोहताज नहीं हैं। उनके सम्बन्ध में ठोस वैचारिक चिन्तन की जरूरत है। मर चुकी बेरहम बीसवीं सदी उपनिवेशवाद तथा आर्थिक वैश्वीकरण की वजह से विचार, अध्ययन और किताबों को लेकर जेहाद भी नहीं कर पाई। जिन्होंने गांधी के यश की राजनीतिक दूकानें सजा रखी हैं, वे हर मुद्दे पर यही फिकरा कसते हैं कि हमें गांधी के रास्ते पर चलते हुए गांवों में जाना चाहिए। लेकिन जाता कोई नहीं है। अंधेरे के घटाटोप अट्टहास के बीच यदि कोई नन्ही कन्दील बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुकाबले जलने की कोशिश करती है, तो उसे यह बताने की जुर्रत की जाती है कि जब सूरज तक अंधेरे का स्थायी उत्तर नहीं है, वह तो केवल आधा उत्तर है, तब कन्दील जलाने की क्या जरूरत है। विचारहीनता यदि शासनतंत्र का अक्स है तो गांधी एक तिलिस्मी, वायवी और आकारहीन फेनोमेना की तरह मुट्ठियों में पकड़ने लायक नहीं हैं।
जारी
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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।