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साबरमती का संत-21: एक पुस्‍तक के बहाने गांधी और नेहरू  : परंपरा और आधुनिकता के आयाम

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  21वीं किस्त -संपादक। )

 

आनंद पांडेय, दिल्‍ली:
भारतीय जनमानस ही नहीं बौद्धिक समाज में भी यह छवि बद्धमूल है कि महात्मा गांधी परंपरावादी थे जबकि जवाहरलाल नेहरु आधुनिकतावादी। दोनों के मध्य मतभेदों और असहमतियों के कारणों को इन्हीं ध्रुवांतों में बाँटकर देखने की कोशिश की जाती रही है। गांधी की अति परंपरावादी और नेहरु की अति आधुनिकतावादी छवियों पर पुरुषोत्‍तम अग्रवाल  ने अपनी प्रकाशित पुस्तक 'कौन हैं भारतमाता?' में पुनर्विचार किया है। यह किताब का ऐसा पक्ष है, जिस पर मेरा ध्यान पहली बार किताब पढ़ते हुए नहीं जा पाया। दुबारा पढ़ते समय दोनों की छवियाँ टूटीं और एक नई व्याख्या  मिली, जिसकी ओर ध्यान देना चाहिये।

 

पुरुषोत्तम अग्रवाल का  मानना है कि यह 'बायनरी' न केवल दोनों के संबंधों और दोनों के मध्य सहमतियों-असहमतियों को समझने में बाधक है बल्कि एक सरलीकरण से अधिक कुछ नहीं है। दोनों आधुनिकता के अन्वेषी थे तो दोनों ही अपने- अपने ढंग से परंपरा से सतत संवादरत भी थे। आधुनिकता कहीं आसमान से नहीं टपकती है बल्कि वह परम्परा के जीवंत तत्वों का नवांकुरण होती है। गाँधी और नेहरू अपनी - अपनी परंपराओं में अवस्थित होकर आधुनिकता का अन्वेषण करते हैं। वे लिखते हैं, "गांधी को 'परंपरावादी' और नेहरू को 'आधुनिकतावादी' मानने के द्वैध (बायनरी) के पीछे यह धारणा है, गाँधी परंपरा प्रेमी थे, और नेहरू परंपरा-विमुख, बल्कि परंपरा-विरोधी। यह धारणा सच से कोसों दूर है।"

 

 

दोनों की रूढ़ छवियों को तोड़ने के लिए और उनके चिंतन को समग्रता में देखने के लिए वे गांधी की आधुनिकता और नेहरू की परम्पराबद्धता को रेखांकित करते हैं। गाँधी के चिंतन के आधुनिक और पश्चिमी स्रोतों और प्रभावों का वे विस्तार से विश्लेषण करते हैं और दिखाते हैं कि टॉलस्टॉय, रस्किन और ईसा मसीह का गाँधी पर गहरा असर है तो नेहरू अपनी परंपरा, संस्कृति और इतिहास से बहुत गहराई से जुड़े हुए थे, " नेहरू को हिन्दू परम्परा और संस्कृति का बोध बचपन से ही संस्कारों में मिला था, इसके साथ ही थियोसॉफी, ईसाइयत व इस्लाम की जानकारी भी उन्हें अपने परिवेश से प्राप्त हुई थी।"

वे यह भी दिखाते हैं कि गाँधी और नेहरू के मध्य संवाद एक परम्परावादी चिंतक से एक आधुनिकतावादी चिंतक का नहीं बल्कि "परंपरा के आधुनिकीकरण और एक प्राचीन सभ्यता को आधुनिक राष्ट्र राज्य में रूपांतरित करने के दो रास्तों को जोड़नेवाले पुल को दिखलाता। 

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(आनंद पांडेय युवा लेखक हैं। संंप्रति पुणे में रहकर प्राध्‍यापन)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।