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साबरमती का संत-28: विश्व अहिंसा दिवस और महात्मा गांधी का सच 

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। पेश है,  28वीं किस्त -संपादक। )

कनक तिवारी, रायपुर:
                              
अहिंसा का प्रयोग गांधी का महत्वपूर्ण संदेश है। हिंसावादियों और अराजकता समर्थकों को आश्वस्त नहीं कर पाने की नाकामी से खिन्न गांधी ने अहिंसा की थ्योरी पर अमल करना सिखाया। गांधी की तयशुदा सलाह थी राज्य-शक्ति हिंसा का हथियार ही है। यह अलग बात है कि भारत पाक विभाजन को लेकर अचानक उमड़ा हिंसक धार्मिक उन्माद सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त हुआ था। उसे खत्म करने गांधी राज्य की हिंसा का मुनासिब विरोध भी नहीं कर पाए। हिन्दू धर्म कायरों का धर्म नहीं रहा है। इस धर्म में हिंसा भी नहीं रही है। रामायण और महाभारत काल में कथाओं के अनुसार ईश्वर को अवतार बनकर राम और कृष्ण रूप में रावण और कंस जैसे खूंखार दरिंदों को मारना पड़ा। उसे हिंसा नहीं कहा जा सकता। विकल्प नहीं रहने पर शासक को स्वधर्म तथा जनधर्म का पालन करने दंडित करना ही होता है, जो राज्य के आड़े आते हैं। 

हिंसा के खिलाफ अहिंसा का शास्त्रीय संघर्ष रहा है। गांधी ने इसे जनवादी बनाया। गांधी की अहिंसा की परिकल्पना के दायरे में केवल गरीब, गुलाम या कमजोर नहीं रहे। अहिंसा उन्हें भी चाहिए जो शोषक हिंसक हैं। आज़ादी में बहुत कम लोग बलवान की अहिंसा के बारे में चर्चा करते हैैं। जनता को अंगरेज हुक्मरानों के मुकाबले अहिंसक होने का गांधी का आह्वान प्रकारान्तर से अंगरेज के ही अहिंसक होने से था। इसीलिए स्वतंत्रता संघर्ष में गांधी ने अंगरेज को प्रासंगिक बनाया। 

बापू की परिकल्पना में डरपोक की हिंसा भी विचार में थी। मजबूर होने पर गांधी खुद अहिंसा छोड़कर सत्य को पकड़े रहने के पक्ष में थे। वे जानते थे सत्य और अहिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सिक्का उछालने में चित आने पर आदमी जीतता है। यही स्थिति सत्य की है। पट चित का साथी है, लेकिन चित के मुकाबले हारता है। अहिंसा भी एक ऐसा ही दार्शनिक सामाजिक मूल्य है। उसे बुद्ध और महावीर से लेकर गांधी तक ने अपनी आत्मा के अक्स में ढाला था। विवाद या दिक्कत भी है कि बापू का राम मुसलमान, अंग्रेज, पारसी आदि सभी के लिए था। हिन्दू का उस पर एकाधिकार नहीं था। सच्चे प्रजातांत्रिक बापू के लेखे हिन्दू तानाशाह या एकाधिकारवादी नहीं रहे हैं। संविधान की उद्देशिकाओं से भी ऐसे व्यक्तियों का संबंध नहीं है। अपने से कमजोर तथा गुमराह के लिए हिंसा की भावना भी हिंसा है। बापू करुणा मृत्यु के भी पक्ष में थे। कुछ सिरफिरे किस्म के लोग गांधी को कायर भी घोषित करने हिचकिचाते नहीं। गांधी ने तो अपनी छाती अंग्रेज के तोप के आगे अड़ाकर उसे ठंडा भी किया था। 

कहा जाता है गांधी की अहिंसा की बात करने से मन का मैल निकलता है। एक तरफ जबान गांधी और अहिंसा की आरती उतारे। दूसरी तरफ बन्दूकें और तलवारें जनता के ऊपर चलती रहें। नये हिन्दुस्तान की बुनियाद में निर्बल की नहीं बलवान की अहिंसा की जरूरत की वकालत गांधी ने की। विश्व इतिहास में आजादी के लिए भारतीयों से ज्यादा अहिंसक संघर्ष किसी ने नहीं किया। इसलिये बापू की कल्पना का प्रजातंत्र अहिंसक भारत में आधारित हो सकता था। किसी ने उनसे सवाल किया कि मुकम्मिल अहिंसा सामाजिक जीवन में कैसे संभव है? 

बापू ने कहा-‘सही है कि हिन्दुस्तान ने एक तरह से मिलावटी अहिंसा द्वारा ही काफी ताकत हासिल कर ली थी, लेकिन जिस तरह युक्लिड ने कहा है रेखा वही हो सकती है जिसमें चौड़ाई न हो, लेकिन ऐसी रेखा न तो आज तक कोई बना पाया है और न बना पायेगा। फिर भी ऐसी रेखा को ख्याल में रखने से गणित में तरक्की हो सकती है। जो बात विज्ञान के इस आदर्श के बारे में सच है, वही अहिंसा के आदर्श के बारे में भी सच है।‘ 
समझना गलत है कि गांधी अहिंसा के अतिवादी पुजारी थे। 1942 में उन्होंने कहा था, ‘जब आखिरी इंकलाब या क्रांति करते हो और अंग्रेज पकड़कर जेल ले जाने लगे, तो मत जाओ। जेल के कानून को मत मानो और उपवास करो।‘ अपनी बात को तेज बनाने के लिए उन्होंने यहाँ तक कहा था कि जेल की दीवार से सर टकरा-टकरा कर मर जाओ लेकिन गलत बात मत मानो। अन्याय के आगे मत झुको। गांधी दरअसल अन्याय का विरोध करने की अहिंसक राष्ट्रीय आदत बनाने के पक्षधर थे। हिंसक राष्ट्रीय आदत संभव है, लेकिन हर वक्त उतनी भौतिक ताकत कहां होगी। 

गांधी ने कहा था मुझे सत्य और अहिंसा में से एक चुनना पड़े, तो मैं सत्य को चुनूंगा। अहिंसा का गांधी का मौलिक योगदान नहीं था। उपनिषदों, बुद्ध और जैन तीर्थंकरों ने सामाजिक जीवन में अहिंसा पर जोर दिया है। चीन के लाओ त्से, ईसा, कुरान शरीफ की कई आयतों और ताॅल्स्ताॅय के जीवन दर्शन में भी अहिंसा है। देश की आज़ादी हासिल करने साधना और साध्य (जरिया और मुराद) में ठोस तालमेल गांधी के हिसाब से जरूरी था। उन्हें लगता था मशीनगनों पर गरजने वाले अंग्रेजों को सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी के जरिए ही शिकस्त दी जा सकती थी। बापू के लेखे ऐटम से आत्मा की आवाज बड़ी है और रहेगी। सत्याग्रह महाभारत के महान वचन ‘अहिंसा परमोधर्मः‘ का जीवन में विनियोग रहा है। अमरीकी विचारक थोरो के अनुसार सिविल नाफरमानी का मतलब मामूली इंसान का ही महत्व है। मतलब मामूली इंसान का मामूली वीरता से काम चलाना है। सिविल नाफरमानी नया इंसान पैदा करती है, जो इन्सान जालिम के सामने घुटने नहीं टेकता, लेकिन उसकी गर्दन भी नहीं काटता। 

गांधी चाहते तो लोकप्रियता के आधार पर हिंसक आन्दोलनों को अंजाम दे सकते थे। गोलीकाण्ड करवाते। धार्मिक उपासना स्थल ढहा देते और अराजकता के बावजूद अपनी शैली पर दार्शनिकता का मुलम्मा चढ़ा देते। कुछ लोग आज यही कुुचक्र कर रहे हैं। गांधी की समझ भारत में सदियों से रही गुलामी, अंधविश्वास, रूढ़ियों, अशिक्षा, गरीबी और चारित्रिक स्खलन के बावजूद प्रगतिशील, प्रगल्भ और प्रवहमान रही। असल में गांधी के कर्म-संसार में शरीर पूरक आवश्यकता के रूप में दिखाई पड़ता है। बापू आत्मा के लुहारखाने के कारीगर थे। सांसों की धौंकनी चलाकर जिस व्यक्तित्व को वे हर आदमी के अन्दर देखना चाहते थे, उसमें आत्मा ही आत्मा से सरोकार था। गरीब के मन से हीनता, अमीर के मन से अहंकार निकालकर जीवन को गांधी ने संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण से अलग हटकर समास बनाया था। वे आत्मबल के आधार पर उत्फुल्ल होकर जीते थे। मौत उनके लिए एक छोटी-मोटी चोट, खिलवाड़ या सामान्य दुर्घटना थी। अचानक छाती पर गोलियां लगने के बाद भी षरीर का पूरा फ्रेम आत्मा के कब्जे में होने कारण विचलित, आशंकित या बदहवास नहीं हुआ। उन्होंने शान्तिपूर्वक ‘हे राम‘ का उच्चारण किया। मानो उनके लिए उनकी ही इच्छा के अनुसार जीवन का अंतिम पड़ाव राम ने हत्यारे के मार्फत भेजा हो। कातिलों ने अपनी छाती को गोलियों के सामने अड़ाने के बदले सदैव पीठ दिखाई है। पीठ पर छुरा घोपने में उन्हें महारत भले हासिल हो। उनमें इतना साहस कभी नहीं रहा कि कत्ल के बदले कुर्बानी का पाठ पढ़ें।

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।