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साबरमती का संत-32: उसने गांधी को क्यों मारा-पड़ताल

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  32वीं किस्त -संपादक। )

सतीश वर्मा, सुपौल (पटना): 


सिर्फ़ हत्या की पड़ताल ही नहीं इतिहास और तत्कालीन राजनीति की आलोचना भी करती है ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ किताब। इतिहास लिखना या इतिहास की समीक्षा करना दोनों ही चाकू की नोक पर चलने जैसा ही है। शायद यही वजह रही होगी जो हिन्दी में कायदे से इतिहास लेखन या इतिहास समीक्षा नहीं हो पाई है। इतिहास जानने-समझने के लिए हमें अंग्रेजी इतिहासकारों के किताबों को ही खंगालना पड़ता है और इतिहास लिखने के लिए भी अंग्रेजी किताबों को ही रिफ्रेंस के लिए रखना पड़ता है। हिन्दी में इतिहास लेखन का अकाल क्यों रहा इसकी पड़ताल जरूरी है। लेकिन इधर पिछले दो साल के ही दरमियान इतिहास लेखन की हिन्दी की दुनिया में एक अभूतपूर्व घटना हुई। वो घटना है हिन्दी में एक मौलिक इतिहासकार का उदय। हिन्दी के वो मौलिक इतिहासकार हैं अशोक कुमार पांडेय। पिछले दो साल के अंदर इतिहास पर लिखी इनकी तीन किताबों ने ये साबित कर दिया है कि हिन्दी में भी अंग्रेजी की ही तरह प्रमाणिक, विश्वसनीय, शोधपरक और विचारपरक इतिहास की किताबें लिखी जा सकती हैं। अशोक कुमार पांडेय की आमद ने हिन्दी में इतिहास लेखन में पसरे अकाल को ख़त्म कर दिया है। कश्मीर पर इनकी लिखी किताब ‘कश्मीरनामा इतिहास और समकाल’ ने उस धारणा को तो लगभग ख़त्म ही कर दिया है कि कश्मीर और कश्मीर समस्या को जानने के लिए सबसे अच्छी किताबें अंग्रेजी में ही लिखी गई है। हम हिन्दी के पाठक पूरे ठसक के साथ अब कह सकते हैं कि कश्मीर को जानना हो तो अशोक कुमार पांडेय की लिखी किताब पढिए।
बहरहाल अभी मुझे चर्चा करनी है अशोक कुमार पांडेय की किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ की। अंग्रेजी का तो मुझे नहीं पता मगर हिन्दी की ये एक मात्र अकेली किताब है जो गांधी हत्या के कारणों के पड़ताल के बहाने आधुनिक भारत के इतिहास की वैचारिक समीक्षा भी करती है। मैं इस किताब को उस नैरेटिव में रिड्यूस करना नहीं चाहूंगा कि ये किताब हेट फैक्ट्री, फेक न्यूज़ इंडस्ट्री और सबसे महत्वपूर्ण इतिहास को तोड़-मरोड़ कर, भ्रम फैला कर और भ्रष्ट कर युवाओं और किशोरों को गुमराह करने वाले फासीवादी संगठन आरएसएस के साजिशों का पर्दाफाश है या फिर उन्हें करारा जवाब देने के लिए लिखी गई किताब है। माना जाना चाहिए कि किताब लिखने का ये भी एक बोनाफाइड ध्येय लेखक का है, मगर मेरी नज़र में ये किताब गांधी हत्या के कारण और वैचारिक साजिश और साजिशकर्ताओं के प्रमाणिक पड़ताल के बहाने गांधी को लेकर विभिन्न वैचारिक स्कूलों के फैलाए भ्रमजाल और झूठ का भी पर्दाफाश करती है। चाहे वो मार्क्सवादी विचारकों का भ्रमजाल हो या फिर अंबेडकरवादी विचारकों का भ्रमजाल। गांधी विरोध के नाम पर जो इतिहास में धुंधलका है उसे गांधी के जीवन प्रसंग, गांधी के कथन और गांधी के प्रयोग के जरिये ही साफ और रोशन करने का काम करती है ये किताब।

गांधी- अंबेडकर विवाद, गांधी-पटेल विवाद और नेहरू-पटेल विवाद के नाम पर फैलाए गए भ्रम के धुंधलके को भी साफ करने का काम करती है ये किताब। इस किताब की जो सबसे बड़ी खासियत है जो इसकी पाठकीय और शोधपरकीय उपादेयता को मजबूत करती है, वो है किताब को कई सारे खंड और अध्याय में बांटा गया है। पाठक और शोधार्थी या फिर इतिहास अध्येता को अगर गांधी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास, आजादी आंदोलन से लेकर विभाजन, गांधी हत्या से लेकर कपूर आयोग की रिपोर्ट या फिर उस कालखंड की कोई भी जानकारी चाहिए तो वो अपने हिसाब से किताब के उस खास अध्याय में जाकर अपनी जानकारी हासिल कर सकता है. और आश्चर्यजनक तो यह है किताब कई खंडों में बंटे रहने के बाद भी शुरू से लेकर अंत तक एक सूत्र में बंधी हुई है। हर सिरा दूसरे सिरा से जुड़ा हुआ, मतलब दोनों ही स्तर पर किताब ठोक-पीट कर लिखी गई है। यानी किताब शुरू से लेकर अंत तक भी पढ़ी जा सकती है और ज़रुरत के हिसाब से किसी ख़ास खंड या अध्याय को पढ़ कर भी जानकारी हासिल की जा सकती है। इतिहास के किताब की यही एक महत्वपूर्ण उपादेयता और ख़ासियत है।
मैंने भी इस किताब के एक खंड को बहुत पहले पढ़ा था। खंड का नाम है- ‘अहिंसा और हमलों के बीच निर्भय जीवन : जनवरी 1948 से गांधी पर हुए हमले. इसी खंड में एक अध्याय है- ‘जाति-नस्ल-निष्ठा और गांधी।’ इस अध्याय को पढ़ते ऐसा लगता है कि लेखक बिल्कुल प्रभाव से मुक्त एक ठोस समीक्षा कर रहे हैँ जिसमें व्यक्तिगत आभा से परे तर्क के साथ और हर विचार के आइने में गांधी की समीक्षा की गई है। यही लेखक की और इस किताब की असंदिग्ध प्रमाणिकता है। लेखक गांधी से सवाल पूछते हैं कि- ‘सवाल पूछे जाते हैं और पूछे जाने चाहिए की गांधी क्यों वहां (दक्षिण अफ्रीका) के मूल निवासियों के साथ उनकी मुक्ति की लड़ाई में शामिल नहीं हुए?’ लेकिन लेखक इसका जवाब खुद गांधी के बयान और गांधी की मेजबान रही मुरियल लिस्टर के 1932 में प्रकाशित संस्मरण ‘इंटरटेनिंग गांधी’ में गांधी के एक वक्तव्य को कोट कर दे देते हैं कि गांधी क्यों अफ्रीका में अंग्रेज के साथ थे और फिर कैसे ब्रिटिश सरकार के साथ रहते हुए भी उन्होंने कहा कि राज्य के साथ रहकर भी मैं राज्य का सहयोग नहीं कर सकता। गांधी सत्याग्रह इन दक्षिण अफ्रीका में विस्तार से लिखते हैं कि – 
‘जुलू लोगों के ख़िलाफ़ मेरे मन में कोई दुर्भावना नहीं है, उन्होंने किसी भारतीय को नुकसान नहीं पहुंचाया बावजूद इसके मुझे विश्वास है कि ब्रिटिश साम्राज्य विश्व कल्याण के लिए है। निष्ठा की भावना ने मुझे ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध किसी भी दुर्भावना की तरफ जाने से रोका। इस सच्चाई की वजह से विद्रोह का साथ देने की निर्णय करने की सम्भावना नहीं थी।’
आगे मुरियल लिस्टर के किताब ‘इंटरटेनिंग गांधी’ में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद स्विटजरलैंड में शांति के लिए अंतरराष्ट्रीय स्वंयसेवक संस्था चला रहे पियरे सेरेसोल से गांधी की मुलाकात के दौरान सरकार से सहयोग के मुद्दे पर हस्तक्षेप करते हुए गांधी को उद्धृत करती हैं। गांधी कहते हैं-
‘मैं 1914 में ऐसा नहीं सोचता था। तब मैं एक निष्कलंक नागरिक बनना चाहता था। इसलिए मैंने खुद को पूरी तरह ब्रिटिश सरकार के हवाले कर दिया. मुझे लगता था कि वे मेरे देश को अत्याचार से बचा रहे हैं। इसलिए मुझे लगा कि मुझे उनकी वैसे ही पूरे दिल से सहायता करनी चाहिए जैसे कोई ब्रिटिश करता है। मुझे रेड क्रॉस का काम करने को कहा गया। मैंने कहा ये शानदार है क्योंकि मैं किसी की हत्या नहीं करना चाहता था। लेकिन मैंने अपने दिल को किसी भरम में नहीं रखा। मैं खुद को भरमा नहीं सकता था कि रेड क्रॉस का काम हत्या से कम है। युद्ध में इसकी भी वही भूमिका है। यह सैनिकों को दूसरों की हत्या करने के लिए तैयार करता है। अगर उन्होंने मुझे बंदूक दी होती तो उनके प्रशिक्षण के बाद मैं उसे निश्चित रुप से चलाता भी, यह मुमकिन है कि ऐसा करते मुझे लकवा मार जाता।


मैं सोचता था कि युद्ध के समय पूरे दिल से सेवा करना मेरे देश की मुक्ति के लिए सहायक होगा। इसके पहले जब मैं दक्षिण अफ्रीका में था, जुलू विद्रोह फूट पड़ा. मेरी सहानुभूति जुलू लोगों के साथ थी। मुझे उनकी सहायता करके अच्छा लगा होता, लेकिन तब मेरे पास उनके लिए कुछ करने का प्राधिकार नहीं था। मैं इतना ताकतवर, अनुभवी या अनुशासित नहीं था। मैंने सोचा कि ब्रिटिश सरकारी व्यवस्था के साथ खड़ा होऊँगा तब व्यवस्था के भीतर एक आदमी की तरह मैं जो गलत हो रहा है उसे सही करने में सहायता कर पाऊँगा। मैंने ख़ुद को सरकार के हवाले कर दिया और मुझे स्ट्रेचर उठाने का काम दिया गया। यह सब मेरे लिए अच्छा था। चीफ़ मेडिकल अधिकारी मानवीय था और जब मैंने कहा कि मैं दूसरों के बजाय जुलू लोगों की सेवा करना चाहूँगा तो उसने आह भरी- यह मेरी प्रार्थनाओं का नतीजा है। आप देखिए कि जुलू बन्दियों को कोड़ों से पीटा जाता था और उनके घावों की कोई और  सेवा नहीं करना चाहता था तो मैंने दिन रात उनकी सेवा की। उन्हें जेलों मे रखा जाता था और औपनिवेशिक सैनिक हमें सेवा करते हुए बाहर से देखकर चिढ़ाते थे। वे चिल्लाते थे- तुम इन्हें मरने क्यों नहीं देते? विद्रोही! निग्गर!’
अब देखिए उसी गांधी को जो जुलू की सेवा करने के कारण विद्रोही और निग्गर जैसी अपमानजनक गाली तक सुनते थे वो सालों बाद भी इस सवाल से मुक्त नहीं हुए और उन्हें ‘स्ट्रेचर बियरर ऑफ़ एंपायर’ ही कहा गया. इतना ही नहीं साल 2015 में जोहान्सबर्ग में गांधी की इकलौती युवा प्रतिमा पर सफेद पेंट की बाल्टियां फेंकने की घटनाएं हुईं तो हाल में मिनियापोलिस के पुलिस अधिकारी डेरेक चौविन द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड की कुख्यात हत्या के बाद शुरू हुए आंदोलन में वाशिंगटन डीसी में महात्मा गांधी के प्रतिमा पर हमले भी हुए। लेकिन इस सबके बावजूद इस किताब के लेखक अशोक कुमार पांडेय इस पूरे प्रसंग जो एक मानीख़ेज टिप्पणी करते हैं उसमें ही गांधी पर उठे सभी सवालों का जवाब निहित है। लेखक कहते हैं- ‘यह भी कोई संयोग नहीं है कि अमेरिकी ब्लैक आंदोलन के नेता मार्टिन लूथर जूनियर और अफ्रीकी जनता की मुक्ति के सबसे बड़े नेता नेल्सन मंडेला ने गांधी गांधी को मॉडल की तरह सम्मान दिया और उन्हीं के अहिंसक नीतियों से मुक्ति संग्राम लड़ा। गांधी के सिंद्धांत मंडेला के काम आए थे गांधी अपने अफ्रीकी प्रवास में उनके काम नहीं आए थे।’ लेखक की एकमात्र इस मानीख़ेज टिप्पणी से उनके किताब की प्रमाणिकता सिद्ध हो जाती है।
इसी जाति और दलित के सवाल पर जब घनघोर अंबेडकरवादी गांधी पर सवाल करते हैं तो उसका भी जवाब इस किताब में ही मिल जाता है। गांधी के बारे में स्वंय अंबेडकर के दिए वक्तव्य से सभी सवाल ख़त्म हो जाते हैं। 1932 को जब कम्यूनल अवार्ड की घोषणा की गई तो अंबेडकर इसे बड़ी जीत मानते थे जो दलितों को हिन्दू पक्ष से अलग एक स्वतंत्र अस्मिता का दर्जा दे रहा थार जिसके तहत दलितों को अपना नेतृत्य चुनने का मौका मिल रहा था। लेकिन येरवडा जेल में बंद गांधी ने इस कम्युनल अवार्ड का विरोध किया। उनका कहना था दलित हिन्दू समाज का हिस्सा हैँ और उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा देना हिन्दुओं को बांटने की साजिश है। उन्होंने ये घोषणा कर दी कि अगर ये अवार्ड तय तिथि तक वापस नहीं लिया गया तो वो अनशन पर चले जाएंगे। अवार्ड वापस नहीं होने पर गांधी अनशन पर चले गए. अनशन ख़त्म कराने के लिए फ़ार्मूले निकालने की कोशिश हुई और अन्तत: जो समझौता हुआ और इस समझौते पर दस्तख़त के तुरंत बाद अंबेडकर ने कहा कि- ‘वो गांधी और अपने बीच बहुत कुछ समान पाकर चकित थे, बुरी तरह चकित। अगर आप ख़ुद को पूरी तरह दलित वर्गों के उत्थान के लिए समर्पित कर देते हैं. अंबेडकर ने गांधी से कहा- आप हमारे नायक बन जाएंगे।’ 
अशोक कुमार पांडेय की किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ इसको लेकर कई जगह समीक्षा छपी है लेकिन कमोबेश हर समीक्षा में वही बात है जो किस तरह सनातनी और कट्टर हिन्दूवादी संगठन आरएसएस गांधी से डरते थे, किस तरह वो अपने हिन्दू राष्ट्र के लिए गांधी को दुश्मन मानते थे औऱ इसलिए उन लोगों ने गांधी की हत्या कर दी। ये तो लगभग हर जगह आया ही है और इस पर तो चर्चा होती ही रहती है। मगर मैं चर्चा करना चाहता हूँ ये कि ये किताब गांधी हत्या पर लिखी किसी अंग्रेजी किताब से इस मायने में अलग और उल्लेखनीय है कि इसके लेखक ने कपूर आयोग के रिपोर्ट के हवाले से जो पुणे और दिल्ली पुलिस की शिथिल जांच और लापरवाही के पीछे के राजनीतिक कारणों को सवालों के दायरे में घेरा है वो सच में सिर्फ साहसिक अभिव्यक्ति नहीं बल्कि इतिहास की निर्मम समीक्षा और आलोचना भी है. हिन्दी में बहुत कम जगह ये बात आयी है कि उस समय बंबई और पुणे की पुलिस में आरएसएस के लोग भरे पड़े थे। बंबई और पुणे पुलिस ही नहीं दिल्ली पुलिस में भी। पुलिस का पूरा संप्रदायीकरण हो चुका था।  किताब के दूसरे खंड के छठे अध्याय ‘कपूर आयोग और सावरकर’ में लेखक लिखते हैं कि- ‘पूना की पुलिस पर आयोग की टिप्पणी है कि इस आंदोलन को मुस्लिम विरोधी रंग देने से वह आसानी से मोहित हो सकती थी। असल में पूरी रिपोर्ट को गौर से पढ़ते हुए 26 फ़रवरी, 1948 को पटेल को लिखे हुए नेहरू के ख़त की याद आ जाती है जिसमें उन्होंने लिखा था कि- ‘आरएसएस के बहुत सारे लोग हमारे दफ़्तरों और पुलिस में हैं.’ किताब के लेखक आगे लिखते हैं कि पुलिस का संप्रदायीकरण उस समय से लेकर आज तक संप्रदायिक हिंसा को रोकने में एक बड़ी बाधा बना हुआ है जिसका फायदा उठाकर षडयंत्रकारी गांधी हत्या करने में सफल हुए। साथ ही कपूर आयोग ने दिल्ली और बम्बई दोनों जगह की पुलिस अधिकारियों की कार्यवाही पर प्रश्न खड़े किए हैं और उसे लापरवाही और अक्षमता का अपराधी बताया।


मगर कपूर आयोग की रिपोर्ट में इससे और महत्वपूर्ण और चौंकाने वाली बात थी जिसकी चर्चा बहुत ही कम होती है। क्योंकि अगर इसकी चर्चा होनी शुरू हो जाए तो भारत के राजनीतिक इतिहास और आजादी आंदोलन के बड़े आइकन ध्वस्त हो जाएंगे। आखिर क्या वजह थी कि 20 जनवरी को गांधी के प्रार्थना सभा में बम धमाके के बाद भी पुलिस और सरकार गांधी के सुरक्षा को लेकर लापरवाह बने हुए थे। कपूर आयोग की एक बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी गांधी की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर है। हालाँकि आयोग ने सरदार पटेल पर गांधी की सुरक्षा को लगे आरोपों से उन्हें बरी किया है। लेकिन सुरक्षा व्यवस्था की ख़ामियों पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। जाने-माने कानूनविद और गांधी के सहयोगी रहे पुरुषोत्तम त्रिकमदास ने सवाल उठाया था कि आख़िर महात्मा जी से यह पूछने की जरूरत ही क्या थी कि प्रार्थना सभा में आने वालों की ली जाए या नहीं? उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी तो प्रशासन की थी। जवाब में दिल्ली पुलिस के डीसीपी डॉ. एम एस रंधावा ने कहा था कि अगर उन्हें गांधी हत्या के षडयंत्र के बारे में पता होता तो उन्होंने गृह मंत्री से उच्च स्तर की बैठक बुलाने की सिफ़ारिश की होती। यह आश्चर्यजनक है कि 20 तारीख को प्रार्थना सभा में बम फेंका गया, गिरफ़्तार मदनलाल पाहवा ने अपने बयान में अन्य लोगों के नाम बताए और लगातार कहता रहा कि ‘वह फिर आएगा’ लेकिन दिल्ली पुलिस को यह अंदाज़ा भी नहीं हुआ कि गांधी हत्या का षडयंत्र रचा जा रहा है! मुस्तैदी का आलम यह था कि 30 जनवरी को बिड़ला भवन में उस दिन एसपी ए एन भाटिया भी अनुपस्थित थे!
कपूर आयोग की ये टिप्पणी ये बताने के लिए काफ़ी है कि गांधी हत्या कोई वैचारिक उन्माद में किया गया तात्कालिक हिंसक प्रतिक्रिया भर नहीं था बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में एक गंभीर और सुनियोजित राजनीतिक षडयंत्र शामिल था जिसे बिल्कुल माफियोसी अंदाज़ में प्रोफेशनली अंज़ाम दिया गया था। अगर गांधी की हत्या कोई तात्कालिक उन्माद या प्रतिक्रिया भर होता तो आज भी क्यों आरएसएस और कट्टर हिन्दूवादी गांधी के तस्वीरों पर गोली दागते देखे जाते और कोई भगवाधारी ज़हर उगलने वाली सांसद गांधी हत्या को सही ठहरा कर सावरकर को हीरो साबित करने की साहस जुटा पातीं! और दुख तो तब होता है जब ये सब किसी कट्टर हिन्दू राष्ट्र में नहीं बल्कि लोकतांत्रिक और बहुलतावादी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में हो रहा है। कितना कष्टकारी है ये कबूल करना कि हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं और उसमें गांधी की तस्वीर और नाम के साथ हम गांधी के हत्यारे सावरकर की तस्वीर और नाम को भी नत्थी कर उस कायर सावरकर को आजादी का नायक घोषित कर रहे हैं जो एक बार नहीं कई बार अपनी रिहाई के लिए अंग्रेजी हुकूमत से माफी मांग चुका है। एक आज़ाद और लोकतांत्रिक मुल्क के सरकार के लिए ये चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात है।

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(लेखक कई मीडिया हाउस में सेवा दे चुके हैं। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।