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पाकिस्‍तान यात्रा अंतिम कड़ी : इस्लामी मुल्क से मैं लौट आया अपने देश, जहां न कोई डर और ना ही ख़ौफ़

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(हिंदी के वरिष्‍ठ लेखक असगर वजाहत 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में शिरकत करने पाकिस्तान गए थे। वहां लगभग 45 दिन घूमते रहे। लाहौर, मुल्तान और कराची में अनेक लोगों से मिले थे। संस्थाओं में गए थे। उन अनुभवों के आधार पर उन्‍होंने एक सफरनामा 'पाकिस्तान का मतलब क्या' लिखा था, जो तब ज्ञानोदय में छपा था और उसके बाद ज्ञानपीठ ने उसे पुस्तक रूप में छापा था । उस पर आधारित कुछ अंश द फॉलोअप के पाठकों के लिए। प्रस्तुत है 12वां  और अंतिम भाग:)

असग़र वजाहत, दिल्‍ली:

कराची तक पहुँच कर यह सोचना वाजिब था कि काश मैं सिन्ध का ग्रामीण इलाका देख लूँ क्योंकि सिन्ध का ग्रामीण क्षेत्र आज भी कुछ बुनियादी समस्याओं से उलझा हुआ है। मुझे यह मालूम था या सुना था कि सिन्ध के ग्रामीण क्षेत्रों में किसी स्थानीय ज़मींदार जिन्हें सिन्धी में ‘वढे़रा’ कहते हैं, कि मदद के बग़ैर कोई नहीं जा सकता। मेरे पास सिन्ध में कराची के अलावा और कहीं जाने का वीज़ा न था। दिल में एक उम्मीद थी कि शायद सिन्ध के ग्रामीण जीवन को किसी वढ़ेरा के माध्यम से देख सकूँगा। मैं होटल से एमाद के घर शिफ्ट हो गया था। मुझे यकीन था कि कराची के महँगे से महँगे क्लबों का मेम्बर और कराची की सबसे महँगी कालोनी में रहने वाले एमाद ज़रूर किसी सिन्धी वढे़रे को जानता होगा जो मुझे सिन्ध के ग्रामीण इलाके में ले जाएगा। एमाद से जब मैंने यह पूछा कि क्या तुम सिन्धी वढे़रे को जानते हो तो वह चकरा गया।

 

”मैं सिन्ध के गाँव देखना चाहता हूँ। मुझे बताया गया है कि वहाँ मुझे कोई बढ़ेरा ही ले जा सकता है।“
”हाँ ये तो सच है।“
”तो तुम किसी सिन्धी बढे़रे को जानते हो?“
वह शायद नहीं, नहीं कहना चाहता था। उसने पूछा, ”आपकी यहाँ क्या देखना है?“
”बस यार...उनकी  ज़िन्दगी।“ मैंने कहा।
”बस समझ लीजिए कि अपने यहाँ, इंडिया में आज़ादी से पहले जैसे गांव थे वैसे ही आजतक सिन्ध में हैं।“ 
यह कह कर एमाद ने अध्याय बंद कर दिया। मैं समझ गया कि मैं नहीं जा सकता, लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और सेना के एक रिटायर्ड बिग्रेडियर से यही अनुरोध किया जो दूर के रिश्तेदारों के रिश्तेदार थे और कराची में अपना कारोबार करते थे।
उन्होंने सीधी सलाह दी और कहा, ”अगर कोई बढ़ेरा आपको ले भी जाये तो मत जाइएगा।“
”क्यों?“
”आपके पास वीज़ा नहीं है।“
”लेकिन वढे़रे।“
”एक हद तक आपको बचाएँगे...हाईवेज़ पर रेंजर गाड़ियाँ रोकते हैं...आप जानते हैं यहाँ के हालात क्या हैं...रेंजर आपको देख कर और आपसे बात करके आसानी से पता लगा लेंगे कि आप यहाँ के नहीं हैं और जब पता चलेगा कि एक ‘भारतीय’ छिप कर सिन्ध के इंटीरियर में जाना चाहता था तो...।“
”ठीक है...ठीक है...“ मैंने कहा।
”आप कुछ ऐसे लोगों से यहाँ, मतलब कराची में मिल सकते हैं जो सिंध के बारे में आपको बता सकते हैं।“ वे बोले।

पढ़ा और सुना था कि सिन्ध में अब भी हज़ारों एकड़ ज़मीन के ज़मींदार हैं। इलाकों में पाकिस्तान की सरकार का नहीं बढ़ेरों का राज चलता है। भुट्टो परिवार के पास इतनी ज़मीन है कि ट्रेन उनकी ज़मीन में दो घंटे चलती है। वढे़रों ने अपनी जेलें बना रखी हैं। पाकिस्तान के सरकारी कर्मचारी उनके संरक्षण में ही काम करते हैं आदि-आदि। मैं मानता हूँ इनमें से कई बातें मन-गढ़न्त या ग़लत भी हो सकती हैं लेकिन सिन्ध में आज क्या है, यह तो जानना ज़रूरी था न। मुस्लिम लीग शुरू से ही बड़े मुस्लिम सामन्तों की पार्टी रही है। यही वजह है कि मुहम्मद अली जिन्ना और सर मोहम्मद इक़बाल के सामन्तविरोधी विचारों और कुरआन शरीफ के समानता संबंधी संदेशों के बावजूद मुस्लिम लीग कभी सामन्तों पर  कोई अंकुश न लगा सकी। पाकिस्तान में आज भी ज़मींदारी व्यवस्था उसी तरह चलती है जैसे पहले थी। सिन्ध में राजनीति और सरकार की धुरी सामन्त हैं। सन् 1959 में निजी ज़मीन पर सीलिंग लगाई गयी थी जिसके तहत एक व्यक्ति 500 एकड़ सिंचित ज़मीन और 1000 एकड़ असिंचित ज़मीन रख सकता था। यह क़ानून परिवार नहीं, बल्कि व्यक्ति केन्द्रित था। सामन्तों ने अपनी ज़मीनों के झूठे-सच्चे बैनामे करके इस क़ानून से छुट्टी पा ली थी। यही नहीं, इस क़ानून में यह प्रावधान भी रखा गया कि अधिक उपजाऊ ज़मीनों के लिए सीलिंग का अलग पैमाना है जो सामन्तों के पक्ष में था।

 

 

पाकिस्तान की 61 प्रतिशत प्राइवेट भूमि के 88 प्रतिशत भू स्वामी

सन् 2000 के भूमि सर्वेक्षण के अनुसार पाकिस्तान की 61 प्रतिशत प्राइवेट भूमि के 88 प्रतिशत भू स्वामी पाँच एकड़ से कम भूमि के जोतदार हैं और 50 एकड़ तथा उससे ज़्यादा भूमि के मालिक केवल दो प्रतिशत हैं। ज़मीन के असमान स्वामित्व के कारण ही सिन्ध के ग्रामीण इलाकों में भयानक ग़रीबी है। ‘डेली टाइम्स’ 12 अगस्त, 2008 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार बटाईदारी व्यवस्था ही सिन्ध के अधिकतर भूमिहीन किसानों की दरिद्रता का कारण है। उत्पादन के साधन बदल गये हैं। टैक्टर और ट्यूबवेल आ जाने के बाद भी ज़मींदार और खेत जोतने वालों के बीच वही शताब्दियों पुराना रिश्ता है। ऐसी समाज व्यवस्था में बन्धुआ मजदूरों का होना लाजमी है। 1992 में बन्धुआ मजदूरी को गै़र कानूनी करार देने वाले कानून को ज़मींदार 1952 के टेनेन्सी एक्ट के आधार पर ख़ारिज करते हैं। अदालतों ने इस आधार पर बन्धुआ मजदूरों को बन्धुआ मानने से इंकार कर दिया है। दरअसल सिन्ध में सब कुछ स्थानीय सामन्तों के हाथ में है। आँकड़े नहीं है, लेकिन पाकिस्तान में सब जानते हैं कि सेना के बाद देश के सबसे बड़े जागीरदार लियाकत अली जटोई हैं जिनके पास 30,000 एकड़ ज़मीन है। जटोई अकेले नहीं हैं। उन जैसे बड़े भू-स्वामियों से सिन्ध भरा पड़ा है। यह भू-स्वामी गाँव, इलाके, कस्बे और शहरों को पूरी तरह कंट्रोल करते हैं, क्योंकि वही राजनीति में हैं और सरकारें भी वही बनाते हैं।

 

सिन्ध में जागीरदारों की निजी जेल
पाकिस्तान के अख़बारों में सिन्ध के जागीरदारों की निजी जेलों के बारे में खबरें छपती रहती हैं। मोनू भील का मामला इसका एक बड़ा उदाहरण बना है। हिन्दू, दलित आदिवासी मोनू भील ज़िला संघार के एक प्रभावशाली सामन्त अब्दुल रहमान मारी की ज़मीनों पर बरसों से काम करता था। सामन्त ने किसी बात पर नाराज़ होकर मोनू के परिवार को अपनी निजी जेल में बन्द कर दिया था। यह बात मई 1998 की है। मानव अधिकार आयोग ने पाकिस्तान सिन्ध हाईकोर्ट के आदेश पर पुलिस द्वारा मोनू के परिवारजनों को मुक्त करा दिया था। लेकिन सामन्त के गुंडों ने फिर उनका अपहरण लिया था। अन्ततः पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने सिन्ध के मुख्य सचिव और इंस्पेक्टर जरनल पुलिस को आदेश दिया था कि मोनू के परिवार को बरामद किया जाये। इलाके में डी आई जी राना सलीमउल्ला खाँ के अनुसार उन्होंने पता लगा लिया था कि मोनू के परिवार को कहाँ रखा गया है और वे उन्हें मुक्त ही कराना ही चहाते थे कि सिन्ध के मुख्यमंत्राी अरबाब रहीम ने उनका न केवल तबादला कर दिया, बल्कि उनको ‘सस्पेंड’ भी कर दिया। कारण यह था कि सरकार अगर शक्तिशाली सामन्त अब्दुल रहमान मारी को हाथ भी लगाती तो ‘गिर’ जाती क्योंकि मारी राजनैतिक रूप से अत्यन्त प्रभावशाली पीर के निकटतम व्यक्ति थे। और तब से यह मामला ठंडा पड़ा हुआ है।

 

 

 

पाकिस्तान के 3 मिलियन हिन्दुओं में अस्सी प्रतिशत दलित
सिन्ध खेतिहर बन्धुआ मजदूर दलित समुदाय के हैं जिनमें अधिकतर हिन्दू हैं। कुछ मुसलमान भी बंधुआ मजदूर हैं। एक मोटे अन्दाजे के मुताबिक पाकिस्तान  के 3 मिलियन हिन्दुओं में अस्सी प्रतिशत दलित हैं। और बताते हैं कि वे बयालीस गोत्र में बँटे हुए हैं। प्रमुख भील, मेघवाल, ओध और कोल्ही माने जाते हैं। एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि सिन्ध के मुसलमान सामन्त मुसलमान दलितों की तुलना में हिन्दू दलितों को अपने काम में लगाना अधिक पसन्द करते हैं क्योंकि मुसलमान दलित को इस्लाम का एक सहारा तो रहता है, जबकि हिन्दू दलित पूरी तरह आश्रयहीन और इस तरह अपने सामन्त पर निर्भर रहता है।....समन्दर के किनारे शानदार डिफेंस काॅलोनी में एक बंगला अपने दोस्त एमाद का है। चमचमाती, फलफलाती और नौकरों से भरी कोठी देखकर खु़शी हुई। अपना एक दोस्त यहाँ तो पहुँचा। एमाद ने मुझे एक कमरा दे दिया और अपने नौकरों से मेरा पूरा ख़्याल रखने को कहा। फिर उसने बताया कि उसका ‘कुक’ दुनिया के लगभग सभी उल्लेखनीय देशों के खाने पका लेता है। मैं उससे कुछ भी पकाने की फरमाइश कर सकता हूँ। मैंने उससे इटैलियन ‘स्पेगेटी विद मीट बाल्ड’ पकाने की फरमाइश कर दी। चूँकि दिन के ग्यारह बजे थे और दोपहर के खाने में काफी देर थी इसलिए एमाद ने कहा कि अगर मैं चाहूँ तो पास ही एक बाज़ार में चल सकता हूँ। मुझे पत्नी के लिए हाशिम का सुरमा ख़रीदता था।

 

 

लाहौर में ‘चश्मा तोड़ सुरमा’
बरेली की तरह पाकिस्तान में भी बहुत अच्छे सुरमे बनते हैं। लाहौर में मैंने एक बोर्ड देखा था ‘चश्मा तोड़ सुरमा’ मतलब इतना अच्छा सुरमा है कि आप चश्मे को तोड़ देंगे...मतलब उसकी ज़रूरत ही न बचेगी। मैं परदेश में चश्मा तोड़ने का रिस्क नहीं लेना चाहता था। इसलिए आगे बढ़ गया था। हम लोग मार्केट गये। शानदार, जैसी काॅलोनी वैसी मार्केट। एमाद ने अपने ड्राइवर को एक जगह गाड़ी रोकने को कहा और मुझसे बोला, ”चलिए...मुझे  अपना चश्मा भी लेना है।“ हम दोनों उस ब्लाक की तरफ़ बढ़े तो देखा वहाँ ‘पैरामिलेट्री फोर्स’ की बख्तरबन्द गाड़ी खड़ी हैं। एक एम्बुलेस खड़ी है। आगे जाने का रास्ता बंद किया हुआ है।
”ये क्या है?“ एमाद ने पुलिस से पूछा।
”बंद है...अन्दर नहीं जाना।“
”क्यों? मुझे सामने वाली दुकान से चश्मा लेना है।“
”उधर तो नहीं जा सकते।“
”क्यों?“
” इजाज़त नहीं है।“
”बात क्या है...कुछ तो बताओ।“ एमाद ने प्यार से पूछा।
”उधर एक अमरीकन चश्मा लेने आया है।“
एमाद ने मुझसे कहा, ”चलिए...जब तक वह  चला नहीं  जाएगा...ये लोग किसी को अन्दर नहीं जाने देंगे।“
”क्यों?“ मैंने पूछा।
”पाकिस्तान में अमरीकन की जान को खतरा है।“
हम गाड़ी में बैठ चुके थे।
”क्यों?“
”लोग अमरीकनों से नफ़रत करते हैं।“
”यार पाकिस्तान का सबसे बड़ा दोस्त अमरीका है।“
”हाँ अमरीकन पैसे पर ही मुल्क चल रहा है।“
”फिर?“
”यही नहीं...यहाँ जो अच्छे बड़े खाते-पीते लोग हैं सबकी अमेरीका में प्राॅपर्टी है, बच्चे वहाँ पढ़ रहे हैं... यहाँ ‘डब्ल पासपोर्ट’ का सिस्टम है न? कि आप दो पासपोर्ट एक साथ रख सकते हैं तो बहुतों के पास अमरीकन पासपोर्ट भी है।“
”फिर ये नफ़रत?“
”अमरीका ने जब सोवियत यूनियन के खि़लाफ़ इस्लामी मुजाहेदीन को खड़ा किया था तो सब खु़श थे...अब...अफगानिस्तान में अमेरीका उन्हीं से लड़ रहा है। ड्रोन हमले, अमेरीकी पाकिस्तान में इस तरह घूमते हैं जैसे अपने आँगन में टहल रहे हों। इस्लामी जिहादियों को इतने ऊपर उठाने के बाद अमेरीका चाहता है कि अब उन्हें धूल चटा दी जाये और इस काम में पाकिस्तान उनकी मदद करे। या पाकिस्तान को मजबूर कर दिया जाये कि उनकी मदद करे। अभी कोई महीने भर  पहले पाकिस्तान में अमेरीकी  सफ़ीर ने बयान दिया था कि अमेरीका का ये हक़ है कि वह पाकिस्तान के अन्दरूनी मसलों में देखल दे क्योंकि अमेरीका पाकिस्तान को इतना पैसा देता है...।“
”क्या नफरत इतनी ज़्यादा है कि उन्हें देखते ही...।“
वह मेरी बात काट कर बोला, ”शायद ऐसा तो नहीं है लेकिन अब लोगों की समझ में आ रहा है कि अमेरीका या कहिए ‘वेस्ट’ ने अपने फायदे के लिए मुस्लिम मुल्कों के साथ क्या किया था और क्या कर रहा है।“
”हाँ तुम्हारी इस बात से तो मैं सहमत हूँ...देखो तुर्की में ख़लीफ़ा को हटा दिए जाने के बाद कट्टरपंथी इस्लाम या यह विचार कि इस्लाम के नाम पर राज्य बनाया जा सकता है बिल्कुल ‘बैक ग्राउंड’ में चला गया था, लेकिन ईरान की इस्लामी क्रान्ति ने उसे फिर ‘फोर फ्रंट’ पर खड़ा कर दिया है। ईरान में सब क्यों हुआ? सब जानते हैं कि ब्रिटेन और अमेरीका ने ईरान के तेल पर अपना कब्ज़ा बनाये रखने के लिए ईरान की चुनी हुई लोकतान्त्रिक सरकार का तख्ता पलट कर शाह को ईरान की सत्ता सौंपी थी। उसकी प्रतिक्रिया में ईरान का इस्लामी इन्कलाब हुआ था। तुम सोचो अगर सन् 1955 से ईरान में एक डेमोक्रेटिक सरकार रही होती तो इस्लामी कट्टरवाद वहाँ कैसे जडे़ं जमा सकता था? जैसे तुर्की में अब तक नहीं जमा पाया?“
”यही सब बातें हैं...इराक है...इजरायल के पीछे अमरीकी सपोर्ट है।“ वह बोला।
”ये बताओ क्या पाकिस्तानी फौज हक़ीक़त में तालिबान से लड़ रही हैं? या दिखावा कर रही है?“ मैंने पूछा।
”शायद दोनों ही बातें हो रही हैं।“ वह बोला।
”ये कैसे हो सकता है?“
”अगर आपका हाथ किसी पत्थर के नीचे दबा हो तो आप बहुत ताक़त लगा कर हाथ खींच भी नहीं सकते और हाथ को पत्थर के नीचे दबा भी नहीं रहने देंगे। 

 

 

वाघा बार्डर पर दोस्तों का दोस्ताना का इन्तज़ाम

घर वापसी हो रही थी। वाघा बार्डर पर दोस्तों ने ‘दोस्ताना किस्म’ का इन्तज़ाम किया हुआ था। कस्टम और इम्मीगे्रशन में कोई परेशानी नहीं हुई। कुली के पीछे पाकिस्तान की सरहद पार की और सामान इंडियन कुली ने उठा लिया। दोनों कुलियों की वर्दियाँ एक नहीं थीं लेकिन उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है, दोनों कुली एक जैसे थे। अमृतसर में एक होटल के रिसेप्शन पर पूछा गया कि मैं कहाँ से आ रहा हूँ।  मैंने बताया, लाहौर से।
रिसेप्शन पर बैठे सरदार जी के चेहरे पर परेशानी के निशान नुमायाँ हो गये।
”पासपोर्ट कहाँ का है?“ उन्होंने पूछा।
”इंडियन है।“ मैंने जवाब दिया।
सरदार जी के चेहरे से परेशानी के निशान गायब हो गये और उन्होंने खु़द का, ”पाकिस्तानी पासपोर्ट होता तो हमें हाथ जोड़कर मना करना पड़ता।“
”मतलब मेरे पास पाकिस्तानी पासपोर्ट होता तो आप कमरा न देते।“
”हाँ।“
”लेकिन क्यों? पाकिस्तानी पासपोर्ट पर कड़ी पूछताछ के बाद इंडिया का वीज़ा लगता है, मतलब भारत सरकार, भारत आने की इजाज़त देती है तो आप कमरा क्यों न देते?“
”देखो जी...ऐसा है...क़ानून ये है कि कोई विदेशी ठहरता है तो उसके पासपोर्ट वीजा की काॅपी ‘उन्हें’ भेज देते हैं। लेकिन पाकिस्तान के मामले में ‘वो’ हमें बहुत परेशान करते हैं। कहाँ गया था? किससे मिला था? उससे मिलने कौन आया था
...कितने बजे निकला था? कब लौट कर वापस आया...“ सरदार जी बताने लगे।

 

मुझे याद आया कराची में किसी ने यह शिकायत भी की थी कि पाकिस्तानियों को भारत के होटलों के कमरे नहीं मिलते। फिर याद आया वाघा बार्डर क्रास करते ही जैसे भारत की सीमा में आते हैं; एक बड़ा-सा बोर्ड लगा है जिस पर लिखा  है। ‘संसार के सबसे बडे लोकतंत्रा में आपका स्वागत है।’ होटल में सामान रख कर, नहा-धोकर कमरे से बाहर आया। अमृतसर की दोपहर लाहौर की दोपहर जैसी थी। फ़र्क़ यह था कि अमृतसर लाहौर जैसा खू़बसूरत नहीं नज़र आ रहा था। लेकिन जान-पहचान का रिश्ता उसे खू़बसूरत बना रहा था। ये सड़कें और बाज़ार दसियों बार के देखे हैं। इसी सड़क पर आगे चलकर अमृतसर का स्टेशन है जिस पर भीष्म साहनी की कहानी है, ‘अमृतसर आ गया’ लिखी गयी है। मैं अमृतसर में आमतौर पर तन्दूरी पराँठा और छोले खाता हूँ लेकिन इस वक़्त पता नहीं क्यों किसी एयरकंडीशंड रेस्त्राँ में बैठने का मूड़ बन गया था। पास ही एक फैंसी किस्म के होटल में रेस्त्राँ बार के अंदर चला गया। दूसरी मंजिल पर शीशे की बड़ी खिड़कियों से बाहर का दृश्य कुछ सुन्दर नज़र आ रहा था। अन्दर ए.सी. ने माहौल को काफी खु़शगवार बना रखा था। ‘बार’ में सन्नाटा था। दोपहर ‘मैकशों’ के लिए मुनासिब वक़्त नहीं है। मुझे कुछ देर बाद लगा कि डेढ़ महीने के एक मुश्किल सफ़र को पूरा करके लौट आया हूँ। खु़शी और इत्मीनान। मैं एक इस्लामी मुल्क देख आया हूँ। जैसा भी हूँ, मैं मुसलमान हूँ। अब मैं लौट कर लोकतंत्र में आ गया हूँ। चाहे जितनी ख़राबियाँ हों लेकिन मैं इस लोकतंत्र में पाकिस्तान का ‘हिन्दू’ या ‘ईसाई’ नहीं हूँ। मैं कादयानी भी नहीं हूँ...मैं जो हूँ वो हूँ...मुझे न तो अपने धार्मिक विश्वासों की वजह से कोई डर है और न अपने विचारों की वजह से कोई ख़ौफ है...मैंने एक गहरी साँस ली...सोफे की पुश्त से टिक गया...। (समाप्‍त)

 

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पहला भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: हिंदी के एक भारतीय लेखक जब पहुंचे पाकिस्‍तान, तो क्‍या हुआ पढ़िये दमदार संस्‍मरण

दूसरा भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें:  पड़ोसी देश में भारतीय लेखक को जब मिल जाता कोई हिंदुस्‍तानी

तीसरा भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: आतंकवाद और धर्मान्धता की जड़ है- अज्ञानता और शोषण

चौथा भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: हिन्दू संस्कारों की वजह से मैं अलग प्लेट या थाली का इंतज़ार करने लगा

पांचवां भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: दरवाज़े पर ॐ  लिखा पत्‍थर और आंगन में तुलसी का पौधा

छठवां भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: पत्थर मार-मार कर मार डालने के दृश्य मेरी आँखों के सामने कौंधते रहे

सातवां भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: धर्मांध आतंकियों के निशाने पर पत्रकार और लेखक

आठवां भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: मुल्तान में परत-दर-परत छिपा हुआ है महाभारत कालीन इतिहास का ख़ज़ाना

नौवां भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: कराची के रत्‍नेश्‍वर मंदिर में कोई गैर-हिंदू नहीं जा सकता

दसवां भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: अपने लगाए पेड़ का कड़वा फल आज ‘खा’ रहा है पाकिस्तान

11वां भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: कराची में ‘दिल्ली स्वीट्स’ की मिठास और एक पठान मोची

 

(असग़र वजाहत महत्त्वपूर्ण कहानीकार और सिद्धहस्त नाटककार हैं। इन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। ये दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्‍लामिया में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।

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