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साबरमती का संत-41: गांधी ने कहा था, मरीज की लाश को वेंटिलेटर पर डालकर गरीब परिवार का आर्थिक बलात्कार

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। पेश है,  41 वीं किस्त -संपादक। )

कनक तिवारी, रायपुर:

संसार में केवल गांधी बोले थे कि वे रोज़ अपने को सुधारते हैं। पीढ़ियां और इतिहासकार उनकी आखिरी बात को सच मानें। विपरीत, विसंगत और विकृत विचारों के किराए के भाषणवीर गांधी-विचार के सरोवर में डूबकर नहा रहे हैं। खुद के मन से बासी विचारों की सड़ांध बाहर नहीं निकालते। गांधी तो नदी बने ‘चरैवेति‘ के सिद्धांत के मनुष्य आचारण की तरह वक्त के आयाम में लगातार बह रहे हैं। आज होते तो लुटते आदिवासियों के साथ खड़े होकर गोली भी खा सकते थे। उनकी करुणा का क्रोध सड़कों पर अस्मत लुटाती दलित स्त्रियों की धमनियों के लिए शीलरक्षक खून बन जाता। उनका अठारह सूत्रीय रचनात्मक कार्यक्रम दफ्तर के कूड़े के डिब्बों में डाल चुके मंत्री गांधी प्रवक्ता बने अखबारों के पहले पृष्ठ पर विज्ञापित होते टर्रा रहे हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में गांधी विरोधी उनकी ही विचारधारा का मुंह नोच रहे हैं। जेहन और नीयत में गांधी की इंसानी मोहब्बत को नापने का थर्मामीटर देश के सत्ता प्रतिष्ठान में ही नहीं है। हर पांच साल में गांधी के पक्ष विपक्ष में खड़े होकर नेताओं के विकल्प सत्ता की चाबी जेब में डाल लेते हैं। गांधी अपनी मातृभूमि की ऐतिहासिकता की नीयत थे। उनके सियासी, प्रशासनिक, वैचारिक वंशजों ने उन्हें मुल्क की नियति नहीं बनाया। जश्नजूं भारत फिर भी गांधी के नाम पर इतिहास को लगातार गुमराह करते रहने से परहेज़ नहीं करेगा क्योंकि उसे आइन्स्टाइन की भविष्यवाणी को सार्थक करना है कि आने वाली पीढ़ियां कठिनाई से विश्वास करेंगी कि हाड़ मांस का ऐसा कोई व्यक्ति धरती पर कभी आया था।

 

 

भारत एक उत्सवधर्मी देश है। रोज़ कहीं न कहीं, कोई न कोई त्यौहार लोकजीवन के गद्य को मनुष्य बनाने की कविता की सांस्कृतिक धर्मिता से आंजता रहता है। धर्म और संस्कृति के नाम पर यात्राएं, जुलूस, यज्ञ, रोज़ाअफ्तार पार्टियां, भजन, मंदिर-मस्जिद जैसे अनुष्ठान देश को दैहिक, आर्थिक, वैचारिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक चिंताओं से अस्थायी सही, छुटकारा कराते रहने का आसरा तो हैं। त्यौहारों की रूढ़ परंपरा में वाहवाही लूटने, दबदबा बढ़ाने, छवि चमकाने के व्यवस्थाजनित आयोजन भी नागरिक जीवन में लदफंद गए है। ‘बिल्ली के भाग से छींका टूटा‘ की कहावत के मुताबिक हमारे कई पुरखे अपने जन्म, मृत्यु, कर्म और उपलब्धियों के कारण आयोजन का मौका होते यादों की झोली से आ गिरते हैं। सरकारों, संस्थाओं, सियासी लोगों और कई पेशेवर खटरागियों की आंखें फड़कती रहीं कि कब गांधी 150 बरस के हों।   उनका नाम जपते साल भर लोकप्रतिष्ठा की टीआरपी पार की जाए। गांधी 2 अक्टूबर, 2019 को आ ही गए। कुछ नहीं हुआ। सब टांय टांय फिस्स हो गया। अगली 30 जनवरी हर बार की रस्मअदायगी को नहीं मरे। उन्हें साल भर यादों के वेंटिलेटर पर जिंदा जो रखा जा रहा है।

 

गांधी का जीवन एक औसत व्यक्ति की तरह था। देहधरे के दोष की तरह बुराइयों के मकड़जाल उस पर लिपटते भी रहे। वेश्या, चोरी, सिगरेट, शराब, मांसाहार, ब्रम्हचर्य बनाम यौन परस्त्री का आकर्षण वगैरह अच्छे बुरे अनुभवों और आमंत्रण की औसत जिंदगियों की तरह गांधी में भी आवक जावक का लेखा जोखा रहा है। यह सरासर गलतबयानी है कि गांधी तृतीय श्रेणी और एक गाल में थप्पड़ खाकर दूसरा गाल सामने करने के हिमायती थे। उनकी अहिंसा में अभय था। उसका स्त्रोत महाभारत की गीता में है। उन्होंने कृष्ण और अर्जुन दोनों भूमिकाओं को अपने तईं गड्डगड भी किया। महाभारत की भोतिक हिंसा में उन्होंने और विनोबा ने अहिंसा की विजय ढूंढ ली। वे वांगमय में अकेले हैं। उनका मर्म यदि हर भारतीय समझे तो पूरब का यह देश रोशन रहने के लिए विचारों में बांझ नहीं रहेगा। हिंदू धर्म को हिंदुत्व का समानार्थी बनाने वाले भाषा विन्यास के लालबुझक्कड़ और बहुरूपिए मंदबुद्धि नहीं हैं। वे गांधी के अंधे भक्तों से कहीं ज्यादा उनकी इबारत की धार को समझते हैं। वे नहीं चाते लोग गांधी को पढ़ें और उनके पास जाएं। उनसे संवाद करें। जिरह करें। उनकी कालजयी मुस्कराहट मेें भी वेदना को देखें जो पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति की जीवन की सांस थी। क्या जरूरत है सरकारी सब्सिडी लेकर मक्का मदीना जाने या नहीं जाने का वितंडावाद बनाने की। क्यों जरूरी है कि वोट बैंक पुख्ता करने के लिए चुक गए बुजुर्गों को विचार अनाथालय बनाते तीर्थ यात्रा में रेवड़ बनाकर भेज दिया जाए। क्या जरूरत है अय्याश मंत्रियों को करोड़ों रूप्यों की खर्चीली जिंदगी में फबते रहने की।

 

गांधी ने सौ बरस के पहले कहा था। ऐसे भी डाक्टर हैं और रहेंगे भी जो मरीज की लाश को वेंटिलेटर पर डालकर उसके गरीब परिवार का आर्थिक बलात्कार करेंगे। वे जानते थे कि अंगरेजी नस्ल की अदालतों, जजों और उनमें कार्यरत कारिंदे और दलाल बना दिये जाने वाले वकीलों की फौज गलतफहमियों में उलझे भाइयों के पक्षकारों को अपना पेट पालने की रसोई के किराने का पारचून समझेगी। सब कुछ वैसा ही हो रहा है। गांधी निर्भीक और साहसी थे लेकिन उनकी भाषा में सभ्यता और षाइस्तगी थी। वे नामालूम, लाचार और कुछ टुटपुंजिए कलमकारों की तरह नहीं थे जो सेठियों के चैनल और अखबारों में सच और ईमान की मिट्टी पलीद करते अट्टहास भी करते हैं। दक्षिण अफ्रीका में साधन नहीं होने पर भी और फिर हिंदुस्तान में उनके अखबारों ने सच लिखा। उसकी मुस्कराहट के सामने बर्तानवी हुकूमत का गुस्सा अपनी हेकड़बाजी के बावजूद पानी भरता रहता था। गांधी ने मनुष्य की जिंदगी को कुदरत का करिश्मा बताया। वह गाय को गोमाता कहते अंगरेज के खिलाफ विद्रोह कर सकते थे। जाहिल जनता को बता सकते थे कि गोमाता वैतरणी पार कराती है। गाय की सेवा में अपना जीवन झोंक देने के बावजूद उन्होंने गाय को केवल पशु कहा।

 

जारी

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।