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सवाल: राष्ट्रवाद के ईंधन से चल रही भाजपा अचानक जातिवाद के पास क्यों लौट आई

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द फॉलोअप टीम, डेस्क

देश में राजनीत की शुरुआत कहां से हुई और इसका मुख्य उद्देश्य क्या है। इसको लेकर बड़ी बहस छिड़ सकती है। हम उस बहस का हिस्सा ना तो बनना चाहते हैं, ना ही उस बहस में आपको शामिल करने का हमारा कोई इरादा है। लेकिन अपने सात साल पूरा करने के बाद आखिरकार मोदी सरकार ने जाति की राजनीति पर क्यों यू-टर्न मार दिया। जो गाड़ी कथित राष्ट्रवाद से हाकी जा रही थी वो घूमकर जाति के अलग-अलग प्रश्नों पर क्यों लौट आई है। जाति की नहीं जमात की राजनीत कहने वाली पार्टी को क्यों लगा कि देश में ओबीसी के साथ न्याय नहीं हो रहा है। उन्हें न्याय दिलाने का तरीका क्या है। राज्यों को मिले अधिकार या फिर देश की बड़ी आबादी को ये संदेश देने है कि हम आपके प्रधान शुभ चिंतक हैं। कभी महंगाई, विदेश नीति और आतंकवाद पर विपक्ष को घेरने वाली बीजेपी के पास क्या 2024 के लिए कुछ बचा नहीं है। क्या पार्टी को लगता है कि उनके पास घिसा-पिटा नारा है, जिसे अब कोई सुनना पसंद नहीं करेगा। इसलिए राजनीति के पुराने स्टेडियम का जीर्णोद्धार किया जा रहा है और खुद को ओबीसी का प्रधान चिंतक साबित किया जा रहा है। भाजपा की जन आशीर्वाद यात्रा की अनुगूंज भी यही कहती है।


राजनीति का भगोड़ा सिस्टम
देश में राजनीति किस बात को लेकर हो रही है औऱ किस बात को लेकर होनी चाहिए, इस पर युवाओं और बुजुर्गों में बहस है। युवा चाहते हैं कि उनके पास सरकारी नौकरी हो, स्किलड युवक रोजगार की तलाश में है, तो पुराने नेता आज भी सेकुलर और महंगाई की रट लगाये हुए हैं। आर्थिक सवालों पर राज्य से लेकर केन्द्र सरकार तक फेल हो चुकी है। नए आर्थिक दर्शन की जगह पुराने को ही नया स्लोगन बनाकर अपना काम चला रही भारत की राजनीति को एक शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है। हर दल हर नेता मूल सवालों से भाग रहा है। कोई सांप्रदायिकता से लड़ने की बजाए भागने लगता है, शहर में रंगाई-पुताई को विकास बता कर उसके पोस्टर लगाने लगता है, तो कोई बेरोज़गारी और ग़रीबी के सवालों से भागने के लिए साम्प्रादायिकता को गले लगाने लगता है। सब भाग रहे हैं लेकिन भागते-भागते सब अंत में वहीं पहुंच गए हैं जहां से भागना शुरू किया था।

पहली बार दिखा सब एक है 
भला हो इस देश के उन नेताओं का जो हर बात पर दूसरे को गलत और अपने को सही बताते हैं, लेकिन किसी भी दल के किसी भी सांसद ने ओबीसी बिल का विरोध नहीं किया। संविधान के 127 वें संशोधन के तहत अब राज्यों को भी अपने हिसाब से ओबीसी सूची बनाने का अधिकार मिल गया है। लोकसभा में इस बिल के खिलाफ एक वोट नहीं पड़ा, इसका मतलब है देश का एक भी सांसद इसे जातिवाद नहीं मानता है। इसलिए क्यों और कैसे भारत की राजनीति धर्म और पहचान की राजनीति छोड़ ओबीसी के स्पेस में होड़ करने लगी है। इसके कारण जाति में नहीं हैं, बल्कि आर्थिक असफलता में हैं। इस आम सहमति को अब आप जैसे चाहें परिभात करें।


 

जाति है कि जाति नहीं
हर दल ये कहता है कि वे जात-पात की राजनीत नहीं करते। भले ही उनके नेता किसी नामित जाति के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि होते हैं। सात जुलाई के मंत्रिमंडल विस्तार को झारखंड बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष भी कितने गर्व के साथ मीडिया में ये गिना रहे थे कि कौन सी जाति से कितना मंत्री केन्द्र में बना है। कुछ ऐतिहासिक और पहली बार हुआ है, 27 ओबीसी मंत्री बने हैं और 12 दलित मंत्री हैं। पोस्टर शहर-शहर लगाए गए धन्यवाद मोदी जी लिखा गया। जब ओबीसी मंत्री गिने जा सकते हैं तो देश में कितने ओबीसी हैं और दलित हैं वो क्यों नहीं गिने जा सकते हैं। ये सवाल उठ रहा है। जब राजनीति के लिए दूसरे धर्म की आबादी बताई जा सकती है तो राजनीति के लिए जाति की संख्या क्यों नहीं मालूम होनी चाहिए। राजनीति के पुराने स्टेडियम का जीर्णोद्धार किया जा रहा है जिसके उद्घाटन करने की होड़ मची है। ओबीसी बिल के बहाने हर दल अपने आपको ओबीसी हितैषी साबित करने पर लगा है। इस बात पर बहस नहीं हो रही है कि भारत में सिर्फ 2 प्रतिशत लोग ही अमीर क्यों हैं, क्या देश की आजादी के बाद से ऐसी कोई योजना नहीं बनी जो बाकी 80 करोड़ ग़रीब को भी अमीर बना दे।