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बिहार की राजनीति बनाम लोजपा: अगर 2005 में रामविलास के समर्थन से यूपीए की सरकार बन गई होती तो.....

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प्रियांशु, पटना:

साल 2005... देश बड़े बदलाव की ओर अग्रसर था। यूपीए-1 की सरकार आ चुकी थी। अटल बिहारी वाजपेई सत्ता से बेदखल किए जा चुके थे और बंटवारे के बाद बिहार में पहली बार विधासनभा चुनाव होना था। राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं। हां, 1990 से लगातार पंद्रह साल का राज था! मनमोहन सरकार में लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री और रामविलास पासवान उर्वरक मंत्री बनाए गए थे। लोजपा और राजद यूपीए का हिस्सा थी, दिल्ली सरकार में भागीदार थी।

नाउ कम टू द प्वाइंट... विधानसभा चुनाव में पासवान ने अकेले लड़ने का ऐलान कर दिया। किलेबंदी तेज़ कर दी गई। लोजपा में बड़े स्तर पर बाहुबलियों को शामिल किया गया। कोंग्रेस-राजद से नाराज़ उम्मीदवारों को जगह दी गई। कई सीटों पर सवर्ण छत्रपों को चेहरा बनाया गया। पासवान अब भी यूपीए का हिस्सा थे, केंद्र में मंत्री थे। कांग्रेस से दोस्ती निभाई, उनके खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारे लेकिन राजद के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।

यह बिहार की राजनीति का सबसे अनूठा प्रयोग था। लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में यूपीए ने 210 सीटों पर उम्मीदवार उतारे। 84 सीटें कांग्रेस को दी गई। इधर पासवान ने 178 सीटों पर उम्मीदवारों का एलान किया और बिहार की रेड कार्पेट एक नए मुख्यमंत्री का इंतजार करने लगी। नतीजों के बाद राजद को 75, कांग्रेस को 10 सीटें आई। भाजपा को 37, नीतीश को 55 सीटें मिली। एक खंडित जनादेश के बीच रामविलास पासवान 29 सीटें जीतकर किंगमेकर की भूमिका में आ चुके थे। इस चुनाव ने बिहार की राजनीति को नए सिरे से बदल दिया था क्योंकि अब पासवान जिसे चाहे उसे सीएम बना सकते थे।

यूपीए को समर्थन देकर सरकार बनाई जा सकती थी। लेकिन उन्होंने शर्त रखी, समर्थन उसे देंगे जो किसी मुस्लिम को मुख्यमंत्री बनाएगा। एक ऐसे दौर में जब लालू गद्दी नहीं छोड़ना चाहते थे और नीतीश अपने मौके के इंतजार में तड़प रहे थे, पासवान के फैसले ने दोनों को बैकफुट पर खड़ा कर दिया। लालू प्रसाद यादव ने प्रस्ताव को जैसे ठुकराया नीतीश लोजपा विधायकों को तोड़ने में जुट गए। एक एक करके लगभग 12 विधायकों को तोड़ा जा चुका था। कुछ ही दिनों में रामविलास पासवान की सियासत बिखड़ने लगी थी। 

हॉर्स ट्रेडिंग के बीच बाज़ार में बिहार की सियासत जैसे अस्थिर हुई, तत्कालीन राज्यपाल सरदार बूटा सिंह ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करते हुए दोबारा चुनाव का एलान कर दिया। ये रामविलास पासवान और लालू प्रसाद यादव के सियासी करियर को सबसे बडा झटका था। नवंबर में दोबारा चुनाव हुए, एम+वाई का एम जदयू में जा चुका था, बिहार ने नीतीश को 88 और भाजपा को 55 सीटें देकर स्पष्ट बहुमत से सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। राजद को 54 और किंगमेकर का किरदार निभाने वाली लोजपा को 10 सीटों पर संतोष करना पड़ा।

पासवान के फैसले ने ना केवल उनके सियासी जमीन को नुकसान पहुंचाया बल्कि लालू-राबड़ी के पंद्रह साल के शासन पर भी विराम लगा दिया। इस चुनाव में लालू प्रसाद यादव की सियासत के मजबूत महल को ढाह दिया गया, राजद अब विपक्ष की भूमिका में थी, रामविलास पासवान केंद्र की राजनीति में हमेशा के लिए लौट गए और नीतीश कुमार बिहार की सियासत की धुरी बन गए।
एक सवाल जो बीच में रह गया... यदि 2005 में पासवान के समर्थन से यूपीए की सरकार बन गई होती तो नीतीश और भाजपा अपने वर्तमान स्वरूप में इतने मजबूत होते..?

(माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्‍वविद्वालय के उपाधि याफता प्रियांशु स्‍वतंत्र पत्रकार हैं।

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।