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विवेक का स्‍वामी-15: जिसका हृदय गरीब-वंचितों के लिए द्रवीभूत हो वही महात्मा अन्‍यथा दुरात्मा

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कनक तिवारी, रायपुर:

अपने शिष्य आलासिंगा पेरूमल को 1894 में एक पत्र में विवेकानन्द ने लिखा था, ‘‘बीस करोड़ नर-नारी जो सदैव गरीबी और मूर्खता के दलदल में फंसे हैं, उनके लिए किसका दिल रोता है? उनके उद्धार का क्या उपाय है? कौन उनके दुःख में दुःखी है? वे अन्धकार से प्रकाश में नहीं आ सकते, उन्हें शिक्षा नहीं प्राप्त होती। उन्हें कौन प्रकाश देगा, कौन उन्हें द्वार द्वार शिक्षा देने के लिए घूमेगा? ये ही तुम्हारे ईश्वर हैं। ये ही तुम्हारे इष्ट बनें। लगातार इन्हीं के लिए सोचो। इन्हीं के लिए काम करो। इन्हीं के लिए निरन्तर प्रार्थना करो। प्रभु तुम्हें रास्ता दिखाएगा। उसी को मैं महात्मा कहता हूं जिसका हृदय गरीबों के लिए द्रवीभूत होता है। अन्यथा वह दुरात्मा है। आओ, हम लोग अपनी इच्छाशक्ति को एकता के भाव से उनकी भलाई के लिए लगातार प्रार्थना में लगायें। हम अनजान, बिना सहानुभूति के, बिना मातमपुर्सी के बिना सफल हुए मर जायेंगे, लेकिन हमारा एक भी विचार नष्ट नहीं होगा। वह कभी न कभी फल लाएगा।‘ (वि.सा. 3/343)। ‘आम जन ही राष्ट्र है‘ जैसा कथन स्वामी विवेकानन्द के पहले अन्य किसी राष्ट्रीय नेता के मुंह से सुनाई नहीं पड़ा था। अप्रतिहत बुद्धिजीवी और कुलीन व्यक्ति होने के बावजूद उन्होंने बुद्धिवादिता और कुलीनता को जनता की सेवा के उत्तरदायित्व से जोड़कर ही देखा था। उन्होंने एक बार कहा था ”When the masses will wake up, ‘they will come to understand your opperession of them, and by a puff of their mouth you will be entirely blown away! It is they who have introduced civilization amongst you; and it is they who will then pull it down.’ 

 

 

यह ज्योतिष शास्त्र की भविष्यवाणी नहीं थी बल्कि एक राजनीतिक विश्लेषक अपनी आत्मविश्वासपूर्ण संभावनाओं का बीजगणित विश्व चिंतकों के सामने व्याख्यायित कर रहा था। विवेकानन्द पहले ऐसे विचारक हैं जिन्होंने बेलाग निश्चयात्मक भाषा में कहा था कि भविष्य में पहला शूद्र अर्थात् सर्वहारा राज्य रूस में स्थापित होगा। विवेकानन्द ने उसके बाद चीन में सर्वहारा के राज्य की स्थापना का भी भविष्यमूलक दावा किया था। वह 1949 में चीनी साम्यवादी क्रान्ति की सफलता के रूप में स्थापित हुआ। अपने भावुक जोश में विवेकानंद ने यह कहा था ‘तो भी एक ऐसा समय आएगा, जब शूद्रत्व सहित शूद्रों का प्राधान्य होगा, अर्थात् आजकल जिस प्रकार शूद्र जाति वैश्यत्व अथवा क्षत्रियत्व लाभ कर अपना बल दिखा रही है, उस प्रकार नहीं, बल्कि अपने शूद्रोचित धर्म कर्म सहित वह समाज में आधिपत्य प्राप्त करेगी।  पाश्चात्य जगत् में इसकी लालिमा भी आकाश में दीखने लगी है, और इसका फलाफल विचार कर सब लोग घबराये हुए हैं। सोशलिज़्म, अनार्किज़्म, निहिलिज़्म आदि सम्प्रदाय इस विप्लव की आगे चलनेवाली ध्वजाएं हैं। युगों से पिसकर शूद्र मात्र या तो कुत्तों की तरह बड़ों के चरण चाटनेवाले या हिंसक पशुओं की तरह निर्दयी हो गये हैं। फिर सदा से उनकी अभिलाषाएं निष्फल होती आ रही हैं। इसलिए दृढ़ता और अध्यवसाय उनमें बिल्कुल नहीं हैं।‘ (वि. सा. 9/219) 

उन्होंने दो टूक कहा ‘‘सर्वसाधारण को शिक्षित एवं उन्नत कीजिए। इसी तरह एक जाति का निर्माण होता है। हमारे सुधारकों को यही नहीं मालूम कि कहां चोट है, और वे विधवाओं का विवाह कराके देश का उद्धार करना चाहते हैं; क्या आप यह मानते हैं कि किसी देश का उद्धार इस बात पर निर्भर है कि उसकी विधवाओं के लिए कितने पति प्राप्त होते हैं? और न इसके लिए धर्म को ही दोषी ठहाराया जा सकता है; क्योंकि सिर्फ़ मूर्ति पूजा से यों कोई अंतर नहीं पड़ता।     सारा दोष यहां हैः यथार्थ राष्ट्र जो कि झोपड़ियों में बसता है, अपना मनुष्यत्व विस्मृत हो चुका है, अपना व्यक्तित्व खो चुका है। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, हरेक के पैरों तले कुचले गये वे लोग यह समझने लगे हैं कि जिस किसी के पास पर्याप्त धन है, उसी के पैरों तले कुचले जाने के लिए ही उनका जन्म हुआ है। उन्हें उनका खोया हुआ व्यक्तित्व वापस करना होगा। उन्हें शिक्षित करना होगा। मूर्तियां रहें या न रहें, विधवाओं के लिए पतियों की पर्याप्त संख्या हो या न हो, जाति प्रथा दोषपूर्ण है या नहीं, ऐसी बातों से मैं अपने को परेशान नहीं करता।‘‘ (वि.सा. 2/365)

 

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।