logo

पद्मश्री सम्मान मिलने के बाद मंसूरी के मुख से टपका मधु, बोले झारखंड से मिले प्यार का एहसान है....

14712news.jpg

शहरोज कमर, रांची:
गांव छोड़ब नाहीं...जैसे चर्चित गीत के रचयिता और नाम के अनुरूप अपनी खराशभरी आवाज में उसे गुंजायमान करने वाले गायक अब पद्मश्री मधु मंसूरी हंसमुख हो चुके हैं। उनके गीत को जंगल, पहाड़, शहर-डगर और गांव-खलियान में प्रतिनिधि लोकगीत के दर्जा हासिल कर चुके हैं। पिछले साल भारत सरकार ने उन्हें सम्मान देने की घोषणा की थी, तब उनकी उम्र 73 साल थी, आज उन्हें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति भवन के भव्य दरबार हॉल में उन्हें अलंकृत किया, तो वह 74 वर्ष को पहुंच चुके हें।  

 

मधु मंसूरी हंसमुख ने झारखंड का मान-सम्मान बढ़ाया :: हेमन्त सोरेन - Lens Eye  News

 

25 जनवरी 2020 को जब उनके पास बधाई और शुभकामनाओं के फोन आने लगे, तो वो स्तब्ध रह गए थे। जब यकीन हुआ तो आंखें छलछला गईं। शब्द फूटा, जो भी हूं सब झारखंड के लोगों का प्रेम है। उनका एहसान है। जरा सकुचाते हुए तब बताया था कि जब उनकी उम्र महज 7 साल की रही होगी। 2 अगस्त 1956 की तारीख। रातू ब्लॉक के शिलान्यास का मौका था। मुख्य अतिथि रातू महाराज चिंतामणि शरणनाथ शाहदेव थे। उन्होंने घासीराम के गीत दूर देसे...को मधुर-मुखर स्वर में सुनाया था। तालियां तो बजनी ही थीं। गुनगुनाते तो थे। इस पहली प्रस्तुति के बाद गीत लिखना शुरू कर दिया। 4 साल बाद ही 10 दिसंबर 1960 को बड़ी सभा में स्वरचित गीत उनके कंठ का हार बना, पहलि रहलि हम गोरा के धागंरवा, आबे ही साहबेक पानी भरव्वा...।

 

झारखंड आंदोलन की कमोबेश हर छोटी-बड़ी सभा में उनके गीत नारे का रूप बनने लगे। राज्य बनने के बाद जब दर्द मिटा नहीं, तो उन्होंने उसे अल्फाज दिए। 2007 में गीत मशहूर हुआ गांव छोड़ब नाहीं ....। ये अबतक इनके अलावा देश-दुनिया के कई मंचों पर गाया जा चुका है। मधु बताते हैं अबतक 250 गीत लिखे। जबकि 3000 से अधिक मंचों पर वो गा चुके हैं। हर बड़े फ़नकार की तरह वो भी डिग्री वाली तालीम न ले सके। आर्थिक मजबूरी भी सबब रही। मैट्रिक भी न कर सके। लेकिन उनके पास अनुभव बोलता है। जन्म रांची के पास गांव सिमलिया में 4 सितंबर 1948 को हुआ था।