(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। पेश है, 48वीं किस्त -संपादक। )
कनक तिवारी, रायपुर:
मिथकों के युग के बाद भी पस्त भारतीय जनता ने विदेशी हमले झेले हैं। कुषाण, हूण, पठान, तुर्क, मुसलमान, मुगल, अंगरेज, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच और बाद में चीनी हमले देश ने झेले हैं। सल्तनतों की गुलामी की है। तब जाकर गांधी की अहिंसा और सत्य, अभय, भगतसिंह और चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत और सुभाष बोस के पराक्रम तथा भारत के तमाम संतों और बुद्धिजीवियों द्वारा ‘उठो जागो और मकसद हासिल करो‘, ‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है‘, ‘जय जवान जय किसान‘, ‘दिल्ली चलो‘, ‘इंकलाब जिंदाबाद‘, ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा‘, ‘आजादी की घास गुलामी के घी से बेहतर,‘ ‘किसानों, मजदूरों, विद्यार्थियों एक हो‘, ‘आराम हराम है‘ जैसे नारों ने भारत की मर्दानगी का इतिहास लिखा। ये सभी नारे जिन जिस्मों और आत्माओं से फूटे और उनके खून में जो रवानी थी, उसके लिए अनाज किसानों ने अपने खून पसीने से धरती सींचकर पैदा किया था। किसान आंदोलन दीवाली या अन्य किसी त्यौहार पर फूटने वाला पटाखा या फुलझड़ी नहीं रहा है।
गांधी की अहिंसा पर बार बार लौटते कुछ बुनियादी बातों को समझना होगा। गांधी ने कभी नहीं कहा कि अहिंसा उनका अकेला हथियार है। उन्होंने अपनी किताब का नाम अहिंसा के साथ मेरे प्रयोग नहीं लिखा। उसे ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग‘ कहा था। कभी नहीं कहा कि कायरता और अहिंसा जुड़वा बहनें हैं। कहा था सत्य और अहिंसा में अगर छोड़ना पड़े तो सत्य को नहीं छोडूंगा। अहिंसा को छोड़ दूंगा। कहा था अहिंसा कायरों का हथियार नहीं है। वह आत्मा के बहादुरों का हथियार है। कहा था मैं अंगरेजी सरकार की जनता विरोधी उन रपटों पर भरोसा नहीं करता जो कहती हैं कि जनता ने हिंसात्मक कारगुजारी की है। कहा था गांधी ने कि जनता खुद जांचेगी कि जनता या उसके बीच घुसे हुए सत्ता के एजेंटों ने कितनी और कौन सी हिंसा की है। कहा था कि अगर हर मजबूरी के चलते अहिंसा साथ नहीं दे रही है, तो जनता के हक में जनकल्याणकारी फैसलों के लिए हिंसा का आनुपातिक, यथार्थपरक और वांछितता के साथ सहारा लिया जा सकता है।
फिर गांधी की याद आती है। कहा था गांधी ने पश्चिमी सभ्यता चूहे की तरह फूंककर काटती है। यह भी कहा था कि पश्चिमी सभ्यता तपेदिक की लाली की तरह है जिसके विश्वास में बीमार बहता चला जाता है। आज भी तो यही हो रहा है। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के लिए खरीदा गया कोई साढ़े आठ हजार करोड़ रुपयों के हवाई जहाज क्या भारतीय किसानों के आंदोलन का जवाब हैं? क्या नए संसद भवन को बनाए जाने की जरूरत भी है, उस गांधी के अनुसार जिसकी मुद्रा में बैठकर चरखा पकड़कर फोटो खिंचवाने वाले सदरे रियासत को यह मालूूम नहीं है कि गांधी ने कहा था कि अंगरेज वाॅयसराय या प्रधानसेनापति या तमाम अफसरों की कोठियों को अस्पतालों और जनोपयोगी संस्थाओं में बदल दिया जाए? प्रधानमंत्री से लेकर सभी सरकारी सेवक छोटे मकानों में रहें। साठ वर्ष से ऊपर के नेताओं को चुनाव लड़ने की पात्रता नहीं होनी चाहिए।
कोई भक्त बताएगा मौजूदा राष्ट्रपति के भवन में कितने कमरे हैं? यह गलती तो 1947 के बाद लगातार सभी सरकारों ने की है। किसी को बख्शा नहीं जा सकता। तब प्रधानमंत्री और गृह मंत्री अपने कपड़ों के लिए चरखे पर बैठकर खादी का सूत बुनते थे। वे दस लाख का सूट नहीं पहनते थे। काजू के आटे की रोटी नहीं खाते थे। महंगे मशरूम की सब्जी नहीं खाते थे। जनता के खर्च पर विश्व यात्राएं कर सकते थे लेकिन उन्होंने यह सब कुछ मौजूदा प्रधानमंत्री के लिए छोड़ दिया? सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाने का दम्भ करने वाले नहीं बताते अपने समर्थकों को कि गांधी तक की हिम्मत असमंजस में थी। तब बारदोली के किसान सत्याग्रह के नायक बनकर सरदार पटेल ने भारत को रोमांचित किया था। क्यों नहीं जानते कि राजकुमार शुक्ला जैसा चम्पारन मोतिहारी का नामालूम किसान नहीं होता, तो गांधी तो चम्पारन के नायक के रूप में इतिहास की गुमनामी में जाने कब तक पड़े रहते। उसी बिहार में उत्तर भारत से चलकर आने वाले हजारों लाखों गरीबों, मजलूमों को मरते देखकर भी छाती में करुणा नहीं पिघलती।
किसान आंदोलन का जो भी हश्र हो, वह हौसला कभी नहीं मरेगा। गांधी कभी नहीं मरेगा। इंसानियत कभी नहीं मरेगी। सरकारें रहेंगी। हुक्काम रहेंगे लेकिन उनकी जिंदगी तो समय की किश्तों में चलती है। वे पांच पांच साल तक अपनी अगली जिंदगी मांगने के लिए जिन दहलीजो पर आएंगे। उनमें सबसे ज्यादा संख्या तो किसानों की है। भारत के निजाम देश की सारी नदियां जोड़ना चाहते रहे हैं। रेल की पटरी को कहीं से भी छू लें तो लगता है पूरे भारत से जुड़ गए। यदि पूरे देश के किसान किसी तरह से जुड़े होते। एकजुट होते तो यह आंदोलन इतने दिन चलने की ज़रूरत नहीं होती। इसलिए किसान को सभी सरकारों द्वारा जानबूझकर बदहाल रखा गया है। किसान को काॅरपोरेट की गुलामी कराने पूंजीवादी षड़यंत्र रचा गया है। वह साजिश, अट्टहास, बदगुमानी और अहंकार के कानून की इबारत में भी गूंज रहे हैं। किसान ने अपनी ज्ञानेन्द्रियों के जरिए उसे देख, सुन और सूंघ लिया है। काॅरपोरेट और निजाम के नापाक गठजोड़ को तार तार कर दिया गया है। यही वह दुरभिसंधि है जिसे सुप्रीम कोर्ट को बाबा साहेब अंबेडकर की अगुवाई वाले संविधान द्वारा दी गई असाधारण संविधान शक्तियों की समझ में विस्तारित, व्याख्यायित और व्यक्त करना चाहिए था। कर्तव्यबोध के प्रति उदासीनता न्यायपालिका को भी सालती रहेगी।
जारी
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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।