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साबरमती का संत-39: गांधी में आत्मस्वीकार और आत्मविश्वास है ही नैतिक अहम्मन्यता भी

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। पेश है,  39वीं किस्त -संपादक। )

कनक तिवारी, रायपुर:

गांधी जानते हैं पुरानी हवेली जीर्णशीर्ण हो जाए, तो उसकी चूलों, जड़ों और बुनियाद को हिलाने के बदले नई परिस्थितियों के अनुकूल राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक सरंजाम करना चाहिए। गांधी का विचार और निदान रामबाण औषधि नहीं है। ऐसी प्रशंसा करने से उनका यश धूमिल ही होता है। गांधी में आत्मस्वीकार और आत्मविश्वास दोनों है। नैतिक अहम्मन्यता भी है। वे निराश, कुंठित, पराजित होने पर भी विघ्नसंतोषी नहीं रहे। हर पराजय को मुख्यतः अहिंसा की व्यावहारिक और आचरणगत असफलता के बाद भी सत्य की ड्योढी पर खड़े होकर ही गांधी आचरणबद्ध करते हैं।       मनसा, वाचा, करुणा की ज़िन्दगी के तिहरेपन के आईने के सामने विकाररहित खड़े होकर आत्मपरीक्षण करते हैं। गांधी में तो हताश होने का उम्दा कलात्मक शऊर है। वे अमूमन रोते नहीं। आंखें डबडबाती भी नहीं। हताशा की हालत में भी गांधी घटनाओं से निरपेक्ष लेकिन जीवनमूल्यों की अपनी प्रतिबद्धता से सापेक्ष रहकर कालजयी नायकों जैसा बर्ताव करते हैं।

 

बहुत सा गांधी सहजता से पचता भी नहीं है। बहुत सा विवेकानंद आकाश या वायु तत्व लगता है। उनमें धरती की बल्कि मिट्टी की सोंधी गमक अलबत्ता है। स्वैच्छिक सादगी का आह्वान करने वाले गांधी शुरुआती जीवन में अंगरेजी वस्त्रों और भौतिक सुविधाओं से लैस रहे हैं। धीमी गति का पाठ पढ़ाने वाले गांधी के जीवन में इतनी तेज़ गतिमयता रही है कि वह भारत में किसी अन्य विशिष्ट व्यक्ति में देखने को नहीं मिलती। स्वैच्छिक गरीबी का उनका उद्घोष अलबत्ता उनके जीवन में प्रदर्षित रहा। इसका यह आशय नहीं है कि राजनीतिक घटनाक्रमों के चलते गांधी अपने जीवन की आंतरिक लय के साथ नहीं थे। यह भी नहीं कि वे जीवन में सादगी का लक्ष्य लाखों अनुयायियों में विस्तारित नहीं कर पाए। इतिहास में लेकिन कई निर्मम क्षण आए हैं। तब गांधी ने उन राजनीतिक व्यवस्थाओें को स्वीकार किया जिनका प्रखरतम विरोध ‘हिन्द स्वराज‘ में व्यक्त है। 

 

अंगरेजी पार्लियामेन्ट को शुरू में वेश्या और बांझ कहने वाले गांधी भारतीय जीवन को उसी संसदीय पद्धति से बचा नहीं पाए। इस निर्णय को भारतीय जनमानस का हुक्म होने के नाते उन्होंने स्वीकार कर लिया। वे अपने अनुयायियों को ‘हिन्द स्वराज,‘ ‘रचनात्मक कार्यक्रम‘ और ‘सर्वोदय‘ के सूत्रों से दीक्षित नहीं कर पाए। ‘हिन्द स्वराज‘ के बहुत से मंत्रबिद्ध वाक्यों की बाद में गांधी फलसफा गांठें खोलता रहा।       ‘हिन्द स्वराज‘ एक तरह का पांचजन्य भी है। वह आज़ादी की महाभारत कथा में क्लैव्य के हर क्षण के दीखते ही बजने लगता है। यह एक अकेले लेखक की किताब से ज्यादा बढ़कर एक समाज के सामूहिक विमर्ष का ऐसा जन-प्रतिवेदन है जिसमें लगातार संशोधनों और व्याख्याओं की इजाजत है। क्या महात्मा गांधी अपने वैचारिक दर्शन और मीमांसा में मौलिक कहे जा सकते हैं? क्या उन्होंने उन्हें उपलब्ध सभी ज्ञान स्त्रोतों का एक अध्यवसायी, अनुसंधित्सु और चतुर वणिक गुण संग्र्राहक की तरह ही इस्तेमाल किया है? कई अर्थों में गांधी रूढ़ हिन्दू और ईसाई मान्यताओं तक के मूर्ति भंजक रहे हैं। लेकिन कई बार वे लगभग विपरीत लगती सभ्यता के अवयवों से समझौता करने की मुद्रा में भी दिखाई देने का तिलिस्म भी रचते लगते हैं। ऐसे अवसरों पर वे विपरीत लगते दृष्टिकोणों में निहित तर्कों के सामने सहनशील समर्पण नहीं करते बल्कि पारस्परिक विश्वास के आधार पर वांछनीय दृष्टिकोण की अनुकूलता को तलाशते और तराशते भी नज़र आते हैं।  यह गांधी के प्रखर वैचारिक ताप पर राख की तरह पपड़ियाती उनकी बौद्धिक मुद्रा का अद्भुत लक्षण रहा है। अपनी मान्यताओं को स्थापित, पुष्ट और संषोधित करने के निरंतर प्रयासों में गांधी ने ऐतिहासिक युगों, सांस्कृतिक संदर्भों और जीवन गाथाओं का गहरा अध्ययन किया।              वे केवल बौद्धिक नहीं थे, अन्यथा इतिहास में वे एक और बड़ी बौद्धिक उपस्थिति लेकर दर्ज भी हो सकते थे। इसके बावजूद उन्होंने जिस दृष्टिकोण का विस्तार किया और जिस पर उनका लगभग पेटेंट दिखाई देता है, उसकी बुनियाद में एक ऐसा गहरा मूल्य बोध है जो दुनिया के बड़े विचारकों की दार्शनिक उपपत्तियों से अन्योन्याश्रित रिश्ता भी रखता दिखाई देता है।

छाती पर नाथूराम गोडसे की पिस्तौल की तीन गोलियां खाने के बाद गांधी ने ‘हे राम!‘ कहा था। 150 वीं जयन्ती मनाने ‘हे राम !‘ के बदले ‘जयश्रीराम‘ कहते चेहरों पर वीरता की मूंछें उगती रही है। चम्पारण में गांधी ने किसानों की बदहाली और अधनंगी देहें देखकर काठियावाड़ी पगड़ी, अंगरखा, कुरता सब उतार फेंका। नम आंखों से उनकी याद करने के अपेक्षित जश्न को रेशमी पोशाकों से लकदक जनप्रतिनिधि, फिल्मी सितारों और उद्योगपतियों के बिगड़ैल बच्चों को भी फैशन परेड के रैंप पर पराजित करने की धनलोलुप सुविधा से लदे फंदे हैं। गांधी के जन्मप्रदेश गुजरात में पट्टशिष्य लौहपुरुष की चीन से बनी संसार की सबसे ऊंची मूर्ति हजारों किसानों को उजाड़कर नर्मदा के सरदार सरोवर पर निश्चेष्ट अगांधी मुद्रा में खड़ी है। उजड़े किसानों के दिल में धड़कते गांधी लौहपुरुष का ही चुंबक हैं। गांधी की लाखों कुरूप मूर्तियां तोड़ी, उजाड़ी, खंडित भी की जा रही हैं। उन पर कालिख भी पोती जा रही है। गांधी अमर समुद्र हैं। तो भी उन पर लाठियां भी भांजी जा रही हैं।

जारी

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।