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साबरमती का संत-31: गांधी पाठशाला में महात्मा से मुठभेड़

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। पेश है,  31वीं किस्त -संपादक। )

कनक तिवारी, रायपुर:

मैं गांधीवादी नहीं हूं। यह कहने में मैं सत्य के अधिक निकट होता हूं। गांधी मेरी पसंद की अनिवार्यता या ढकोसला नहीं हैं। उनके विचारों की तह में जाना, उनके प्रखर कर्मों के ताप झेलना और उनका वैचारिक परिष्कार करना शायद किसी के वश में नहीं है। गांधी का पुनर्जन्म यदि हो जाये तो शायद उनके वश में भी नहीं। ऐसा लगता है कि गांधी एक घटना की तरह पैदा हो गये और अस्सी वर्ष के लम्बे जीवन में लगातार विद्रोह करते करते उल्कापात की तरह गिरे। गांधी भारत की आधी बीसवीं सदी पर छाते की तरह तने रहे। उसके पूर्वार्द्ध के  कम से कम आखिरी तीस वर्ष लिहाफ की तरह हिन्दुस्तान के सियासी, बौद्धिक और सामाजिक जीवन को गांधी ही ओढ़े रहे। यह व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय इतिहास का एक फेनोमेना है। उसको समझने की कोशिश करना धुएं को अपनी बाहों में भरना है। 

निपट देहाती औसत हिन्दुस्तानी की खोपड़ी, चमकती हुई, कभी शरारतपूर्ण तो कभी करुणामय आंखें, इकहरी देह के बावजूद सिंह-शावक की सी बौद्धिक चपलता, बेहद पुराने फैशन की कमरखुसी घड़ी, एक सदी पुराने फैशन का चश्मे का फ्रेम, गड़रिए की सी लाठी, सड़क किनारे बैठे चर्मकार के हाथों सिली सेंडिलनुमा चप्पलें, अधनंगा बदन। ये भारत के सबसे महान् योद्धा के कंटूर हैं। उन्हें सात समुन्दर पार भी सूरज अस्त नहीं होने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हुक्मरानों ने कम आंका। मुझे गांधी कभी बूढ़े, लिजलिजे या तरसते नहीं लगे। दहकते प्रौढ़ अंगारों के ऊपर पपड़ाई राख जैसा उनका पुरुष व्यक्तित्व बार बार लोगों को प्रश्नवाचक चिन्ह की कतार में खड़ा करता रहा। प्रचलित समझ के विपरीत मैंने गांधी को ऋषि, संत, मुनि या अवतार जैसा नहीं देखकर करोड़ों भारतीय सैनिकों के लड़ाकू सेनापति देखा है। मुझे गांधी के अन्य रूपों में न तो दिलचस्पी रही है और न ही वे मेरी गवेषणा के विषय बने हैं। 

गांधी की याद को पुनः परिभाषित करना साहसिक, रूमानी और मोहब्बत भरा काम है। यह सरल है कि उन्हें प्रचलित अर्थ में ही समेटा जाए। बार बार गांधी को ऐसी सोहबत में बिठाया जाए जिससे उन्हें उद्दाम समुद्र या तेज तरंगों में बहते किसी महानद के मुकाबले छोटा सा तालाब बनाया ज, इस तरह के गांधी-यश से सड़ांध की बू आने लगी है। लोग गांधी क्लास में पास होने, एक गाल पर थप्पड़ खाने के बाद गांधी शैली में दूसरा गाल सामने करने और सुसंस्कृत जीवन के हर छटा-विलोप में गांधी दर्शन दिखाकर उसका इतना मज़ाक उड़ा चुके हैं कि इस बूढे़ आदमी के साथ रहने में मन वितृष्ण हो जाता है। 

भारतीय लोकतंत्र के जनवादी आन्दोलन के संदर्भ में मिथकों के नायक राम और कृष्ण के बाद कालक्रम में तीसरे स्थान पर गांधी ही खड़े होते हैं, कई अर्थों में उनसे आगे बढ़कर उन्हें संशोधित करते हुए। इस देश में ऐसा कोई व्यक्ति पैदा नहीं हुआ जिसने गांधी से ज़्यादा शब्द बोले हों, अक्षर लिखे हों, सड़कें नापी हों, आन्दोलनों का नेतृत्व किया हो, बहुविध आयामों में महारत हासिल की हो और फिर लोक-जीवन में सुगंध, स्मृति या अहसास की तरह समा गये हों। शंकराचार्य, अशोक, बुद्ध, अकबर, तुलसीदास, कबीर जैसे अशेष नाम हैं जो भारतीय-मानस की रचना करते हैं। गांधी केवल मानस नहीं थे। कृष्ण के अतिरिक्त हिन्दुस्तान के इतिहास में गांधी ही हुए। वे प्रत्येक अंग की भूमिका और उपादेयता से परिचित थे। ऐसे आदमी को किंवदन्ती, तिलिस्मी या अजूबा बनाया जाना भी सम्भव होता है। मोहनदास करमचन्द गांधी को साजिश से बचाना भी सामूहिक कर्तव्य है।

गांधी ने अपनी पत्नी, पुत्र, बहन सबको दुख दिया। राम के बाद वे ऐसे लोकतांत्रिक थे जो मर्यादा की भुजा उठाए अपनी भावनाओं की हत्या करते रहे। उनकी बहती छाती के रक्त के कणकण में राम का नाम गूंजा था। फिलहाल सांस्कृतिक पेटेन्ट कानून के अनुसार राम नाम अयोध्या में ही गूंज रहा है। गांधी को हरिजन नाम प्रिय था। वह भी उनसे छीन लिया गया। वह जीवन भर बकरी का चर्बी रहित दूध पीते रहे। उनके जन्मस्थान पोरबन्दर के नाम पर घी के व्यापारियों की तोंदें फूल रही हैं। वे गरीबों की लाठी टेकते अरबसागर में नमक सत्याग्रह करते रहे। उनकी याद में दांडी नमक बेचते व्यापारी अरबपति हुए जा रहे हैं। गांधी के सियासी बेटों और निन्दकों के शरीर का नमक घटता जा रहा है। चेहरे की चाशनी बढ़ती जा रही है। 

गांधी 150 बरस के हो चुके। केन्द्र और राज्य सरकारें जश्न मनाने तैयारियों में मशगूल हो नहीं पाईं। गांधी शांत भाव से सब देखते रहे। पहले भी उन्होंने क्या कुछ कर लिया था। अब तक देखते ही रहे थे। हिन्दू मुसलमान एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। जिन्ना की अगुआई में कट्टर मुसलमानों ने पाकिस्तान बना ही लिया। गांधी ने बहुत रोका। जवाहरलाल की अगुवाई में अंग्रेजी संसद, अदालतें, हकूमतशाही, भाषा और फितरतें आ ही गईं। अंगरेज सांप चला गया। अंगरेजियत की केंचुल सांप से ज़्यादा भारत को जहरीले दांतों से काटती पस्तहिम्मत कर रही है। अट्टहास भी करती है। हिन्दुस्तान में साल के दो दिन एक भुला दिए गए पुरखे की तस्वीर दीवार से उतारी जाती है। उसकी फोटो बाजार में लोग ढूंढते है। साथ साथ फिल्मी गानों की किताब और प्रतिबंधित कामुक साहित्य भी खरीदते चलते हैं। कुरते-पाजामे, धोती-कुरता का चलन खत्म हो चला है। टी शर्ट, जींस वगैरह नौजवान तो क्या बुजुर्ग भी पहनते गांधी विचार विश्वविद्यालय के प्रस्तोता और प्रवक्ता भी बने इठला रहे हैं। सियासती भूख के लिए गांधी हींग का छौंक हैं। उनका तड़का लगाए बिना एक दूसरे के मुकाबले भ्रष्टाचार की रकम खाने वाली भूख नहीं खुलती।( जारी)

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।