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साबरमती का संत-12: महात्‍मा गांधी को मौलवी इब्राहिम ने बताया रामधुन से उन्‍हें कोई एतराज़ नहीं

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  12वीं किस्त -संपादक। )

 

पुष्‍यमित्र, पटना:

गांधी जी के आखिरी दिनों में हर शाम एक प्रार्थना सभा होती थी। वे जहां भी होते, प्रार्थना करते और आसपास के लोग उस सभा में पहुंचते। अच्छी खासी भीड़ उमड़ती। उन सभाओं में कई धर्मों की प्रार्थना होती। ऐसी ही एक प्रार्थना का मैं वर्धा के गांधी आश्रम में गवाह रह चुका हूं, वहां इस परंपरा को आज तक निभाया जाता है। तो उस सभा में हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, पारसी, बौद्ध आदि धर्मों के ग्रंथों के अंश पढ़े जाते थे। जब गांधी नोआखली में थे तो वहां भी यह परंपरा जारी रही। जब वे अपनी यात्रा के दौरान माशिमपुर पहुंची तो शाम के वक्त वहां भी प्रार्थना सभा लगी। हमेशा की तरह उस सभा में स्थानीय मुसलमान भी पहुंचे थे। प्रार्थना शुरु हुई और रामधुन गाया जाने लगा तो वे मुसलमान उठकर चले गये। उन्हें रामधुन के गायन पर आपत्ति थी। प्रार्थना के बाद अपने उद्बोधन में गांधी ने कहा- मैं यहां इसलिए आया हूं कि मुसलमानों के बीच ठहर कर उन्हें अपने मित्र भाव का प्रमाण दूं। मगर मैं रामनाम को नहीं छोड़ सकता, वह तो मेरी आत्मा का आहार है। जो लोग आज शाम की प्रार्थना सभा से उठकर चले गये, उन्होंने भूल की। मगर साथ ही मैं हिंदुओं को भी चेताना चाहता हूं कि रामनाम का उद्घोष आक्रमक तरीके से दूसरे समुदाय को चिढाने के लिए या झूठी बहादुरी दिखाने के लिए न करें।

 

अगले दिन वे फतहपुर गांव पहुंचे तो वहां भी शाम को प्रार्थना सभा शुरू हुई। वहां के मौलवी इब्राहिम से गांधी जी ने पहले ही पूछ लिया कि क्या आपलोगों को भी रामधुन से आपत्ति है। इस पर मौलवी ने कहा कि रामधुन से नहीं, मगर उसके साथ बजने वाले मृदंग की आवाज से यहां के मुसलमानों को जरूर आपत्ति हो सकती है। इस पर गांधी जी ने मृदंग का बजना बंद करवा दिया। इसके बाद सभी मुसलमान  पूरी प्रार्थना सभा में आखिर तक बैठे रहे। मौलाना ने सभा के अंत में हार्दिक उद्गार भी व्यक्त किये। बाद के दिनों में ऐसी ही समस्या दिल्ली के भंगी बस्ती में भी उत्पन्न हो गयी। वे उन दिनों लार्ड माउंटबेटेन के बुलावे पर बिहार से दिल्ली गये थे। दिल्ली में वे भंगी बस्ती में ही रहते थे, वहां एक वाल्मिकी मंदिर भी था। शाम को वहीं प्रार्थना सभा होती थी। बस्ती के पड़ोस में रोज संघ की शाखा की लगती थी।

 

एक रोज प्रार्थना सभा में मौजूद कुछ युवकों ने आपत्ति कर दी कि यह मंदिर का परिसर हैै, यहां आप कुराण की आयतें नहीं पढ़ सकते। हालांकि इस बात का बस्ती के लोगों और मंदिर के संचालकों ने विरोध किया और गांधी जी से सभा जारी रखने के लिए कहा। मगर गांधी ने कहा कि जब तक ये युवा अपनी आपत्ति वापस नहीं लेते, यह सभा नहीं होगी। जब तक यहां मौजूद एक भी व्यक्ति विरोध करेगा, तब तक प्रार्थना स्थगित रहेगी। ऐसे में रोज शाम को प्रार्थना सभा सजती। गांधी जी का निर्देश था कि सबसे पहले कुरान की आयतें ही पढ़ी जाये। जैसे आयतें शुरू होती, कोई न कोई युवक विरोध कर देता और प्रार्थना स्थगित हो जाती। गांधी अपने कमरे में लौट आते। तीन-चार दिन तक ऐसे ही चला। सभा में पहुंचने वाले लोग निराश होने लगे। तब उन लोगों ने ही युवकों को समझाना शुरू किया। उनकी समझाइश पर युवा धीरे-धीरे समझ गये। फिर एक दिन ऐसा आया जब किसी ने कुरान की आयतों का विरोध नहीं किया और फिर सर्वधर्म प्रार्थना पूरी होने लगी। जो उनकी हत्या के दिन तक चलती रही।

यह तस्‍वीर पटना के गांधी मैदान में आयोजित होने वाले ऐसे ही एक प्रार्थना सभा की है। तस्‍वीर बिहार स्टेट आर्काइव की साइट से साभार है। यह संभवतः 1947 की है, मगर गलती से 1946 प्रिंट हो गया है। 1947 में मार्च से जून तक गांधी पटना में ठहरे थे और रोज शाम यहां प्रार्थना सभा लगती थी। तब इसका नाम लॉन था, जो बाद में इन्हीं सभाओं की वजह से गांधी मैदान हो गया।

नोआखली में गांधी

सम्भव है मुझे नोआखली में कई वर्ष ठहरना पड़े। वे लोग मुझे मार डालें तो इसके लिये भी मैं तैयार हूं। हालांकि मैं जानता हूं कि वे मुझे नहीं मारेंगे। वे जानते हैं मैं दिल से उनका मित्र हूं। यदि नोआखली में हिन्दू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते तो वे हिंदुस्तान में कहीं साथ नहीं रह सकेंगे। और इसका अनिवार्य परिणाम होगा विभाजन। अगर भारत को अखण्ड रहना है तो हिंदुओं और मुसलमानों को भाई-भाई की तरह प्यार से मिलजुल कर रहना चाहिये। न कि रक्षा के लिये या बदले के लिये संगठित शत्रुओं की छावनी बनाकर। इसलिये मैं अलग बस्तियां बनाकर रहने की नीति के विरुद्ध हूं। समस्या को हल करने का एक ही उपाय है और वह है अहिंसा। मैं जानता हूं मेरी आवाज आज अरण्यरोदन के समान है। फिर भी मैं यही कहूँगा कि सत्य, अहिंसा, साहस और प्रेम के सिवा भारत के उद्धार का और कोई मार्ग नहीं है। उस उपाय का प्रत्यक्ष प्रमाण देने ही मैं यहां आया हूं। अगर नोआखली हाथ से चला गया तो भारत भी चला जायेगा। मेरा वर्तमान मिशन मेरे जीवन का सबसे पेचीदा और कठिन कार्य है। मैं कार्डिनल न्यूमैन के साथ यह सत्य गा सकता हूं। 'रात अंधेरी है और मैं घर से दूर हूं, हे ईश्वर तू मेरा मार्ग प्रकाशित कर।'

 

मैने अपने जीवन में पहले कभी इतना अंधकार अनुभव नहीं किया। रात लम्बी मालूम होती है। इतनी ही सांत्वना है कि न तो मैं स्वयं को पराजित अनुभव करता हूं और न ही निराश। मैं किसी भी घटना के लिये तैयार हूं। करो या मरो की परीक्षा यहीं होगी। करो का अर्थ यह है कि हिन्दुओं और मुसलमानों को शांति और मेलजोल के साथ जीना सीखना चाहिये। (मरो मतलब)अन्यथा इस प्रयास में मुझे मर जाना चाहिये। यह कार्य सचमुच कठिन है। इश्वरेच्छा वलियसी। 

 

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(लेखक  एक घुमन्तू पत्रकार और लेखक हैं। उनकी दो किताबें रेडियो कोसी और रुकतापुर बहुत मशहूर हुई है। कई मीडिया संस्‍थानों में सेवाएं देने के बाद संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।