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बेबसी : बेइंतिहा दर्द से जूझते जितेंद्र को है मदद की जरूरत, नहीं मिल सका है असाध्य रोग योजना का लाभ 

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पलामू: 

उंगलियों की आड़ में आंसुओं के सैलाब को रोकने की नाकाम कोशिश करते इस शख्स का नाम जितेंद्र है। सामने बैठी महिला इनकी पत्नी है। बेबस निगाहों से कभी कैमरा तो कभी सामने बैठे शख्स को निहारते ये दोनों बच्चे जितेंद्र के हैं। जितेंद्र की आंखों से बहता आंसू और उनका चेहरा बताता है कि वो दर्द में हैं।

जितेंद्र एक गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं। बीमारी की वजह से इनके सिर के पिछले हिस्से से उपजा दर्द इनकी नसों से होता हुआ जब पूरे शरीर में दौड़ता है तो जितेंद्र जिंदगी नहीं मौत बख्शने की मांग करते हैं।

जेनरिक डिस्टेनिया नाम की बीमारी से हैं पीड़ित
जितेंद्र को जेनरिक डिस्टेनिया नाम की गंभीर बीमारी है। मस्तिष्क संबंधित इस बीमारी की वजह से जितेंद्र को इतना दर्द होता है कि असहनीय शब्द भी छोटा पड़ जाता है।

कभी, अपने परिवार के साथ खुशहाल जिंदगी बिता रहे जितेंद्र इस बीमारी के इलाज में मकान, दुकान और जमीन सब बेच चुके हैं, लेकिन बेदर्द बीमारी है कि जाती ही नहीं। डॉक्टरों ने इस दर्द से क्षणिक राहत पाने के लिए जितेंद्र को दर्द निवारक दवा के साथ टरामाडोल नाम का इंजेक्शन लगाने की सलाह दी है। 

जितेंद्र के पास इंजेक्शन खरीदने तक का पैसा नहीं
इलाज में अपना सबकुछ गंवा चुके जितेंद्र के पास इस इंजेक्शन को खरीदने तक का पैसा नहीं है। फिलहाल गांव वालों के चंदे से काम चल रहा है...पर सवाल है कि आखिर कब तक। डॉक्टरों ने कहा है कि इस दर्द से हमेशा के लिए निजात पाना है तो ब्रेन की सर्जरी करानी पड़ेगा। खर्चा 15 लाख रुपये आयेगा। ना दुकान रही ना मकान। जमीन भी इस बेइंतिहा दर्द की भेंट चढ़ चुका है। जितेंद्र ही परिवार के स्तंभ हैं जो इस असाध्य बीमारी की वजह से लड़खड़ा गया है।

जहां परिवार में रोटी के लाले पड़े हों। चूल्हा ठंडा हो गया हो..वहां ऑपरेशन के 15 लाख भला कहां से आयेंगे। जितेंद्र लाचार हैं। उनकी बेबसी केवल उनके चेहरे पर नहीं दिखती बल्कि पत्नी और बच्चे की खामोशी भी बताती है कि उनके अंदर इस दुखों का कितना तूफान भरा हुआ है। 

बच्चों के आगे कौन सा पिता रोना चाहता है लेकिन...
जितेंद्र अपने बच्चों के सामने रोना नहीं चाहते, लेकिन मुआ ये बेइंतिहा दर्द ऐसा होने नहीं दे रहा। जितेंद्र पलकों से गालों तक ढुलक आए आंसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश करते हैं। जब कहीं से कोई उम्मीद नहीं दिखी तो जितेंद्र ने अपना दर्द मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को बताया।

मुख्यमंत्री ने जिले के सिविल सर्जन को निर्देश भी दिया कि इनका इलाज असाध्य रोग योजना के तहत कराई जाये, लेकिन जब जितेंद्र सिविल सर्जन डॉ. अनिल कुमार के पास पहुंचे तो उन्होंने दो टूक कहा। हमारी सरकारी फाइलों में आपकी बीमारी असाध्य रोग की श्रेणी में नहीं आता। इलाज के लिए सरकारी लाभ नहीं मिलेगा।

 

यदि वक्त पर सर्जरी नहीं की गई तो जा सकती है जान
इधर, जितेंद्र का इलाज कर रहे डॉक्टरों ने कहा है कि यदि समय रहते सर्जरी नहीं की गई तो मौत भी हो सकती है। अब जितेंद्र की जिंदगी सरकारी फाइलों की मोहताज है। सिस्टम संवेदना नहीं जानता तो क्या संवेदनशील नहीं हो सकता। चाहे तो हो सकता है। फिलहाल जितेंद्र की उम्मीद और सांसों की डोर, दोनों ही आहिस्ता-आहिस्ता टूटती जा रही है।

असहनीय दर्द से गुजरता आदमी किस-किस बात से निपटे। बीमारी से। गरीबी से। परिवार की जिम्मेदारी से या सिस्टम से जिसमें उनकी बीमारी असाध्य रोग की श्रेणी में नहीं आती।