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विवेक का स्‍वामी-8: धर्माचरण में जनपक्षधरता के सबसे  अधिक समर्थक रहे स्‍वामी विवेकानंद

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कनक तिवारी, रायपुर:

प्रगति और प्रतिक्रिया लगातार लेकिन पारस्परिक भी होती हैं। हर सामाजिक, सियासी मुद्दा या विचार कभी प्रासंगिक, कभी अप्रासंगिक होता चलता है। बंगाल के बूर्जुआ वर्ग के उद्भव तथा विकास का एक कारण विवेकानन्द भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत को भी मानते हैं। वह हुकूमत भारत में सबसे पहले बंगाल में ही स्थापित हुई थी। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा किए गए सामाजिक आर्थिक परिवर्तनों की वजह से रूढ़िवादी हिन्दू समाज व्यवस्था के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां बिखेरी गईं। विरोधाभास यह भी हुआ कि तथाकथित कुछ कुलीन हिन्दुओं ने पश्चिमी शिक्षा, तहजीब और संस्कृति को ही खुद होकर अपनाया। ऐसे लोग पश्चिमी किस्म के नवजागरण के साथ सम्पृक्त होने से खुद को ज्यादा प्रगतिशील और ज्ञानवान समझने लगे। भारत की तत्कालीन यूरोप से तुलना करते ऐसे कुलीन हिन्दू नवोदयी भारतीय समाज की बदहाली देखकर हीन भावना और संकोच में डूबने लगे थे। समाज में धार्मिक अंधविश्वास, कुरीतियां, आडंबर और रूढ़ियां तो पहले से ही थीं। कथित भद्रलोक को ये अब ज्यादा विकृत दीखने लगीं। 

 

उन दिनों चली आ रही सतीप्रथा का विरोध करने में दकियानूसी परंपराओं की बनावट में आर्थिक कारण भी रहे होंगे। सतीप्रथा की खोज के पीछे विधवा स्त्री को सम्पत्ति से भी महरूम रखने की साजिशें पंडितों और पोंगापंथियों ने रची ही होंगी। ऐसी धार्मिक कुरीतियों का उल्लेख हिन्दू धर्म के किसी प्रामाणिक ग्रन्थ में अलबत्ता दिखाई नहीं देता। अज्ञानी और निरक्षर जनमानस के लिए लेकिन षड़यंत्रकारी पुरोहितों का वर्ग वेदों और पुराणों का नासमझी की संस्कृत उच्चारण का उल्लेख करता जनता को शोषित करता रहा। ‘भारत का भविष्य‘ नामक अपने प्रसिद्ध भाषण में विवेकानन्द ने स्वीकार किया है कि संसार के कई मुल्कों के मुकाबले भारत में समस्याओं का अम्बार और उनकी अलग तरह की जटिलता जनता की परेशानदिमागी का कारण है। वर्ण, जाति, धर्म, भाषा और सामाजिक जड़ताओं वगैरह ने मिलकर भूगोल के भारत में अलग तरह के समाज का अलग तरह का मुल्क रच दिया है। दुनिया के ज्यादातर मुल्क इस तरह के विरोधाभासी और असंगत सर फोड़ते तत्वों या अवयवों से नहीं बने हैं। भारत में आर्य, द्रविड़, तुर्क, मुगल, मुसलमान, पुर्तगाली और अंगरेज़ आदि कौमों का एक के बाद एक शासन रहा है। इतने हमले संसार के किसी देश पर नहीं हुए होंगे। इसके बावजूद खुद भारतीयों ने अपने लिए दर्जनों भाषाओं, तरह तरह के आचार विचार और प्रथाओं को खोज जाने कैसे निकाला है। ऐसे अनोखे माहौल में यह केवल धर्म है जिसने पूरे देष को एक सूत्र में बांध रखा। वह एक मजबूत कड़ी है। 

 

विवेकानन्द ने कहा कि सभी तरह के धर्मों की एकता भारत के भविष्य की सबसे बड़ी जरूरत है। भारत में केवल एक धर्म होना चाहिए का उन्होंने जवाब के बदले आगे उलट सवाल किया ‘एक ही धर्म से मेरा क्या मतलब है? यह उस तरह का एक ही धर्म नहीं, जिसका ईसाइयों, मुसलमानों या बौद्धों में प्रचार है। हम जानते हैं। हमारे अलग अलग सम्प्रदायों के सिद्धान्त तथा दावे चाहे कितने ही जुदा जुदा क्यों न हों। हमारे धर्म में कुछ सिद्धान्त ऐसे हैं जो सभी सम्प्रदायों द्वारा मान्य हैं। इस तरह हमारे सम्प्रदायों के ऐसे कुछ सामान्य आधार अवश्य हैं। उनको स्वीकार करने पर हमारे धर्म में नायाब विविधता के लिए गुंजाइश हो जाती है। साथ ही विचार और अपनी रुचि के अनुसार जीवन निर्वाह के लिए हमें मुकम्मिल आजादी मिलती जाती है। हम लोग, कम से कम वे जिन्होंने इस पर विचार किया है यह बात जानते हैं। अपने धर्म के ये जीवनदायी सामान्य तत्व हम सबके सामने लाएं और देश के सभी स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े उन्हें जानें, समझें तथा जीवन में उतारें। यही हमारे लिए जरूरी है। सबसे पहले यही हमारा काम है।‘ (वि0सा0, 5/180)। 

 

वर्णाश्रम के समर्थक ढकोसला ढोते आदर्शवादी कहलाते विद्वान उन्नीसवीं सदी की ब्रिटिश सामाजिक राजनीतिक अवधारणाओं से उपजी नई वर्गीयचेतना को भी राष्ट्रवाद का घटक करार दे देते हैं। ऐसे लोग भगवा प्रयोजनों के लिए विवेकानन्द को कठमुल्ला साधु बनाये अपने कांधों पर लादे रहते हैं। मकसद है राजनीतिक दूकान सजी रहे और विवेकानन्द के असली संदेश जनता के भले के लिए उसके पल्ले नहीं पड़ें। विवेकानन्द ने खुद मुख्तार बने कुलीन और भद्र समाज द्वारा जनता के शोषण को बुरी लताड़ लगाई थी। उन्होंने ऐसी प्रवृत्ति को क्रूर और राक्षसी तक कहा था। विवेकानन्द ने कहा था देशभक्त बनने की पहली षर्त करोड़ों लोगों के दुखों को समझना है। भवानीप्रसाद मिश्र की कविता में भी है ‘जिनका दुख गाना है, उनका दुख जानो तो।‘ उन्होंने जोर देकर कहा किसी के लिए कोई प्राथमिकता या बड़प्पन नहीं होना चाहिए। सबको बराबर मौका दिया जाना जरूरी होगा। नौजवानों को सामाजिक उत्थान और बराबरी के आदर्शों का खुद होकर प्रचार करना होगा। देशभक्ति का यह भी धर्मगांठ लगा वर्ग चरित्र था। उसे वर्षों पहले विवेकानन्द ने ही पहचान लिया था। आजादी का आंदोलन तक वर्गचरित्र के विरोधाभासों से भरा हुआ रहा है। ऐसा भी विवेकानन्द का पूर्व संकेत दिखाई पड़ता है। 

स्वाधीनता आंदोलन का मुख्य मकसद धीरे धीरे बूर्जुआ वर्ग के पक्ष में सत्ता हासिल करने तक सिमट गया था। विवेकानन्द ही ऐसे खतरे की ओर वर्षों पहले आगाह करते हैं। उन्होंने कहा था कि बहुजन पिछड़ा समाज अपनी आदिम प्रवृत्तियों का मौजूदा संस्करण नहीं समझा जाकर बराबर का हकदार बनाया जाये। तब तक आजादी के आंदोलन का सच्चा मुकाम देश को बदलने के लिए में नहीं पाया जा सकता। केवल राजनीतिक आजादी की लुकाठी लिए चलने वाली जनयात्राएं आर्थिक धार्मिक और सामाजिक तब्दीलियों के कंटूर तय किये बिना आखिरकार ऐसे ही मुकाम पर पहुंचती हैं जिसकी ताईद विवेकानन्द ने नहीं की थी।

 

( जारी )

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।