कनक तिवारी, रायपुर:
यक्ष प्रश्न है क्या विवेकानन्द के सपनों को साकार करने की योजनाएं केवल खुशफहमियों का उत्पाद हैं या उनमें व्यावहारिकता की सार्थक सम्भावनाएं भी होती दिखती हैं? क्रान्ति तो आखिर प्रखर जनधर्मिता ही होती है। हाथी की दांत की मीनार पर बैठकर उपदेश देने और ज्ञान की शेखी बघारने से इतिहास और अवाम का काम नहीं चलता। विवेकानन्द अनोखे चिंतक और वक्ता के रूप में सबसे ज्यादा धर्मोपदेश के इलाके में अपनी अनोखी मौलिक भूमिका तलाशते रहे थे। यह उनका चुनाव था कि उन्होंने आसमानी दीखते धर्म की भाषा को उपेक्षित, पीडि़त मनुष्यता की पैरवी की जुबान बनाकर उसे मजहबी फतवे पर चस्पाकर जनवादी अर्थों में परोसा। विवेकानन्द को कोई स्वर्ग जैसा पा लेने मुगालता नहीं था। वहां बैठा ईश्वर मृत्यु के बाद तो मुक्ति का दरवाजा खोलेगा, लेकिन मौजूदा हालात में देश के मरते करोड़ों गरीबों की आर्थिक समस्याओं को हल करने में पीठ दिखाता रहेगा। ऐसा ओजपूर्ण आह्वान उनके पहले भारत में किसी धर्मपुरुष लगते व्यक्ति का नहीं था। पूरी धरती के मनुष्यों के पक्ष में खड़े होने की अपनी जिद और जिच के कारण विवेकानन्द को भूगोल की सरहदें तोड़नी पड़ीं। स्वामी विवेकानंद के लिए केवल हिन्दू या भारतीय होना सांसारिक सांस्कृतिक भूमिका के निर्वाह करने में सीमित हो जाना था। इसलिए विवेकानन्द के आग्रह में विश्व के सभी महानतम मनीषियों की उन नैतिक शिक्षाओं का शुमार होता गया जो किसी खास मज़हब का प्रचार करने के बावजूद इन्सानियत का फलसफा लेकर सबको कबूल रही हैं। यीशु की कुर्बानी और इस्लाम के भाईचारे के तत्वों को परोसते विवेकानन्द एक मजबूत पैरोकार की तरह खड़े होते रहे। इन गुणों को वे भारतीय दर्शन के बुनियादी अधिकार की तरह रोपने के काम में भी दत्तचित्त होते रहे।
विवेकानन्द को उन्नीसवीं सदी में कांटों भरे सफर में एकाकी होने का अभिशाप भी ढोना पड़ा है। सक्रिय जीवन के लिए किया ऐलान भारतीय नवजागरण के घुमावदार मोड़ का एक नया प्रस्थान बिन्दु है। उनका विरोध करने पर कूपमंडूक, संकीर्ण और पंडिताऊ धार्मिकों को पानी भरने पर मजबूर होना पड़ा। व्यावहारिक धर्म की जनवादी सार्वजनिक परिभाषा सबसे पहले और सबसे ज्यादा विवेकानन्द ने सार्थक की है। अपनी दार्शनिक मीमांसाओं के चलते विवेकानन्द ने सबसे पहले धर्म को ही रूढ़ बना दी गई किताबों से आजाद करना चाहा। विवेकानन्द ने भारत को आंधियों से निकाला। वे अपने वक्त भारत के उपेक्षित प्रश्नों के अनाथालय थे। उनका जीवन कुतुबनुमा की सुई की तरह था। वे जिधर जाते, वहां उत्तर होता। कठिन प्रश्न गहरे उतरते जाते। विवेकानन्द हिन्दू ही नहीं, भारत के सभी मजहबों के लिए प्रेरक प्रज्ञापुरुष हुए। भारत के राजनीतिक जीवन पर उनका असर असाधारण था। उन्होंने इतिहास की समाजशास्त्रीय आधुनिक व्याख्या की। उन्हें हिन्दू होने पर ही गर्व नहीं हुआ। मातृभूमि से असाधारण प्रेम के बावजूद विवेकानन्द मानवता के इतिहास में केवल भारतीय के रूप में याद नहीं रखे जायेंगे। यह विचित्र किन्तु सच है कि वह शिकागो के धर्म-सम्मेलन में धार्मिक कारणों से नहीं गये थे। हिन्दुस्तान की गरीबी के कारण अमेरिका से मुनासिब आर्थिक मदद हासिल करना उनका सपना और मकसद था। यह काम उस समय अव्यावहारिक लगता था, लेकिन आने वाले इतिहास में सच हुआ। वे अमेरिका गये, तब भीड़ में भटकी गुमनाम इकाई थे। उन्हें भूखा अपमानित और उपेक्षित भी रहना पड़ा। धर्म संसद में उनकी सफलता के जलनखोरों ने उनकी चरित्रहत्या तक का प्रयास किया। फिर भी विवेकानन्द ने वहां भी धार्मिक कठमुल्लापन के खिलाफ जेहाद बोला।
विवेकानन्द कभी-कभार फकत किताबी जिज्ञासा और जिरह का विषय बनाए जा रहे हैं। यह उनके साथ अन्याय होगा कि उन्हें विश्व की भौतिकवादी, वैज्ञानिक और मशीनी सभ्यता के खिलाफ प्राचीन भारतीय रूढि़यों के प्रतिनिधि और प्रवक्ता के तौर पर प्रचारित किया जाए। वे कोरे दार्शनिक नहीं थे और न ही फकत किताबी पढ़ाकू के रूप में दुनिया को केवल अक्षर ज्ञान या शब्द भंडार से सराबोर करने कोशिश की। विवेकानन्द विश्व सांस्कृतिक बिरादरी के कालजयी मील के पत्थर हैं। वे केवल भारतीय विचारों के उद्घोषक, प्रवक्ता या प्रस्तोता नहीं हैं। वे खुद को घनीभूत भारत कहते थे। रामकृष्ण मिशन के अप्रतिम साधु लोकेश्वरानंद ने ठीक कहा है वे कह सकते थे कि मैं घनीभूत विश्व हूं। तब भी दुनिया के लोग उनको स्वीकार करते कि वे सच्चे भारतीय हैं। विवेकानन्द अपने विचारों के प्रति चट्टान की दृढ़ता थे। उनका स्वाभिमान परले दर्जे का था। हालांकि वे औसत इन्सान की तरह बार बार हताश, उद्विग्न और परेशान भी होते रहे।
विवेकानन्द ने कहा लोग कहते हैं भारत ने दुनिया को कभी अपना संदेश नहीं दिया, वह गलत है। वह बुद्ध को मध्यपूर्व के देशों में भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रवक्ता कहते हैं। उनके मुताबिक सिकंदर भारत पर आक्रमण करने आया। तब भी भारत का सांस्कृतिक ज्ञान यूनान सहित यूरोप के कई देशों में फैल चुका था। विवेकानन्द संकोच के कारण श्रेय नहीं लेना चाहते कि उन्होंने यूरो-अमेरिकी संस्कृति की भारत की आध्यात्मिक शक्ति के लिए आंख खोली है। विवेकानन्द ने ही भारतीय ज्ञान को दुनिया में सबसे ज्यादा विदेशी भाषा में परोसा। उन्होंने ईसाइयत, इस्लाम, यहूदी, पारसी, लाओत्से, कन्फ्यूशियस आदि के संदेशों के मूल आग्रहों को भारतीय मनीषा की धमनभट्टी में पकाकर वैचारिक अनोखा फौलाद दुनिया के सुपुर्द किया। वह भारतीय ब्राण्ड का दिखाई पड़ने पर भी दुनिया की कोख का है। ऐसा काम इतिहास में पहली बार विवेकानन्द ने किया था।
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(स्वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
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