सुरेंद्र कुमार, जयपुर:
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का न होने का कारण खुद कांग्रेस है। वीपी सिंह के आंदोलन और राजीव गांधी की राजनीतिक सोच में परिपक्वता न होने के कारण हैं। हिंदुओं को मंदिर का ताला खुलवाकर और मुसलमानों को शाह बानो वाले कानून का प्रसाद देकर चुनाव तो जीत लिया था। लेकिन उसके बाद कांग्रेस में एक और जो सबसे बड़ा फैक्टर है कि नरसिम्हाराव ने बाबरी मस्जिद गिरने का तमाशा देखा। मस्जिद गिर गयी। उसके बाद तुरंत BSP को उत्तर प्रदेश में 300 सीट दान कर दीं।खुद 125 सीटों पर लड़े। बस वह कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में अंत था। इसका एक और बड़ा कारण है कि कांग्रेस के बड़े लीडर लीडर रह गए हैं। जनसंपर्क की रस्म केवल चुनाव के दिनों में ही कर पाते हैं वह भी अपना आरामगाह या कहे "चिंतन शिविर" छोड़कर जन सम्पर्क यदा।कदा ही कर पाते हैं। उनकी देखा-देखी नीचे के लीडर भी वैसा ही करते हैं।
पहले और दूसरे संसदीय चुनाव दस हज़ार रुपए में एक सीट लोग लड़ लेते थे और MLA के लिए ₹5000/- पर्याप्त थे। MP MLA गांव गांव जाते थे। लोग उनसे अपने आप जुड़ते थे। उनके काफिले में दो या तीन कार होतीं थी। लोग पैदल या साइकिलों पर ही प्रचार करते घे। तब कम्युनिस्ट पार्टी संसद में नम्बर दो की पार्टी हुआ करती थी। मुख्य विपक्ष कम्युनिस्ट पार्टी होती थी। उस समय हर कम्युनिस्ट पढ़ता था बाकायदा शहरों की ब्रांचों में स्कूल चलते थे। कम्युनिस्ट गांव गांव घूमते थे। वहां जनसंघ नहीं होता था। इन्हें छोटे व्यापारी इन्हें शहरों में ही चुनाव लड़ाते थे। तब इनके क्षेत्रों में जो गांव पड़ते हैं वहां से बैरंग लौटते थे। अगर किसी क्षेत्र में किसी चुनाव मे इन्हें है 500 सौ वोट पड़ जाते थे खुशियाँ मनाते थे। गांवों में इन्हें घुसने में भी डर लगता था। इनकी सबसे ज़्यादा ज़मानते ज़ब्त होतीं थीं। पार्टियों का पूरे साल गांवों में लोगों से सम्पर्क रहता था।
मैंने सांसदों और विधायकों को बिना सुरक्षा के देखा है। उनकी बातें सुनी हैं और बातें की हैं। एक बार मेरठ शटल में जनसंघ के मेरठ निवासी राज्यसभा के सदस्य हमारे ग्रुप के साथ मिंटो ब्रिज तक आए थे। उनके पास कोई सुरक्षा नहीं थी। खूब बाते करते आए। उन्होंने अपने घर आने को कहा। इस देश मे एक केंद्रीय गृहमंत्री अपने घर से पैदल चल कर जो सीपीआई के सदस्य थे जनपथ की एक होटल पर खाना खाने आते थे। यह उनका रोज़ का क्रम था कोई सिपाही भी उनके साथ नहीं होता था। और देशों मे भी इतनी सुरक्षा नहीं होती जितनी यहां होती है। यहाँ तो मुख्यमंत्री तक को खतरा महसूस होता है और वोट के लिए खतरे के नाम पर बेकुसूर लोगों का भी एनकाउंटर करवा देता है। तब कॉफ़ी हाउस में सब नेता बिना सुरक्षा के ही आते थे।
केरल में 1957 में कामरेड EMS के नेतृत्व में कम्युनिस्ट सरकार बनी। EMS जैसे लोग उस समय देश के सबसे सम्मानित नेताओं मे घे और आज भी हम जैसे लोग उनको सम्मान से याद करते हैं। उन्होंने अपनी सारी संपत्ति पार्टी के नाम करदी थी। पार्टी ने जो उनका वेतन तय किया था उसी में गुजारा करते थे। तब थी मुद्दों की राजनीति। लोगों से ज़्यादा नेता जनहित की चिंता करते थे। तब पैसे और घमंड की ज़लालत की राजनीति नही थी। मैंने खुद नेहरू जी को एम्बेसडर कार में मेरठ जाते हुए बहुत नजदीक से देखा है। लोग उनके दर्शन करने के लिए उमड़ पडे थे। मैंने तो उन्हें दो फीट की करीबी से देखा था। बस एक मोटी रस्सी सिपाहियों ने पकड़ रखी थी। मैने उन्हें प्रणाम किया था।उत्तर में मैने उनकी मधुर मुस्कान देखी थी। जो आज भी मेरी यादों के ख़ज़ाने में सुरक्षित है।
इतने लोग कभी भूखे कभी नहीं थे इस देश मे जितने कि आज भूखे सोते हैं। क्या तरक्की की हमने? पहले सत्तर साल का किया हुआ भी मटियामेट कर दिया। देश में अपने लोगों से दुश्मनी बाहर खुशामद। चीन को लाल आंख दिखाने वाले उनका नाम तक लेने में डरते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इतनी भद कभी नहीं पिटी इस देश की अब तो सब सीमाएं टूट गईं हैं। पता नहीं कैसे अच्छे दिन हैं ये।
( लेखक मूलत: अलीगढ़ के रहने वाले हैं। संप्रति राजस्थान के जयपुर में रहकर स्वतंत्र लेखन।)
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