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साबरमती का संत-17: संभवतः बिहार की इकलौती जगह जहां गांधी 81 दिनों तक रहे

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  17वीं किस्त -संपादक। )

पुष्‍यमित्र, पटना:

यह पटना का एएन सिन्हा इन्स्टिट्यूट है। यह जगह सामान्य नहीं है। यह संभवतः बिहार में ऐसी इकलौती जगह है, जहां गांधी का 81 दिनों का कैंप था, इस कैंप में उनकी कम से कम 54 रातें गुजरी हैं। बीच में वे दिल्ली, कलकत्ता, मसौढ़ी और जहानाबाद जाते रहे। चंपारण सत्याग्रह के दौरान गांधी वहां लंबी अवधि तक रहे। मगर वहां भी वे शायद ही किसी एक जगह इतनी लंबी अवधि तक ठहरे होंगे। भितिहरवा में जहां गांधी और कस्तूरबा लंबी अवधि के लिए थे, उसे सरकार ने संग्रहालय और तीर्थ का रूप दिया है। फिर राजधानी पटना में स्थित इस महत्वपूर्ण जगह को लेकर ऐसी उपेक्षा क्यों? क्यों वहां दो अक्तूबर और 30 जनवरी को फूल माला चढ़ाने या प्रणाम करने तक कोई नहीं पहुंचता। इस बार दो अक्टूबर के दिन इस जगह छोटी सी सभा करते हुए गांधी जी की जयंती मनाने की इच्छा है। 5 मार्च  1947 से लेकर 24 मई 1947 तक गांधी जी का यही ठिकाना हुआ करता था। वे नोआखली दंगों की प्रतिक्रिया में हुए बिहार दंगे के बाद यहां पीस मिशन के लिये आये थे। इस भवन में रहते हुए गांधी ने पटना के आसपास के कई इलाकों में उसी तरह भ्रमण किया जैसे उन्होने नोआखली में किया था। खास तौर पर मसौढी और जहानाबाद के गांवों में। उन्हें लोगों के मन से साम्प्रदायिक कटुता को खत्म करने में काफी सफलता मिली। इस मिशन के दौरान वे लगभग रोज सामने के लॉन में प्रार्थना सभा करते थे। वहां रोज भारी भीड़ उमड़ती थी। बाद में उस मैदान का नाम गांधी मैदान रख दिया गया। जिसे हम सब जानते हैं। इस लिहाज से यह जगह किसी तीर्थ से कम नहीं। 

 

गांधी जयंती के लिए नहीं मिल रही अनुमति

यह जगह पटना के एएन सिन्हा इन्स्टिट्यूट के परिसर में बायें कोने में है। जाहिर सी बात है यहां सभा करने के लिये इजाजत लेनी पड़ेगी। वह आसान काम नहीं है। कोशिश की जा रही है। इस बीच समय से पहले पटना के मित्रों को सूचित कर दे रहा हूं। आप मन बनाकर रखें। हम सबको इस दुर्लभ तीर्थ पर जाकर गांधी को याद करना चाहिये। इस बहाने इस जगह के बारे में और 1947 के गांधी पीस मिशन के बारे में भी लोग जानेंगे। आप सबों के सहयोग की अपेक्षा रहेगी। कल लगभग पूरा दिन एएन सिन्हा इन्स्टीट्यूट के परिसर में ही बीता। गांधी शिविर में दो अक्टूबर के आयोजन की इजाजत लेने गया था। पता चला कि आजकल इंस्टीटयूट में कोई फुल टाईम निदेशक नहीं है। इजाजत के लिये रजिस्ट्रार से मिलना होगा। रजिस्ट्रार लंच के बाद लौटे तो उन्होने एडमिनिस्ट्रेटर से मिलने कह दिया। एडमिन ने कहा कि यह तय करना मेरे बस की बात नहीं रजिस्ट्रार से मिलिये।

रजिस्ट्रार नील रतन खुद मिलने के लिये तैयार नहीं थे

रजिस्ट्रार नील रतन खुद मिलने के लिये तैयार नहीं थे। डायरेक्टर की पीएस मैसेज ला और पहुँचा रहे थे। रजिस्ट्रार ने मैसेज भेजा कि वे गांधी शिविर में आयोजन की इजाजत नहीं दे सकते। उन्होने कहा कि हम चाहें तो गांधी संग्रहालय में प्रार्थना सभा कर लें। मगर हम तो गांधी शिविर में आयोजन करना चाहते हैं। मैने कह दिया, अगर इजाजत नहीं मिली फिर भी आयोजन होगा। बताया गया कि दरअसल गांधी शिविर के जीर्णोद्धार का जिम्मा बिहार विरासत समिति के पास था। काम कब का पूरा हो गया मगर आज तक उसे एएन सिन्हा इंस्टीटयूट को हैंड ओवर नहीं किया गया है। यही वह टिपिकल ब्यूरोक्रेटिक प्रोब्लम है जिस वजह से जीर्णोद्धार के बाद भी यह गांधी शिविर उपेक्षित पड़ा है। इतना कि उसकी दीवारों पर काई उग आई है। छतों पर पेड़ उगने लगे हैं। इसी वजह से इंस्टीटयूट गांधी जयंती या पुण्यतिथि के दिन खुद भी वहां कोई आयोजन नहीं करता न दूसरों को करने देना चाहता है।

 

 

गांधी ने कब कहा कि अधिकारियों के हर फ़ैसले को मान लेना चाहिए

मैं जब कहा कि इजाजत नहीं मिलने पर भी हम आयोजन करेंगे तो कहा गया- जबरदस्ती करेंगे? मैने कहा- हां। फिर कहा गया- आप तो गांधीवादी हैं फिर भी? मैने कहा- गांधी जी ने कब कहा कि अधिकारियों के हर फ़ैसले को मान लेना चाहिये? चम्पारण में मैजिस्ट्रेट की आज्ञा का उल्लंघन किया। फिर नमक का कानून तोड़ा। जीवन भर तो सविनय अवज्ञा ही करते रहे। मैने कहा, मैं आवेदन लिख कर जा रहा हूं। या तो आपलोग स्वीकृति दीजिये या हमें मजबूरन बिना इजाजत आयोजन करना पड़ेगा। खैर पीएस समझदार थे। उन्होने बात बढ़ाना उचित नहीं समझा। मेरे रजिस्ट्रार के नाम के आवेदन को बदल कर निदेशक के नाम करवाया और कहा कि एक बार फिर से कोशिश करते हैं। देखिये इंस्टीटयूट अन्तिम फैसला क्या लेता है। आयोजन तो होगा ही।

 

गांधी शिविर में प्रार्थना सभा होनी ही चाहिए

ज्यादातर लोगों ने इस बात को लेकर सहमति व्यक्त की है कि एएन सिंहा इंस्टीट्यूट प्रशासन इजाजत न भी दे तो भी दो अक्तूबर को गांधी शिविर में प्रार्थना सभा करना ही चाहिए। आप सभी लोगों की सहमति से मेरा संकल्प मजबूत हुआ है। हालांकि मैं चाहता हूं कि यह काम बिना किसी विवाद के पूरा हो। यह कोई छोटी-मोटी जगह नहीं है, एक तीर्थ सरीखा है। यहां के बारे में लोगों को जानना ही चाहिए और कम से कम गांधी जयंती और पुण्यतिथि पर यहां आयोजन होना ही चाहिए। चूंकि यह जगह एएन सिंहा संस्थान के परिसर में है, इसलिए यहां आयोजन की जिम्मेदारी संस्थान की ही है। खास तौर पर यह देखते हुए कि यहां गांधी पीस को लेकर एक अलग संकाय है। दुखद है कि इसके बावजूद वहां के लोग गांधी जयंती और पुण्यतिथि पर भी वहां फूल माला तक चढ़ाने नहीं पहुंचते। पिछले साल भी दो अक्तूबर के दिन वहां गया था। यह तसवीर उसी दिन की है। तभी निश्चय किया था कि यहां आयोजन होना चाहिए।

 

गांधी ने हिंदू-मुसलिम एकता का अभियान चलाया

मैंने पहले ही लिखा है कि सवाल ठहरने का ही नहीं है। वहां रहते हुए गांधी ने हिंदू-मुसलिम एकता का जो अभियान चलाया वह अद्भुत था। वहां रहते हुए रोज गांधी जी सामने के मैदान( अब गांधी मैदान) में प्रार्थना सभा करते हुए और वहां रोज लाखों लोग जुटते थे। उन्होंने मसौढ़ी और जहानाबाद के दंगा ग्रस्त गांवों की यात्रा उसी तरह की जैसे उन्होंने नोआखली के गांवों की यात्रा की थी। लोगों के मन को बदला। यहां के लोग गुमनाम चिट्ठियां लिखकर गांधी से माफी मांगते थे कि दंगे में शामिल होकर उनके अपराध हो गया अब वे पश्चाताप करना चाहते हैं। वह पूरा प्रसंग अद्भुत है। मगर हम बिहार के लोगों को इसके बारे में लगभग न के बराबर मालूम है। चंपारण सत्याग्रह से कम महत्वपूर्ण नहीं रहा है, यह अभियान। 

इस जगह के बारे में और अधिक जानने के लिए फोटो को जूम कर बोर्ड पर लिखी सूचना को पढ़ें।

अगर सरकार या समाज इस जगह को ढंग से विकसित करे तो यह एक महत्वपूर्ण तीर्थ बन सकता है। इसके लिए सरकार को अनिच्छुक दिखती है, मगर समाज का दायित्व बनता है कि वहां जुटे और इसका प्रचार-प्रसार करे। मेरा यही मकसद है। मैं अभी भी चाहता हूं कि सरकार या संस्थान इस परंपरा को शुरू करे और यह जिम्मा अपने हाथ में ले। हमलोग सहयोगी भूमिका में रहेंगे। मगर यह काम हो।मैं टकराव नहीं चाहता। पर अगर सरकार और संस्थान इसी तरह उदासीन बने रहे तो हमलोग इस कर्तव्य से पीछे भी नहीं हट सकते। मैं सरकारी आदेश का इंतजार कर रहा हूं और मन ही मन दो अक्तूबर की शाम चार से छह बजे तक प्रार्थना सभा की तैयारी भी कर रहा हूूं। आप सभी लोग खुद को आमंत्रित समझें। आयोजन हर हाल में होगा।

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(लेखक  एक घुमन्तू पत्रकार और लेखक हैं। उनकी दो किताबें रेडियो कोसी और रुकतापुर बहुत मशहूर हुई है। कई मीडिया संस्‍थानों में सेवाएं देने के बाद संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।