आलोक वाजपेयी, लखीमपुर-खीरी:
महात्मा गांधी के बाद कांग्रेस के पास ऐसा कोई नेता नहीं रहा जो कि कांग्रेस संगठन और कांग्रेस की विचारधारा पर गहराई से मनन-चिंतन करके उसे अमली जामा पहना सके। भारत का सौभाग्य था और महात्मा गांधी की अचूक निगाह थी कि उन्होंने देश निर्माण के लिए जवाहरलाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी बहुत पहले ही चुन लिया था। नेहरू ने 200 साल के उपनिवेशवाद से मुक्त हुए एक नए देश को अपने पैरों पर खड़ा करने का संकल्प लिया और भारत की एक मज़बूत नीव बनाई। नेहरू और कांग्रेस की सबसे ख़ास बात यह थी कि उन्होंने भारत का निर्माण लोकतंत्र की बुनियाद पर किया। अगर नेहरू और कांग्रेस की सोच संकीर्ण होती तो वह भारत को तानाशाही की ओर भी ले जा सकने में पूरे सक्षम थे और उनके पास इसके लिए पर्याप्त ताकत भी थी। लेकिन जिस एक मोर्चे पर नेहरू की कांग्रेस ध्यान नहीं दे पाई, वह कांग्रेस का सांगठनिक और वैचारिक कार्यभार था।
सच पूछिए तो नेहरू ने व्यक्तिगत रूप से इस दिशा में भी बहुत से प्रयास किए और नेहरू के यह प्रयास अभिलेखीय प्रमाणों के रूप में उपलब्ध भी हैं, लेकिन नेहरू को इस बड़े काम के लिए ज़रूरी साथ नहीं मिला। किस तरह से 1948 के बाद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के कुछ बड़े नेताओं में अपने-अपने रास्ते अलग कर लेने की प्रतिस्पर्धा और कांग्रेस पर आक्रमण करके ख़ुश हो लेने की प्रवृत्ति रही, यह अलग लेख का विषय है। फिलहाल इतना कहना पर्याप्त है कि इन नेताओं में राजनीतिक अधीरता बढ़ती चली गई और कांग्रेस का विरोध करने के लिए इन्होंने समाज के अवांछनीय दलों को भी अपने में जोड़ लिया। राम मनोहर लोहिया इस अंध कांग्रेस विरोध के सबसे बड़े पैरोकार बनते हैं और उनके बाद में 1972 से जे0पी0 खुद को दूसरा गांधी समझ कर जाने-अंजाने उन लोगों की गोद में जा बैठते हैं, जो कि न केवल भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का विरोधी रहा, बल्कि जिसने महात्मा गांधी की हत्या की ज़मीन बनाई और नेहरू जिनकी आंख में हमेशा खड़कते रहे।
आखिर कांग्रेस की मूल विचारधारा है क्या
विचारधारा कोई सुविधानुसार टुकड़े-टुकड़े जोड़कर बनाया गया लबादा नहीं होता। किसी दल की विचारधारा में बहुत से प्रत्यक्ष व सूक्ष्म वैचारिक तन्तु एकसाथ जुड़े रहते हैं। विचारधारा का निर्माण रातो-रात नहीं हो जाता, बल्कि इसमें लम्बा समय लगता है और विचार व कर्म दोनों में एक सतत् सम्बन्ध बनाना होता है। कांग्रेस की विचारधारा को समझने के लिए कुछ बिन्दुओं पर निगाह साफ़़ होना/करना बहुत ज़रूरी है।
1. अंग्रेज़ों की जो नीति उनके समय में ’फूट डालो और राज करो’ की थी, वही बाद में उनके जाने के बाद थोड़ा अलग शब्दावलियों के साथ आईडेंटिटी पॉलिटिक्स के रूप में है। कांग्रेस की विचारधारा का आईडेंटिटी पॉलिटिक्स से मूलभूत विरोध है।
2. कांग्रेस की विचारधारा की रीढ़ राष्ट्रवाद है। यह राष्ट्रवाद यूरोप के राष्ट्रवाद से अलग है। यह राष्ट्रवाद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ विकसित हुआ और इसकी अपनी विशिष्टताएं हैं। कांग्रेस के राष्ट्रवाद का मूल मंत्र देश की सारी जनता को एक सूत्र में किसी माला की तरह पिरोना है, जिसमें धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा या किसी तरह की बाध्यता नहीं है। भारत के राष्ट्रवाद की परिकल्पना और कांग्रेस के राष्ट्रवाद की परिकल्पना, दोनों समानार्थी हैं। जिस दिन देश से कांग्रेस के राष्ट्रवाद का पराभव हो जाएगा, उस दिन यह महान भारत भूमि आपसी गृह युद्धों का अखाड़ा बन जाएगी। भारत के अनगिनत टुकड़े हो जाएंगे और कोई देशभक्ति की भावना इसे रोक नहीं पाएगी।
3. कांग्रेस की सामाजिक और सांस्कृतिक विचारधारा का मूल यह है कि हमें एकजुट रहते हुए तमाम सामजिक बुराइयों से जूझना है और सबको साथ लेते हुए इस भारत को एक आधुनिक चेतना सम्पन्न राष्ट्र बनाने में लगना है। यहां पर आधुनिकता का मतलब पश्चिम का अंधा अनुकरण नहीं है, बल्कि भारत की ज़रूरत के हिसाब से एक विशिष्ट आधुनिक सर्व कल्याणकारी सोच से है। यह अतीतजीवी बिलकुल नहीं हैं। यह अपनी सोच में पोंगापंथी भी नहीं है।
4. कांग्रेस की विचारधारा का एक सबसे बुनियादी तत्व इसका ग़रीबों की पक्षधर होना है। जो कमज़ोर है, जो सताया हुआ है, जिस पर अत्याचार हुआ है, कांग्रेस उसके लिए हमेशा मौजूद है। समाज में हर तरह की ग़ैर बराबरी को मान्यता नहीं देनी है। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की बुनियादी सोच में यह चीज़ शुरू से घुली हुई है और यह कांग्रेस में भी है।
5. धर्मनिरपेक्षता के बिना कांग्रेस की विचारधारा की कल्पना नहीं की जा सकती। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के लगभग सभी बड़े नेताओं में इस बात पर लगभग एक राय थी कि धर्म को कभी राष्ट्र निर्माण का ज़रिया नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि यह हर तरह से उस देश की जनता के लिए आत्महत्या के समान होता है, जो धर्म और राजनीति के घालमेल में फंसती है। भारत के सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता क्या है, इसको समझने और महसूस करने के लिए महात्मा गांधी से बड़ा कोई उदाहरण नहीं है। यहां यह बात कहना ज़रूरी है कि भारत के लिए धर्मनिरपेक्षता कोई मजबूरी की चीज़ नहीं है बल्कि भारतीय समाज की प्राण वायु है। यह भारत की सभ्यता और संस्कृति में हवा की तरह घुली हुई चीज़ है।
अन्त में एक बात और, विचारधारा के प्रश्न को ढुलमुल तरीके से नहीं समझा जा सकता। विचारधारा किसी राजनीतिक पार्टी का ह्रदय स्थल है, उसमें मिलावट या हीला-हवाली की गुंजाइश नहीं होती। कांग्रेस पहले ही इन वैचारिक मिलावटों की वजह से बहुत नुकसान उठा चुकी है। कांग्रेस को दृढ़ता के साथ अपनी विचारधारा को जानना और रखना होगा और तभी कांग्रेस इस देश की सेवा और वर्तमान अंधे युग से रक्षा करने में सक्षम होगी।
(मूलत: लखीमपुर-खीरीके निवासी आलोक वाजपेयी गांधीवादी लेखक हैं। )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।