(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है, 20वीं किस्त -संपादक। )
मनीष सिंह, दिल्ली:
जो कपड़े रंगने के काम आता, बंगाल और बिहार के किसानों के गले का हलाहल था। एक एकड़ जमीन में तीन काठी भूमि पर नील उगाना जरूरी था। नील जहां लगती, जमीन बेकार हो जाती। तो सरकारी अफसर और ठेकेदारों के गुमाश्ते उसे अगली बार बेहतर जमीन पर उगवाते। तो खाने के लिए अनाज की खेती न हो पाती। नील को ठेकेदार कौड़ियों के दाम ले जाते। आसपास ही फैक्ट्री होती, वहां इसका अर्क निकाला जाता, सुखाकर यूरोप भेज दिया जाता। किसान बदहाल थे, अफसर और व्यापारी मालामाल थे। यह कोई सौ सालों से चला आ रहा था। तीनकठिया प्रथा किसान की धीमी और तयशुदा मौत थी।राजकुमार शुक्ला से देखा न जाता था। कई बार उन्होंने कांग्रेस के बड़े नेताओं से अनुरोध किया, कि वे चंपारण आएं ..नील के किसानों की सुध लें। तिलक, मालवीय जैसे लोगो ने बात सुनी, लेकिन वे बड़े मसलों में मसरूफ थे। चंपारण, अपने मसीहा की बाट जोहता रहा।
लखनऊ में 1916 में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। राजकुमार शुक्ला की बात उस वकील से हुई जो दक्षिण अफ्रीका से बड़ा मशहूर होकर लौटा था। वकील मोहनदास भारत आकर कांग्रेस से जुड़ गए थे। राजकुमार शुक्ला को उम्मीद तो थी नही, मगर बात छेड़ दी। आग्रह किया कि कांग्रेस, नील के किसानों की सुध ले। चंपारण। गांधी ने बाद में लिखा- चंपारण भारत के नक़्शे में कहां पड़ता था, उन्हें नही पता था। मगर राजकुमार को उन्होंने वादा कर दिया।इसलिए कि गांधी को खुद एक चंपारण की तलाश थी। 1917 में अप्रैल की एक दुपहरी, गांधी के कदमों ने चंपारण की धरती को छुआ। वकील गांधी के साथ और भी वकील थे- बृजकिशोर प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद, मजहरुल हक, अनुग्रह नारायण सिन्हा। सबने कानून का अध्ययन किया। कांट्रेक्ट देखे। और फिर जमीनी हकीकत देखने भी निकल पड़े। लोग जुटने लगे, तो प्रशासन को भनक लगी। अधिकारियों में तत्काल सबको चंपारण छोड़ने का आदेश दिया। आश्चर्य, कि "कांग्रेसी गैंग" ने ठसके से इनकार कर दिया। जो होना था, वही हुआ। गिरफ्तारी, पेशी,जज ने जिला छोड़ने का हुक्म दिया, साथ मे 100 रुपये की जमानत मांगी। गांधी ने जमानत देने से इनकार कर दिया। न चंपारण छोडूंगा, न आंदोलन छोडूंगा। कचहरी के बाहर किसानों की भारी भीड़ थी। मौके की नजाकत देख जज ने सबको छोड़ दिया। गांधी विजेता की तरह बाहर आये।
इस किस्से ने बैरिस्टर गांधी की चमक बढ़ा दी। चंपारण के गांवों, गली कूचों में अब उनकी बातें, बेहद गम्भीरता से सुनी जाती। जहां जाते, हुजूम इंतजार करता। धीमी, महीन आवाज में जब मध्यम कद , इकहरे बदन का शख्स मजबूती से कहता- "आवाज उठाओ। नील उगाना बन्द कर दो। अनाज उगाओ। अपना हक मांगो। एक रहो। मिलकर लड़ो" तो क्या हिन्दू क्या मुसलमान, क्या पंडित क्या कोली.. सब जुट हो जाते। गांधी के अनुयायी बढ़ते जा रहे थे। उनकी बात फैलाने वालों की संख्या भी बढ़ रही थी। गांधी सिर्फ नील के राजनैतिक आंदोलन तक सीमित न थे। वे साफ सफाई, अस्पृश्यता, शिक्षा और निर्भय होकर जीने की बात कहते। बातें सीधी सच्ची, और बेहद सरल थी। गांधी कहते - तुम्हे ताकतवर सरकार, जमींदार, ठेकेदार और उसके गुमाश्तों से नही, बल्कि अपने गिर्द के भय से, वातावरण से, औरो के साथ मिलकर लड़ना है। बस, सहने से इनकार करना है।
सरकार ने दबाव महसूस किया। पहला विश्वयुद्ध जारी था, रूस में बोल्शेविक क्रांति अपने चरम पर थी। जर्मन चढ़े आ रहे थे। ऐसे में भारत मे कोई बवाल नही चाहिए था। एक अग्रेरीयन रिफार्म कमेटी बनी। गांधी को भी रखा गया। कमेटी की अनुशंसा पर तीनकठिया सिस्टम खत्म हुआ। नील उगाना अनिवार्य नही रहा। कीमत तय की गई, टैक्स हटाये और घटाए गए। ठेकेदारों पर नियंत्रण हुआ। नील फैक्ट्रीयों में वेजेस बढ़े। चंपारण का सत्याग्रह, कांग्रेस और गांधी की शानदार जीत थी। और ब्रिटिश की भारत मे पहली हार .. । अफ्रीका से लौटा वो असफल वकील, अब उम्मीद की किरण था। भारत को पता चल गया, कि अंधेरे में रोशन खिड़की खोलने वाला आ गया है। चंपारण ने गांधी को बताया कि हिंदुस्तान के मुंह मे जुबान भी है। चंपारण एक प्रयोग था। सत्याग्रह की थ्योरी, जो अब तक कांग्रेस के भीतर भी सीमित लोगो का समर्थन ले पाती थी, अब जमीन पर सत्यापित हो चुकी थी। गांधी रातोरात देश के जाने माने लीडर हो गए। कांग्रेस को पता चला कि निवेदन-दरख्वास्त की राजनीति से अलग भी रास्ता है। युवाओ को पता चला कि हिंसात्मक क्रांतिकारी गतिविधियों से हटकर भी एक मार्ग है। अहिंसात्मक अवज्ञा का मार्ग, जिसमे पूरा भारत जुड़ सकता था। गांधी इस मार्ग के प्रणेता थे।
आगे अहमदाबाद मिल आंदोलन, खिलाफत आंदोलन और फिर असहयोग आंदोलन के साथ वे भारत की राजनीतिक चेतना के केंद्र हो गए। चंपारण सत्याग्रह के वक्त कुछ लोग उन्हें बापू कहने लगे थे । तो साथी सन्त राउत ने एक सभा मे गांधी "महात्मा" कहकर पुकारा। तो बैरिस्टर गांधी, चंपारण ने बापू और महात्मा बना दिया। बापू सम्बोधन तो उन्होंने खुशी से ग्रहण किया, पर महात्मा का सम्बोधन ...!!! यह एक सम्बोधन, चंपारण का यह नील, गांधी की ग्रीवा में उसी तरह ठहर गया, जैसे शिव की ग्रीवा में हलाहल ठहर गया था। चंपारण की जमीन को गांधी का स्पर्श हुए सौ साल गुजर चुके हैं। किसान आज फिर पीड़ा में है। एक अदद गांधी की तलाश फिर तेज है। पंजाब से यूपी तक सैकड़ों चंपारण उनकी बाट जोह रहे हैं। पर क्या किसी गांधी को चंपारण की तलाश है ?
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(लेखक युवा पत्रकार हैं। संंप्रति दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।