कनक तिवारी, रायपुर:
विवेकानन्द ने यथास्थितिवाद का लगातार मुंह नोचा। रूढ़, मजहबी, चिन्तक सांसारिक, दैहिक जीवन का तो भरपूर सरंजाम लूटते रहे हैं। जनभावनाओं का शोषण करने के बावजूद अवाम को सांसारिक सुखों का नकार करने की सलाह देते रहेे हैं। मोटे-ताजे मुस्टंडे, लगभग निरक्षर, अर्द्धसभ्य कथित साधु कहलाता जमावड़ा कर्ज लेकर चार्वाक शैली में जनता के गाढ़े परिश्रम की कमाई से घी पीकर प्रवचन करता रहा है। विवेकानन्द ने इस विचार से मोर्चा लिया लेकिन अवाम के लिए भौतिक तथा सांसारिक सभ्यता को खारिज या गर्हित नहीं कहा। उन्होंने कहा आसमानी नस्ल के विचारकों के लिए अंगूर खट्टे रहे होंगे। विवेकानन्द के जाने के लगभग एक सौ उन्नीस वर्ष होने पर आज भी खुद को साधु कहती जमात उनकी भाषा में आत्मप्रताड़ित फतवा जारी करने की हिम्मत दिखा नहीं सकती। विवेकानन्द को ईसाइयत की कुरीतियों तथा इस्लाम की हमलावर अवधारणाओं के समानान्तर हिन्दू धर्म की अवैज्ञानिक मान्यताओं से मुखर होकर लड़ना पड़ा। शूद्र कहलाते अकिंचन वर्ग में हौसला पैदा करने का उनमें जज्बा मुखर होता रहता। विवेकानन्द ने शोषित और दलित वर्ग को कुरीतियों से केवल बाहर निकालने के बदले उन्हें शिक्षित करने की प्राथमिकता दी। स्पष्ट कहा राजनीति पिछड़े वर्गों की कभी मदद नहीं कर सकती, जब तक वे शिक्षित, समृद्ध और सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न नहीं हों।
विवेकानन्द ने कहा था ‘आधुनिक भारत सभी प्राणियों की आध्यात्मिक बराबरी को तो स्वीकार करता है, लेकिन क्रूरता के साथ सामाजिक भेदभाव करता है।‘ उन्होंने यह भी कहा था ‘वह देश जहां करोड़ों व्यक्ति महुआ के पौधे के फूल पर जीवित रहते हैं और जहां दस लाख से ज्यादा साधु हैं और कोई दस करोड़ ब्राह्मण जो गरीबों का खून चूसते हैं। वह देश है या नर्क? वह धर्म है या शैतान का नृत्य?‘ कुछ नासमझ या शातिर लोग विवेकानन्द को एकांगी, धार्मिक या आध्यात्मिक प्रचारक कहते थकते नहीं हैं। उन्हें विवेकानन्द के इस कथन को फिर समझने की कोशिश करनी चाहिए-‘हम भौतिक सभ्यता के खिलाफ मूर्खों की तरह बातें करते हैं। भौतिक सभ्यता, नहीं नहीं, ऐशोआराम तक गरीब आदमी के लिए काम पैदा कर सकते हैं।‘ पुरोहितवाद पर चोट करते विवेकानन्द ने इसीलिए कहा था ‘मैं ऐसे ईश्वर में विश्वास नहीं करता जो मुझे यहां तो रोटी नहीं दे सकता लेकिन स्वर्ग में अनंत सुखोें की बौछार कर देगा।‘
परंपराओं से प्रेरित कर भी विवेकानन्द नये प्रयोगशील आधुनिक ऋषि हस्ताक्षर हैं। उनके मौलिक तेवर में ब्रह्मचर्य के युवा संन्यासियों की निस्वार्थ देशभक्त टीम तैयार करना था। ऐसी टीम सांस्कृतिक इलाके में रहकर जन आंदोलनों को आदर्शवादिता से सींच सके। विवेकानन्द का साहसिक प्रयोग शुरुआत में लोगों की तसल्ली और समर्थन का सबब नहीं बना। कई गुरु भाई और अन्य समाज विचारक उनके अनूठे सुझाव से सहमत नहीं हुए। समय ने लेकिन विवेकानन्द का साथ दिया। धीरे-धीरे सिद्ध हुआ उनमें अपने समय के परे देखने की भविष्यमूलक समझ का आभास उनके गुरु श्रीरामकृष्णदेव को था। एक विश्व की समझ के बावजूद विवेकानन्द प्रतिनिधि भारतीय बने रहे। वे बेहतर भारतीय रूप में भी उन्नत होते रहे। भारत को दुनिया को एक करने रोल माॅडल की भूमिका देने के प्रवक्ता भी रहे। इसके दो बड़े कारण उनके नजरिए में रहे होंगे। पहला यह कि भारत की वैचारिक देन का इतिहास शायद संसार में सबसे पुराना है। दूसरा कि विवेकानन्द का समकालीन भारत आर्थिक हालात में करोड़ों मुफलिसों का देश था। देश न केवल पूंजीवाद का शिकार था बल्कि पूंजी कमाने की उसकी एनाॅटाॅमिकल बनावट ही नहीं थी।
विवेकानन्द ने कहा था सदियों से भारतीयों को केवल पस्तहिम्मती का पाठ पढ़ाया गया है। उनमें यहां तक भर दिया गया कि हिन्दुस्तानी औसत से भी गए बीते हैं। इसलिए सबसे पहले ज़रूरत है उन्हें आत्मविश्वास से लबरेज़ किया जाए। तब ही अंग्रेज़ों से हीनतर होने का भावबोध गायब होगा। हर भारतीय खुद को शक्तिवान समझें। हम कमज़ोर हो गए हैं। इसलिए पाखण्ड, रहस्यवाद, जादू-टोना और सुपरनैचुरल हथकंडे आजमाए जा रहे हैं। विवेकानन्द ने कहा हमें लोहे की मांसपेशियां और फौलाद की नसें चाहिए। बहुत रोनाधोना कर चुके। धोखे का तिलिस्म खत्म होना चाहिए। वह धर्म चाहिए जो मनुष्य को रचे। वह शिक्षा चाहिए जो मनुष्य का बहुआयामी निर्माण करे। धर्म की रहस्य-रोमांचकता महत्वपूर्ण भले हो। वह मनुष्य को कमज़ोर ही करती है। उन सबकी छोड़छुट्टी करने का वक्त आ गया है। लाॅस एंजिलिस, केलिफोर्निया के भाषण में उन्होंने कटाक्ष किया था। ‘‘भारत में, हमें पूरे देश में ऐसे पुराने सठियाए बूढ़े मिलते हैं, जो सब कुछ साधारण जनता से गुप्त रखना चाहते हैं। इसी कल्पना में वे अपना बड़ा समाधान कर लेते हैं कि वे सारे विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं। वे समझते हैं कि ये भयावह प्रयोग उनको हानि नहीं पहुंचा सकते। केवल साधारण जनता को ही उनसे हानि पहुंचेगी!‘‘ (वि.सा., 3/111)
विवेकानन्द सामाजिक लक्षणों, प्रथाओं, कुरीतियों और रूढ़ियों को नेस्तनाबूद भर कर देने के पक्ष में नहीं थे। कहर बनकर उस पुराने विचार संकुल पर भी टूटे थे जिसने हिन्दू धर्म के मूल और अमर मानवीय संदेशों को अपनी गिरफ्त में लेकर उसके चेहरे को विकृत कर दिया था। सदियों से चले आ रहे विकृत विचार समुच्चय की फेसलिफ्टिंग भर हो जाने से विवेकानन्द को संतोष नहीं था। उनसे चिढ़ते पोंगापंथी, ढकोसलाग्रस्त, जाहिल और मनुष्य विरोधी पुरोहित वर्ग और धर्मांध समझ ने उन्हें एक संप्रदायवादी हिन्दू साधु के रूप में प्रचारित कर उनका मनुष्य संदर्भ ही बदल दिया है।
( जारी )
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(स्वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
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