आंखों में झिलमिलाते रहे पिछले मेला के दृश्य, भाग्यशालियों ने ही ग्रहण किये अलौकिक शांति के प्रसाद। ग्रामीण, कृषि और लोक संस्कृति के सभी सामानों के सबसे बड़े 9 दिनी मेला में लगभग 2 से ढाई करोड़ का होता था कारोबार।
शहरोज़ क़मर, रांची:
पुरी से लगभग 533 किलीमीटर दूर पुरी मंदिर सा ही वास्तुशिल्प। पूजा से लेकर भोग चढ़ाने का विधि-विधान भी वैसा ही। बात जगन्नाथपुर पहाड़ी पर स्थित मंदिर की है, जिसका कलश गगन आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को चूमता तो रहा। लेकिन श्रद्धालुओं की लाखों की भीड़ नदारद मिली। चारों ओर फैले ऊंचे पेड़ ज़रूर भक्ति में झूमते रहे। रविवार सुबह भगवान जगन्नाथ, भाई बलराम और बहन सुभद्रा के नेत्रदान के बाद जय जगन्नाथ के जयकारे की गूंज सन्नाटे में दूर तक गयी। जिसने सुना वो दिल थाम कर बैठ गया। भगवान के दर्शन न कर पाने की उसे कचोट हुई। पूजन के बाद तीनों विग्रहों को वापस गर्भ में स्थापित कर कपाट बंद कर दिया गया। न भगवान रथ पर विराजे और न रथ को खींचने का उतावलापन। महज़ 1 किलोमीटर से भी कम दूरी को तय करने में रथ को 2 घंटे लग जाया करते थे। लेकिन कोरोना में भगवान 14 दिन के कोरेंटाइन (एकांतवास) में रहे, लेकिन भक्त उन्हें इस बार मौसीबाड़ी नहीं पहुंचा सके।
सुबकता रहा रथ, न ही दिखी भक्तों की पांत
लक्ष्यार्चना पूजा में पारंपरिक परिधान में न ही भक्तों की पांत दिखी, जो रथ के सामने सड़क पर ही बैठ जाया करती थी। मंद-मंद बहती अाध्यात्मिक बयार में सुबह से दोपहर तक मंदिर के मुख्य पुजारी ने चार अन्य सहयोगी पुरोहितों के संग सभी अनुष्ठान किये। वे लोग भाग्यशाली हुए जिन्हें अलौकिक शांति का प्रसाद मिला। 20 फीट चौड़ा और 20 फीट ऊंचा रथ भी सुबकता हुआ मिला। उसका दर्द था कि उसे इस बार भगवान की सेवा से वंचित क्यों कर दिया जा रहा है। सीमित लोगों के साथ मौसीबाड़ी भगवान को दूसरे दिन ले जाया सकता था। बता दें कि ऐसा दूसरे साल हो रहा है। 2020 में भी कोराना के कारण मेला नहीं लगा था।
आंखों में झिलमिलाते रहे पिछले मेला के दृश्य
इधर एक किलोमीटर के दायरे के सूनापन में तरह-तरह के झूलों पर चढ़ते-उतरते बच्चों की किलकारी, युवाओं की ठिठोली गूंजती रही, जो हर साल लगा करते थे। साथ ही लगभग 300 दुकानों में खरीदारी करते ग्रामीण और दुकानदारों के बीच की किच-किच भी कानों में 2019 के मेले को याद करा गई। यह रांची आसपास का ऐसा सबसे बड़ा मेला हुआ करता है, जहां ग्रामीण, कृषि और लोक संस्कृति की सभी चीजें मिलती रही हैं। अनुमात: घूरती यात्रा तक 2 से ढाई करोड़ का कारोबार हुआ करता था। 9 दिनी इस
बड़े मेला की दस्तक एक सप्ताह पहले ही इधर-उधर पसरे झूले, टेंट के सामान से पता चल जाती थी।
1691 को बड़कागढ़ के राजा ने कराया था मंदिर का निर्माण
1982 से पुरोहित रहे मुख्य पुजारी पं. ब्रजभूषण मिश्रा कुछ महीने पहले ही निधन हुआ है। उन्होंने बताया था कि कि मंदिर का निर्माण 25 दिसंबर 1691 को बड़कागढ़ के राजा ठाकुर ऐनी नाथ शाहदेव ने कराया था। 1976 में मंदिर ट्रस्ट बना। तब से वही देखरेख कर रहा है। 6 अगस्त, 1990 को अचानक इस मंदिर का एक हिस्सा टूट गया था। भगवान को कई दिनों तक बरामदे में विश्राम कराना पड़ा। लेकिन 1991 में बिहार सरकार और श्रद्धालुओं के सहयोग से मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया।