(हिंदी के वरिष्ठ लेखक असगर वजाहत 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में शिरकत करने पाकिस्तान गए थे। वहां लगभग 45 दिन घूमते रहे। लाहौर, मुल्तान और कराची में अनेक लोगों से मिले थे। संस्थाओं में गए थे। उन अनुभवों के आधार पर उन्होंने एक सफरनामा 'पाकिस्तान का मतलब क्या' लिखा था, जो तब ज्ञानोदय में छपा था और उसके बाद ज्ञानपीठ ने उसे पुस्तक रूप में छापा था । उस पर आधारित कुछ अंश द फॉलोअप के पाठक 12 हिस्से में पढ़ चुके हैं। अब इस सफ़र को आगे बढ़ा रहे हैं यूपी सरकार में वरिष्ठ अधिकारी रहे मंज़र ज़ैदी। प्रस्तुत है 16 वां भाग:)
मंज़र ज़ैदी, लखनऊ:
बादशाही मस्जिद से बाहर आने के बाद हम क़िले के आलमगीर गेट की ओर बढ़े। यह गेट बादशाही मस्जिद के सामने है। लाहौर क़िले के अंदर जाकर उसकी हालत देख कर दुख हुआ क्योंकि इसका रखरखाव पुरातत्व विभाग द्वारा भली-भांति नहीं किया जा रहा था। दीवारों पर काई जमी हुई थी और जगह-जगह सीमेंट प्लास्टर उखड़ा हुआ था। वहां कार्यरत एक कर्मचारी से इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि रखरखाव के लिए जो रूपेया मिलता है उसमें से बहुत कम इसकी मरम्मत पर खर्च होता है। यह किला लगभग 20 हेक्टेयर में फैला हुआ है।
इसका निर्माण किसके द्वारा कब कराया गया यह ठीक से ज्ञात नहीं है परंतु पुरातत्व विभाग के अनुमान के अनुसार यह क़िला 11वीं शताब्दी में बनाया गया था। समय-समय पर विभिन्न राजाओं के आक्रमणों से यह नष्ट होता रहा तथा विभिन्न राजाओं द्वारा इसकी मरम्मत कराई जाती रही।
मुगल सम्राट अकबर के द्वारा 1556 ईस्वी में इसका पुनर्निर्माण कराया गया तथा रावी नदी की ओर इसका विस्तार करके 'दौलत खानए खास व आम' 'झरोखाए दर्शन' तथा 'मोती मस्जिद' का निर्माण कराया गया। इसके पश्चात सम्राट जहांगीर ने 1618 ईस्वी में 'दौलत खाने जाहांगीरी' सम्राट शाहजहां ने 1631 ईस्वी में 'शीश महल' तथा 'दीवान-ए- खास' तथा औरंगजेब ने 1674 ईस्वी में 'अलमगीरी गेट' का निर्माण कराया।
वर्ष 1799 से 1845 तक यह किला महाराजा रंजीत सिंह के शासन में रहा जिनके द्वारा इसमें 'बारादरी राजा ध्यान सिंह' का निर्माण कराया गया। वर्ष 1846 में इसे ब्रिटिश सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया तथा 1927 में ब्रिटिश सरकार द्वारा इसे पुरातत्व विभाग को सौंप दिया गया। 1981 में यह यूनेस्को के वैश्विक धरोहर में सम्मिलित हो गया। क़िले के बारे में यह सारा विवरण क़िले में लगे एक बोर्ड पर लिखा हुआ था।
क़िले के अंदर मौजूद कई इमारतों में गए मगर वह सारी इमारतें हमें नहीं दिखाई दी जिनका विवरण ऊपर दिया गया है। या तो उनमे से कुछ इमारतें अब शेष नहीं है या फिर क़िले के कुछ हिस्से को पर्यटकों के लिए बंद कर दिया होगा जैसा कि दिल्ली और आगरा के क़िलों में है। क़िले के अंदर कई इमारतों का आर्किटेक्चर भी दिल्ली और आगरा के क़िलों से मिलता जुलता है। क़िले मैं पर्यटकों की संख्या भी बहुत कम दिखाई दी जब कि दिल्ली और आगरा के क़िलों में पर्यटकों की संख्या बहुत अधिक होती है। संभवतः क़िले का उचित रखरखाव न होने के कारण पर्यटक उसकी ओर आकर्षित नहीं हो रहे हैं। क़िले से बाहर आए जहां निकट ही महाराजा रंजीत सिंह की समाधि है जो उनके देहांत के पश्चात उनके पुत्र महाराजा खड़क सिंह के द्वारा बनवाई गई थी। इसी परिसर में पश्चिम की ओर महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र राजा खड़क सिंह और महाराजा रंजीत सिंह के पौत्र नेहाल सिंह व उनकी पत्नियों की समाधियाँ भी हैं।
जारी
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पहला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: हिंदी के एक भारतीय लेखक जब पहुंचे पाकिस्तान, तो क्या हुआ पढ़िये दमदार संस्मरण
दूसरा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: पड़ोसी देश में भारतीय लेखक को जब मिल जाता कोई हिंदुस्तानी
तीसरा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: आतंकवाद और धर्मान्धता की जड़ है- अज्ञानता और शोषण
चौथा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: हिन्दू संस्कारों की वजह से मैं अलग प्लेट या थाली का इंतज़ार करने लगा
पांचवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: दरवाज़े पर ॐ लिखा पत्थर और आंगन में तुलसी का पौधा
छठवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: पत्थर मार-मार कर मार डालने के दृश्य मेरी आँखों के सामने कौंधते रहे
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नौवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: कराची के रत्नेश्वर मंदिर में कोई गैर-हिंदू नहीं जा सकता
दसवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: अपने लगाए पेड़ का कड़वा फल आज ‘खा’ रहा है पाकिस्तान
11वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: कराची में ‘दिल्ली स्वीट्स’ की मिठास और एक पठान मोची
12 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : इस्लामी मुल्क से मैं लौट आया अपने देश, जहां न कोई डर और ना ही ख़ौफ़
13 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : बस से जब पहुंचा लाहौर, टीवी स्क्रीन पर चल रही थी हिंदुस्तानी फिल्म
14 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : 18 वीं शताब्दी के इस गुरुद्वारे की दीवारें हैं पांचवें गुरु अर्जुन देव की शहादत की गवाह
15 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : अज़ान और अरदास की जुगलबंदी- गुरुद्वारे के पास ही है लाहौर में बादशाही मस्जिद
(मूलत: यूपी के जिला बिजनौर के चांदपुर के रहने वाले मंज़र ज़ैदी शायर और लेखक हैं। सिंचाई विभाग में अधिकारी रहे। संप्रति UP-RRDA से संबद्ध और स्वतंत्र लेखन )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।